कोई भी धर्म देश और काल के अनुरूप एक आचरण पद्धति होता है। हर धर्म के पांच मूल सिद्धांत होते हैं, सत्य का पालन ,जीवों पर दया , भलाई , इंद्रीय संयम , और मानवीय उत्थान की उत्कंठा। लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि पूजा , नमाज , हवन या सत्संग कर लेने से उनका उत्थान नहीं होनेवाला। धर्म निरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों और ईसाईयों के मुद्दे पर देश में अनावश्यक हंगामा खडा किया जाना और राम मंदिर तथा बाबरी मस्जिद जैसे सडे प्रसंगों को तूल देना हमारा धर्म नहीं है।
आज इस राजनीतिक वातावरण के परिप्रेक्ष्य में 'हिन्दू' शब्द की जितनी परिभाषा राजनेताओं की ओर से दी जा रही हैं , उतनी परिमार्जित परिभाषा तो विभिन्न धर्म सुधारकों , विद्वानों , तथा चिंतकों ने कभी नहीं की होगी। ये सत्ता लोलुप राजनेता उस व्यक्ति विशेष , संस्था या राजनीतिक दल को तुरंत साम्प्रदायिकता का जामा पहनाने से नहीं चूकते , जो हिंदुत्व की बात करता है। यह उनकी सत्ता प्राप्ति की दौड जीतने का एक बेवकूफी भरा प्रयास ही है। ये शब्द उन करोडों लोगों को आहत करते हैं , जो अपने देश या अपनी संस्कृति से प्यार करते हैं और यदि वे सत्ता के शीर्ष पर हैं तो वह चंद लोगों की चाह नहीं , करोडों लोगों के सहयोग से हैं। नेता पहले स्वयं आत्म मंथन करें और अपनी योग्यता का आकलन करें और वही सांप्रदायिकता का पहला पत्थर फेकें , जिसने कभी भी किसी रूप में किसी विशेष संप्रदाय का समर्थन न किया हो।
हमारे देश की संस्कृति अपने आप में ही विलक्षण है , इसकी जो आत्मसात करने की प्रवृत्ति है , वो अन्यत्र दुर्लभ है। नैतिकता के हमारे नियम उदार हैं , सत्कार और परोपकार इसमें जोरदार रूप से भरा है। इतिहास भी मूक स्वर में इसका साक्षी है कि हिन्दूओं ने आजतक किसी दूसरे मुल्क में तरवार लेकर कदम नहीं रखा , यदि रखा भी है तो 'अहिंसा परमोधर्म:' का सूत्र वाक्य लेकर। हिन्दूओं ने किसी के समक्ष मृत्यु वरण या धर्म परिवर्तन का भी विकल्प नहीं रखा है। हिंदुस्तान में रहनेवाले कुछ लोगों ने भले ही विदेशी शासन काल में या अन्यान्य कारण से धर्म परिवर्तन भी कर लिया हो , पर वे अभी भी हिन्दुत्व की भावना से ओत प्रोत हैं।
पर आज हिन्दू अपने वास्तविक धर्म को भूल गए हैं , पापार्जित धन के दुष्परिणामों से बचने के लिए उसके अंशदान से वे मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे और चर्च तो बनवाते हैं , पर सामुदायिक हॉल , तालाब , कुएं और धर्मशालाएं न तो बनाते हैं और न ही उसके प्रबंधन पर ध्यान देते हैं। वे इच्छा होने पर पूजा करते है , हर जुम्मे बिना नागा के नमाज पढते है , ईसा को ध्याते है , गुरूद्वारे में माथा टेकते है , अपने धर्मस्थलों को आर्थिक अंशदान देते हैं, पर एक पंथ के हिन्दू दूसरे पंथ के हिन्दू को हीन समझते है। हिन्दू धर्म में इतने धर्म , बाबा , बैरागी , साधु, संत , मार्ग बना दिए गए हैं कि हिन्दू टुकडों टुकडों में बंट गया है, अब जरूरत है हमें एक होने की। जिस तरह आजादी प्राप्त करने के लिए हम सब मिलकर एक हो गए थे, आज की समस्याओं से निजात पाने के लिए भी हमें एक होने की आवश्यकता है।
3 टिप्पणियां:
दुरुस्त और सामयिक आह्वान है !
सुंदर बात कही गई है। हम धर्म या पंथ के स्थान पर संस्कृति की बात करें तो उसे ओढ़ने बिछाने लगें तो हम साम्प्रदायिक नहीं होंगे।
बिलकुल सही कहा है और मेरा मानना है कि ये सब बाबा या साधु सन्तों के अपने हितों को प्रमुखता देने के कारण ही हुया है। सब अपने नाम को जीवित रखने के लिये हिन्दु धर्म को समय समय पर बाँटते रहे हैं । अब हम धार्मिक से अधिक साम्प्रदायिक हो गये हैं। शुभकामनायें
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