भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास और पिछली सदी में देश के हजारो बन्दों का बलिदान साक्षी है कि भाईचारे , एकता , अभिन्नता और अखंडता के लिए मर मिटने की तन्मयता कितनी उग्र थी। पर आज की युवा पीढी भौतिकता से जुडे अर्थवाद की ओर तेजी से उन्मुख हो रही है। यही अध:पतन का मुख्य कारण है। सत्य तो यह है कि तत्तवत: विश्व के सभी धर्मों का एक ही लक्ष्य ... प्रेम , सेवा त्याग और अहिंसा में निहित है , किंतु यह केवल बाह्य पक्ष का अंधानुकरण ने मानव के अंत:पक्ष को अनदेखा कर वास्तव में शरीर , मन , बुद्धि और चित्त का सम्यक संतुलन ही खो दिया है। वृहत भोग से चिपके अर्थलोभ ने पाशविकता को चरम स्वर दे मानवीयता के मापदंड को निम्न किया है। परिवार , समाज और राष्ट्र ... सभी पर भोग और लोभ का मनोरोग कैंसर की तरह बढा है। संयुक्त परिवार सिमटकर , एकल जोडे की तनावग्रस्त स्वार्थ लिप्सा से मोहित , आशावादी वृद्धों को सिसकती सांसों के साथ जीने को बाध्य किए हैं। युवा पीढी में शिक्षा , जागरूकता और स्वतुत्रता यद्यपि विकास के लिए वरदान है , पर उच्छृंखलता , मदिरा ड्रग सेवन , डिस्को , छलावा , आतंक , हिंसा से लेकर यौन संबंधी छूट से संलग्न असाध्य रोगों के प्रसारण में सहायक बन प्रदूषित कर अन्त: बाह्य को कलुषित किए हुए है।
प्रदर्शन और वैभव की चमक से आक्रांत युवा पीढी नित्य नवीन फैशन शो के दुष्प्रभाव और व्यय के अतिरिक्त नग्नता को तो प्रोत्साहित करती ही है , रूपाकर्षण को परिमार्जित करने के अनोखे नकली प्रसाधनों सहित धन्धों के लिए जो लुभावने अड्डे और जिन व्याभिचारों को न्योता देती है , वह भी शोचनीय है। समाज में धर्माडंबर के नाम पर वाहवाही के प्रदर्शन , अर्थ जागरण , भंडारे , यज्ञ पूजन ,आदि में भी शुद्ध श्रद्धा की अपेक्षा व्यवसायिकता ही प्रबल दिखती है। इस वृत्ति का अतिक्रमण वीभत्स हो उबरता है , जब जीवन दायिनी दवाओं , दूध , घी और खाद्यान्नों में मिलावट पकडी जाती है। जनसेवक के नाम पर सत्ता आरूढ नेतागण जब करोडों का धन और समय पुत्र पुत्रियों के विवाह पर न्योछावर कर गौरवान्वित होते हैं। अब समय आ गया है किहम अपने अंत: करण का पुनर्वासन कर समता , यमता और नयी सोंच के संकल्प से 'सर्वे भवन्तु सुखिन: , सर्वे सन्तु निरामया:' की मान्यता को चरितार्थ करें !!
पहले सच्चे इंसान, फिर कट्टर भारतीय और अपने सनातन धर्म से प्रेम .. इन सबकी रक्षा के लिए ही हमें स्वजातीय संगठन की आवश्यकता पडती है !! khatri meaning in hindi, khatri meaning in english, punjabi surname meanings, arora caste, arora surname caste, khanna caste, talwar caste, khatri caste belongs to which category, khatri caste obc, khatri family tree, punjabi caste surnames, khatri and rajput,
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रविवार, 7 मार्च 2010
शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010
आकाश राज जी ... क्या आप अपने गांव और जिले का नाम लेने से परहेज कर सकेंगे ??
भारतवर्ष के इतिहास से पता चलता है कि खत्री जाति का काम प्रजा की रक्षा करना था। समाज में , राज्य में और शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में उनकी अहम् भूमिका रही है। पर कालांतर वे सिर्फ व्यवसाय में ही रम गए और आज भी उसी में रमे हैं। समाज और देश के इस बिगडे हुए हालात से , देशवासियों की दुर्दशा से वे तनिक भी विचलित नहीं हो रहे हैं। मैं इस ब्लॉग के माध्यम से उन्हें एकजुट करने और देश की स्थिति को सुधारने की अपील कर रही हूं। मेरे विचारों को पढने और अनुसरणकर्ता बनने के लिए मैने सबसे अनुरोध किया है , जो भी हमारे विचारों से इत्तेफाक रखते हों, मेरे साथ चल सकते हैं। मेरा एक भी पोस्ट ऐसा नहीं है , जो स्वार्थपूर्ण होकर लिखा गया हो। इसी सिलसिले में कल इस ब्लॉग पर लेखक ... कैलाश नाथ जलोटा 'मंजू' द्वारा लिखी गयी एक बहुत ही अच्छी पोस्ट प्रेषित की गयी थी , जिसको पढकर आकाश राज जी ने हमारी पंक्तियों को लिखते हुए टिप्पणी की .......
"यदि हम चाहें , तो संपूर्ण भारत में जाति जागरण का डंका बजा सकते हैं और अपनी खोई हुई कीर्ति को वापस ला सकते हैं। हम पुन: संपूर्ण समाज का प्रेरणास्रोत बनकर विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने में समर्थ हो सकते हैं। यही हमारा जाति के प्रति धर्म और त्याग होगा।"
संपूर्ण भारत में जाति जागरण का डंका तो न जाने कब से बजा पड़ा है और इसलिए तो हमारे देश में सबसे ज्यादा शांति है हिंदू - मुस्लिम - शिख - इशाई काफी नही जो अब उप जातिओं का डंका पुरे भारतवर्ष में बजाया जाये|
मैं आप पाठकों से ही पूछती हूं कि ऊपर की पंक्तियों में क्या बुराई थी , जिसका विरोध किया गया ??
मुझे तो लग रहा है कि आज अपने को आधुनिक समझनेवाले लोग हर परंपरागत बात का विरोध करने को तैयार रहते हैं। किसी को कुछ कहने लिखने के पहले ये तो ध्यान देना ही चाहिए कि इसकी मंशा क्या है ? किसी के घर में बिना पूजा के कोई काम नहीं होगा , बिना मुहूर्त्त के विवाह नहीं होगा , असफलता मिलने पर छुपछुपकर लोग ज्योतिषी के पास जाएंगे , पर सामने ज्योतिषियों की हर बात का विरोध करेंगे , इतनी बडी आबादी के बावजूद जिस महीने में लगन नहीं होता , उस महीने में कभी कभार ही शादी होते देखा जाता है , जबकि पंडित जी जिस दिन लगन अच्छा कह दें , बुकिंग की भीड हो जाती है। समाज मे यह सब मान्य है , पर मैं यदि सामाजिक भ्रांतियो को दूर करने की कोशिश करूं , तो वह अंधविश्वास हो जाता है। कमाल की मानसिकता है लोगों की ??
युवक खुद दूसरी जाति में विवाह न करें , माता पिता की बात मानकर प्रेमिकाओं को धोखा देते फिरें , पर सामने अवश्य विरोध करेंगे , बडे बडे भाषण देंगे। अपने , अपने परिवार,अपनी जाति , अपने गांव, अपने क्षेत्र और अपने देश पर सबको अभिमान होता है। अपनी अच्छी परंपरा की रक्षा करने का सबको हक है। अब जाति के कारण समाज बंट रहा है , तो जाति का नाम ही न लिया जाए । धर्म के कारण समाज बंट रहा है , तो धर्म का नाम ही न लिया जाए , ये कोई बात है ? फिर तो क्षेत्र के कारण समाज बंट रहा है , तो क्या आप अपने गांव और जिले का नाम लेने से परहेज कर सकेंगे ? आज आवश्यकता है , अपनी मानसिकता को परिवर्तित करने की , सबको समान दृष्टि से देखने की। जब वह हो जाएगी , तो हम किसी भी जाति के हों , किसी भी धर्म के हों और किसी भी क्षेत्र के हों , कोई अंतर नहीं पडनेवाला। अभी इतनी आसानी से भारत में जातिबंधन समाप्त होनेवाला नहीं , अपनी जाति के दूर दराज के परिवार में भी हम आराम से विवाह संबंध कर लेते हैं , बीच में कोई न कोई परिचित निकल आता है। पर दूसरी जाति में तब ही करते हैं , जब वह हमारे बहुत निकटतम मित्र हों। यदि विवाह संबंध करते समय आप इसका ध्यान नहीं रखते हैं , तो कभी भी आपके समक्ष भी समस्या आ सकती है। आशा है , बिना समझे बूझे हर बात का विरोध करना बंद करेंगे।
"यदि हम चाहें , तो संपूर्ण भारत में जाति जागरण का डंका बजा सकते हैं और अपनी खोई हुई कीर्ति को वापस ला सकते हैं। हम पुन: संपूर्ण समाज का प्रेरणास्रोत बनकर विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने में समर्थ हो सकते हैं। यही हमारा जाति के प्रति धर्म और त्याग होगा।"
संपूर्ण भारत में जाति जागरण का डंका तो न जाने कब से बजा पड़ा है और इसलिए तो हमारे देश में सबसे ज्यादा शांति है हिंदू - मुस्लिम - शिख - इशाई काफी नही जो अब उप जातिओं का डंका पुरे भारतवर्ष में बजाया जाये|
मैं आप पाठकों से ही पूछती हूं कि ऊपर की पंक्तियों में क्या बुराई थी , जिसका विरोध किया गया ??
मुझे तो लग रहा है कि आज अपने को आधुनिक समझनेवाले लोग हर परंपरागत बात का विरोध करने को तैयार रहते हैं। किसी को कुछ कहने लिखने के पहले ये तो ध्यान देना ही चाहिए कि इसकी मंशा क्या है ? किसी के घर में बिना पूजा के कोई काम नहीं होगा , बिना मुहूर्त्त के विवाह नहीं होगा , असफलता मिलने पर छुपछुपकर लोग ज्योतिषी के पास जाएंगे , पर सामने ज्योतिषियों की हर बात का विरोध करेंगे , इतनी बडी आबादी के बावजूद जिस महीने में लगन नहीं होता , उस महीने में कभी कभार ही शादी होते देखा जाता है , जबकि पंडित जी जिस दिन लगन अच्छा कह दें , बुकिंग की भीड हो जाती है। समाज मे यह सब मान्य है , पर मैं यदि सामाजिक भ्रांतियो को दूर करने की कोशिश करूं , तो वह अंधविश्वास हो जाता है। कमाल की मानसिकता है लोगों की ??
युवक खुद दूसरी जाति में विवाह न करें , माता पिता की बात मानकर प्रेमिकाओं को धोखा देते फिरें , पर सामने अवश्य विरोध करेंगे , बडे बडे भाषण देंगे। अपने , अपने परिवार,अपनी जाति , अपने गांव, अपने क्षेत्र और अपने देश पर सबको अभिमान होता है। अपनी अच्छी परंपरा की रक्षा करने का सबको हक है। अब जाति के कारण समाज बंट रहा है , तो जाति का नाम ही न लिया जाए । धर्म के कारण समाज बंट रहा है , तो धर्म का नाम ही न लिया जाए , ये कोई बात है ? फिर तो क्षेत्र के कारण समाज बंट रहा है , तो क्या आप अपने गांव और जिले का नाम लेने से परहेज कर सकेंगे ? आज आवश्यकता है , अपनी मानसिकता को परिवर्तित करने की , सबको समान दृष्टि से देखने की। जब वह हो जाएगी , तो हम किसी भी जाति के हों , किसी भी धर्म के हों और किसी भी क्षेत्र के हों , कोई अंतर नहीं पडनेवाला। अभी इतनी आसानी से भारत में जातिबंधन समाप्त होनेवाला नहीं , अपनी जाति के दूर दराज के परिवार में भी हम आराम से विवाह संबंध कर लेते हैं , बीच में कोई न कोई परिचित निकल आता है। पर दूसरी जाति में तब ही करते हैं , जब वह हमारे बहुत निकटतम मित्र हों। यदि विवाह संबंध करते समय आप इसका ध्यान नहीं रखते हैं , तो कभी भी आपके समक्ष भी समस्या आ सकती है। आशा है , बिना समझे बूझे हर बात का विरोध करना बंद करेंगे।
बुधवार, 3 फ़रवरी 2010
हमारे चारो ओर सांस्कृतिक अवमूल्यण और सांस्कृतिक प्रदूषण का गंभीर खतरा
आज हमारे चारो ओर सांस्कृतिक अवमूल्यण और सांस्कृतिक प्रदूषण का गंभीर खतरा हो गया है। डर तो यह भी बना हुआ है कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया के प्रभाव से भारतीय संस्कृति बचेगी या विलुप्त हो जाएगी। आज जब पश्चिम संपन्न देश भोग और विलास से परेशान होकर भारतीय संस्कृति की अच्छाइयों को अपना रहे हैं , तब हम भारतवासी अपनी अच्छाइयों को त्यागकर , अपनी संस्कृति से कटकर पश्चिम की ओर भाग रहे हैं। फिल्म और दूरदर्शन के माध्यम से पश्चिमी संस्कृति का लगातार आयात हो रहा है। जो व्यक्ति पश्चिमी संस्कृति और पश्चिमी जीवनशैली को नहीं अपना रहा है , वो पिछडा यानि बैकवर्ड माना जा रहा है। नकल ही करना है , तो पश्चिमी देशों में जो अच्छाइयां हैं , उनकी नकल की जानी चाहिए। आज भारतीय संस्कृति के अवमूल्यण के लिए अनेक संस्थाएं और व्यक्ति जिम्मेदार हैं , पर अश्लील फिल्मों और धारावाहिकों का निर्माण कर फिल्म और दूरदर्शन ने हमारी संस्कृति पर जबर्दस्त प्रभाव डाला है।
जब स्वस्थ फिल्म के निर्माण की बारी आती है , तो फिल्म निर्माताओं का रोना रहता है कि साफ सुथरी और संस्कार देने वाली फिल्में नहीं चलती हैं। प्रश्न यह है कि जनता पसंद करती है , इसलिए एक फिल्म निर्माता को अमर्यादित , अनैतिक और अश्लील दृश्यों को खुलेआम दिखाने और फिल्माने की छूट मिलनी चाहिए ? क्या फिल्म निर्माता निर्देशक की राष्ट्र के प्रति कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं ? यदि सभी फिल्म निर्माता यह संकल्प ले लें कि वे अश्लीलता और हिंसा को प्रोत्साहन देनेवाली फिल्में कतई नहीं बनाएंगे , सरकार और सेंसर बोर्ड संकल्प ले लें कि वे गंदी फिल्में या धारावाहिक चलने नहीं देंगे , तो साफ सुथरी शिक्षाप्रद फिल्में और धारावाहिक अच्छी तरह चल सकते हैं।
यदि ऐसी फिल्में कम भी चलें , तो फिल्म निर्माताओं को राष्ट्र की जनता के चारित्रिक संरक्षण के लिए कुछ कुर्बानी और त्याग करना चाहिए। पैसा कमाना ही सबकुछ नहीं। यह मनुष्य की कमजोरी है कि वो अशुभ और असत्य की ओर अधिक आकर्षित होता है तथा शुभ और सत्य की ओर कम। इसका कारण यह है कि ऊपर चढना बहुत कठिन होता है और नीचे गिरना बहुत आसान।फिल्म निर्माता इसी मानव कमजोरियों का लाभ उठाना चाहते हैं। मानव जीवन में जो बुराइयां या घटनाएं कहीं भी देखने को नहीं मिलेंगी या जो देश के किसी कोने में अपवादस्वरूप हैं , उसमें मिर्च मसाला लगाकर उसको उग्र और विकृत कर उसे सार्वजनिक समस्या के रूप में पर्दे पर पेश कर दिया जाता है। हजारो प्रकार के साफ सुथरे मनमोहक , शालीन नृत्य और लोकनृत्य देश के कोने कोने में भरे पडे हैं, परंतु इसे प्रमुखता न देकर नग्नता और कामुकता को बढावा दिया जाता है। विभिन्न संस्थाओं और कंपनियो द्वारा आयोजित की जाने वाली सौंदर्य प्रतियोगिताओं के कारण भी देश में सांस्कृतिक प्रदूषण बढ रहा है। घोर आश्चर्य है कि प्रमुख अखबार फरवरी माह में वेलेन्टाइन डे मनाने के लिए बकायदा विज्ञापन देकर युवक युवतियों को प्रेम भरे पत्र लिखने के लिए उकसाकर पैसे कमाते हैं। हमारी संस्कृति में व्यक्तिगत रहनेवाला पेम अब सार्वजनिक रूप ले चुका है। संबंधित सभी व्यक्ति और संस्थाएं यदि राष्ट्र के प्रति और राष्ट्र की संस्कृति के प्रति अपने कर्तब्यों का उचित निर्वहन करें , तो भारतीय संस्कृति की गरिमा अक्षुण्ण रह सकती है।
लेखक ... आर के मौर्य जी
जब स्वस्थ फिल्म के निर्माण की बारी आती है , तो फिल्म निर्माताओं का रोना रहता है कि साफ सुथरी और संस्कार देने वाली फिल्में नहीं चलती हैं। प्रश्न यह है कि जनता पसंद करती है , इसलिए एक फिल्म निर्माता को अमर्यादित , अनैतिक और अश्लील दृश्यों को खुलेआम दिखाने और फिल्माने की छूट मिलनी चाहिए ? क्या फिल्म निर्माता निर्देशक की राष्ट्र के प्रति कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं ? यदि सभी फिल्म निर्माता यह संकल्प ले लें कि वे अश्लीलता और हिंसा को प्रोत्साहन देनेवाली फिल्में कतई नहीं बनाएंगे , सरकार और सेंसर बोर्ड संकल्प ले लें कि वे गंदी फिल्में या धारावाहिक चलने नहीं देंगे , तो साफ सुथरी शिक्षाप्रद फिल्में और धारावाहिक अच्छी तरह चल सकते हैं।
यदि ऐसी फिल्में कम भी चलें , तो फिल्म निर्माताओं को राष्ट्र की जनता के चारित्रिक संरक्षण के लिए कुछ कुर्बानी और त्याग करना चाहिए। पैसा कमाना ही सबकुछ नहीं। यह मनुष्य की कमजोरी है कि वो अशुभ और असत्य की ओर अधिक आकर्षित होता है तथा शुभ और सत्य की ओर कम। इसका कारण यह है कि ऊपर चढना बहुत कठिन होता है और नीचे गिरना बहुत आसान।फिल्म निर्माता इसी मानव कमजोरियों का लाभ उठाना चाहते हैं। मानव जीवन में जो बुराइयां या घटनाएं कहीं भी देखने को नहीं मिलेंगी या जो देश के किसी कोने में अपवादस्वरूप हैं , उसमें मिर्च मसाला लगाकर उसको उग्र और विकृत कर उसे सार्वजनिक समस्या के रूप में पर्दे पर पेश कर दिया जाता है। हजारो प्रकार के साफ सुथरे मनमोहक , शालीन नृत्य और लोकनृत्य देश के कोने कोने में भरे पडे हैं, परंतु इसे प्रमुखता न देकर नग्नता और कामुकता को बढावा दिया जाता है। विभिन्न संस्थाओं और कंपनियो द्वारा आयोजित की जाने वाली सौंदर्य प्रतियोगिताओं के कारण भी देश में सांस्कृतिक प्रदूषण बढ रहा है। घोर आश्चर्य है कि प्रमुख अखबार फरवरी माह में वेलेन्टाइन डे मनाने के लिए बकायदा विज्ञापन देकर युवक युवतियों को प्रेम भरे पत्र लिखने के लिए उकसाकर पैसे कमाते हैं। हमारी संस्कृति में व्यक्तिगत रहनेवाला पेम अब सार्वजनिक रूप ले चुका है। संबंधित सभी व्यक्ति और संस्थाएं यदि राष्ट्र के प्रति और राष्ट्र की संस्कृति के प्रति अपने कर्तब्यों का उचित निर्वहन करें , तो भारतीय संस्कृति की गरिमा अक्षुण्ण रह सकती है।
लेखक ... आर के मौर्य जी
मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010
आज की राजनीति : आवश्यकता या मजबूरी
राजनीति का जन्म चाणक्य की देन है। किसी विषय पर सहमति या असहमति जताकर , नीतिगत निर्णय लेकर उसे परिणाम तक पहुंचा देना ही राजनीति है। पहले राजनीति जनता की भलाई के लिए की जाती थी, परंतु आज तो शायद राजनीति करने भर को ही रह गयी है। राजनीति का स्वरूप बिगडकर मात्र विरोध करने और समर्थन देने तक ही सिमटकर रह गया है,चाहे वह विरोध नीतिगत हो या अनीतिपूर्ण हो। आज केवल जनता पर शासन करने की मंशा ही राजनीति है। आज की ये सस्ती राजनीति हमारे घर से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मंच तक देखने को मिल जाएगी। ऐसी राजनीति आज हमारे खून तक आ पहुंची है। आज हम न चाहते हुए भी हर क्षेत्र में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राजनीति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते।
1947 की आजादी के बाद टूटे फूटे भारत को फिर से खडा करने के लिए हमारे बुद्धिजीवियों ने जो खाका तैयार किया , उसका अच्छा या बुरा जो भी परिणाम आया वो हमारे सामने है। सरदार पटेल की दृढ इच्छा शक्ति अगर काम न करती तो इस देश के न जाने कितने टुकडे होते। पर हमारा देश आज विश्व का सबसे बडा लोकतंत्र है , जिसे विश्व समुदाय एक उपमहाद्वीप के रूप में संबोधित करता है। ऐसी कौन सी बुराई हमारे देश में आज भी विद्यमान है , जिसके कारण हम सभी भारतीय केवल भारतीय नहीं बन पाते।
हम आज भी हिंदू मुस्लिम के नाम से लडते हैं , अगाडी और पिछडा वर्ग के नाम पर बंटे हुए हैं , जाति के नाम पर अलग अलग सोंच रखते हैं , क्यूं न हम अपने भारतीय होने पर गर्व करें ? हम केवल भारतीय कब बन पाएंगे ? ऐसी राजनीति हमारे देश में कब जन्म लेगी ? क्या फिर देश में कोई चाणक्य पैदा होगा , जो आज की राजनीति का अध्याय समाप्त कर नीतिगत , रचनात्मक राजनीति का नया अध्याय , नया आयाम शुरू करेगा ?
आज की राजनीति आज के नेताओं के लिए एक आवश्यकता मात्र हो सकती है , परंतु आम जनता के लिए यह एक मजबूरी मात्र है , जिसे आम जनता आंख मूंदकर ढोने को बाध्य हैं।
लेखिका ... पूनम जोधपुरी
1947 की आजादी के बाद टूटे फूटे भारत को फिर से खडा करने के लिए हमारे बुद्धिजीवियों ने जो खाका तैयार किया , उसका अच्छा या बुरा जो भी परिणाम आया वो हमारे सामने है। सरदार पटेल की दृढ इच्छा शक्ति अगर काम न करती तो इस देश के न जाने कितने टुकडे होते। पर हमारा देश आज विश्व का सबसे बडा लोकतंत्र है , जिसे विश्व समुदाय एक उपमहाद्वीप के रूप में संबोधित करता है। ऐसी कौन सी बुराई हमारे देश में आज भी विद्यमान है , जिसके कारण हम सभी भारतीय केवल भारतीय नहीं बन पाते।
हम आज भी हिंदू मुस्लिम के नाम से लडते हैं , अगाडी और पिछडा वर्ग के नाम पर बंटे हुए हैं , जाति के नाम पर अलग अलग सोंच रखते हैं , क्यूं न हम अपने भारतीय होने पर गर्व करें ? हम केवल भारतीय कब बन पाएंगे ? ऐसी राजनीति हमारे देश में कब जन्म लेगी ? क्या फिर देश में कोई चाणक्य पैदा होगा , जो आज की राजनीति का अध्याय समाप्त कर नीतिगत , रचनात्मक राजनीति का नया अध्याय , नया आयाम शुरू करेगा ?
आज की राजनीति आज के नेताओं के लिए एक आवश्यकता मात्र हो सकती है , परंतु आम जनता के लिए यह एक मजबूरी मात्र है , जिसे आम जनता आंख मूंदकर ढोने को बाध्य हैं।
लेखिका ... पूनम जोधपुरी
सोमवार, 1 फ़रवरी 2010
आडंबर एवं प्रदर्शन समाज के लिए घातक होता है !!
यह सुविदित है कि हमारे धर्मपरायण समाज की आधारशिला 'सादा जीवन उच्च विचार' रही है। मर्यादित परिग्रह में दृढ आस्था रखनेवाले हमारे पूर्वजों ने आदर्श जीवन यापन किया है। उनके द्वारा प्रस्तुत कई उदाहरण आज भी इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं। पूर्वकाल में साधन संपन्न व्यक्ति फिजूलखर्ची में अपनी संपत्ति का प्रदर्शन नहीं करते थे। उसका उपयोग समाज , राष्ट्र और बहुजनहिताय होता था। इसी कारण वे महाजन कहलाते थे। इसी परंपरा को निभाना हमारा कर्तब्य है , साथ ही आज के वातावरण में आवश्यक भी। अत: हमारे धार्मिक सामाजिक समारोह सादगीपूण होना चाहिए तथा दिखावे और आडंबर को बढावा नहीं दिया जाना चाहिए।
वर्तमान काल की इस भौतिक चकाचौध में हमारा समाज अधिकाधिक लिप्त होता जा रहा है, मानों आपसी होड सी लगी हुई है। इस कारण समाज का बडा हिस्सा तनावग्रस्त है , साथ ही स्थानीय जनता में भी हमारे आडंबर को देखकर इर्ष्या और द्वेष की भावना जन्म ले रही है , जो समाज हित में नहीं है। समाज में सभी का आर्थिक स्तर एक सा नहीं होता , फिर भी अधिकांश लोग देखा देखी झूठी शान के चक्कर में ऐसे गैर जरूरी रीति रिवाजों को निभाने के लिए , मिथ्या आडंबर और अनावश्यक प्रदर्शन का अंधानुकरण करने के लिए विवश हो जाते हैं, जो बाद में उनके लिए पीडादायक बन जाता है।
अत: समाज में पनपती इन प्रवृत्तियों को रोकने के लिए हमें अपने सामाजिक समारोहो की पद्धति पर पुनर्विचार कर कुछ मर्यादाएं निश्चित करनी चाहिए , जो बहुजन हिताय की दृष्टि से सभी को मान्य हो , क्यूंकि इन आडंबरों का उद्देश्य अधिकतर धार्मिक भावना न होकर समाज में प्रतिष्ठा के मापदंड मे दसरों से ऊंचा दिखना होता है। क्षणिक वाहवाही के लिए किए गए इन आयोजन न तो शासन हित में ही है और न ही समाज के लिए उपयोगी। अत: धार्मिक तथा सामाजिक समारोहो में , शादी विवाह के अवसर पर तथा अन्य सामूहिक आयोजनों पर दिखावा और प्रदर्शन नहीं किया जाए , यही समय की मांग है और आज के युवा वर्ग की पसंद भी। इस संदर्भ में सभी का चिंतन हो और कुछ ठोस निर्णय लेकर सभी को मानने को बाध्य किया जाए !!
लेखिका ... पूजा कोहली
वर्तमान काल की इस भौतिक चकाचौध में हमारा समाज अधिकाधिक लिप्त होता जा रहा है, मानों आपसी होड सी लगी हुई है। इस कारण समाज का बडा हिस्सा तनावग्रस्त है , साथ ही स्थानीय जनता में भी हमारे आडंबर को देखकर इर्ष्या और द्वेष की भावना जन्म ले रही है , जो समाज हित में नहीं है। समाज में सभी का आर्थिक स्तर एक सा नहीं होता , फिर भी अधिकांश लोग देखा देखी झूठी शान के चक्कर में ऐसे गैर जरूरी रीति रिवाजों को निभाने के लिए , मिथ्या आडंबर और अनावश्यक प्रदर्शन का अंधानुकरण करने के लिए विवश हो जाते हैं, जो बाद में उनके लिए पीडादायक बन जाता है।
अत: समाज में पनपती इन प्रवृत्तियों को रोकने के लिए हमें अपने सामाजिक समारोहो की पद्धति पर पुनर्विचार कर कुछ मर्यादाएं निश्चित करनी चाहिए , जो बहुजन हिताय की दृष्टि से सभी को मान्य हो , क्यूंकि इन आडंबरों का उद्देश्य अधिकतर धार्मिक भावना न होकर समाज में प्रतिष्ठा के मापदंड मे दसरों से ऊंचा दिखना होता है। क्षणिक वाहवाही के लिए किए गए इन आयोजन न तो शासन हित में ही है और न ही समाज के लिए उपयोगी। अत: धार्मिक तथा सामाजिक समारोहो में , शादी विवाह के अवसर पर तथा अन्य सामूहिक आयोजनों पर दिखावा और प्रदर्शन नहीं किया जाए , यही समय की मांग है और आज के युवा वर्ग की पसंद भी। इस संदर्भ में सभी का चिंतन हो और कुछ ठोस निर्णय लेकर सभी को मानने को बाध्य किया जाए !!
लेखिका ... पूजा कोहली
शनिवार, 30 जनवरी 2010
व्यक्तित्व विकास के लिए हीनता सबसे बडी बीमारी है !!
क्या आपके साथ भी ऐसा होता है कि किसी धनी , सुदर और प्रभावशाली व्यक्तित्व को देखकर और उससे मिलने पर घबराहट , बेचैनी और घुटन महसूस करते हैं, जिससे आप बात शुरू कर सकें या शुरू की गयी बात को जल्द समाप्त कर सकें या कृत्रिम मुस्कान के साथ बने रहें , तो इसका अर्थ यह है कि आप अपने आपको सामने वाले से कम आंकते हैं और अपने अंदर हीन भावना पाते हैं। आत्मविश्वासी और पढी लिखी किशोरियां और महिलाओं के दूसरों के सामने खुलकर न बोल पाने या घबडाने के पीछे की हीन भावना भी अपने आपको हर रूप में श्रेष्ठ दिखाने की लालसा के कारण जन्म लेती है।
हमारे दाम्पत्य जीवन में भी आत्महीनता जहर घोलती है , किशोरावस्था से ही किसी के मन में यह भावना घर कर जाए कि वह असुंदर है और इसपर सौभाग्य से इसका पार्टनर बीस हो गया , तो उसके अंदर हमेशा असुरक्षा की भावना पनपती है। कुछ लोग बचपन में हुई गल्ती के लिए भी अपने को उत्तरदायी मान लेते हैं और अपने दाम्पत्य जीवन का नुकसान कर डालते हैं। ऐसे व्यक्तित्व के चंहरे हमेशा मुर्झाए , उदास , शंकालु और बुझे बुझे दिखते हैं। लडकियों में आत्महीनता लडकों से प्रतिस्पर्धा के कारण भी जन्म लेती है , क्यूंकि आज भी उन्हें पराया घन समझकर ही शिक्षा दी जाती है ,।
विभिन्न प्रयोगों से स्पष्ट है कि अपने को हेय समझना हमारे व्यक्तित्व की सबसे बडी कमजोरी है , दूसरों को हमेशा अपने से समर्थ और स्वयं को मिन्म समझना जीवन में सफलता पाने में सबसे बडी बाधा है। दब्बू , झेंपू और संकोची किस्म की लडकियां प्रतिभासंपन्न होते हुए भी अपने मन की साधारण सी बात कहने में भी घुटन महसूस करती है। किसी स्थान पर साक्षात्कार के नाम से ही उनके हाथ पांव फूलने लगगते हैं। प्राय: देखा गया है कि दुर्भावनाएं भी आत्महीनता की घुटन में ही जन्म लेती हैं। इसलिए आत्महीनता से बचने के लिए स्वयं को श्रेष्ठ समझने की प्रवृत्ति का विकास किया जाना चाहिए , व्यवहार में आत्मीयता लाएं , सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए स्वयं में और ईश्वर पर विश्वास रखें !!
लेखिका ... डॉ श्रीमती मीनू मेहरोत्रा
हमारे दाम्पत्य जीवन में भी आत्महीनता जहर घोलती है , किशोरावस्था से ही किसी के मन में यह भावना घर कर जाए कि वह असुंदर है और इसपर सौभाग्य से इसका पार्टनर बीस हो गया , तो उसके अंदर हमेशा असुरक्षा की भावना पनपती है। कुछ लोग बचपन में हुई गल्ती के लिए भी अपने को उत्तरदायी मान लेते हैं और अपने दाम्पत्य जीवन का नुकसान कर डालते हैं। ऐसे व्यक्तित्व के चंहरे हमेशा मुर्झाए , उदास , शंकालु और बुझे बुझे दिखते हैं। लडकियों में आत्महीनता लडकों से प्रतिस्पर्धा के कारण भी जन्म लेती है , क्यूंकि आज भी उन्हें पराया घन समझकर ही शिक्षा दी जाती है ,।
विभिन्न प्रयोगों से स्पष्ट है कि अपने को हेय समझना हमारे व्यक्तित्व की सबसे बडी कमजोरी है , दूसरों को हमेशा अपने से समर्थ और स्वयं को मिन्म समझना जीवन में सफलता पाने में सबसे बडी बाधा है। दब्बू , झेंपू और संकोची किस्म की लडकियां प्रतिभासंपन्न होते हुए भी अपने मन की साधारण सी बात कहने में भी घुटन महसूस करती है। किसी स्थान पर साक्षात्कार के नाम से ही उनके हाथ पांव फूलने लगगते हैं। प्राय: देखा गया है कि दुर्भावनाएं भी आत्महीनता की घुटन में ही जन्म लेती हैं। इसलिए आत्महीनता से बचने के लिए स्वयं को श्रेष्ठ समझने की प्रवृत्ति का विकास किया जाना चाहिए , व्यवहार में आत्मीयता लाएं , सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए स्वयं में और ईश्वर पर विश्वास रखें !!
लेखिका ... डॉ श्रीमती मीनू मेहरोत्रा
बुधवार, 27 जनवरी 2010
संवेदनहीन संस्कृति के बाद भी विकास पर नाज कर सकते हैं हम ??
21 वीं सदी में हमारा न सिर्फ कंप्यूटर युग में प्रवेश हुआ है , वरन् हमने अनेक उपलब्धियां अिर्जत की हैं , उसमें से एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है आयु का बढना। प्रति व्यक्ति औसत आयु बढ रही है। इसे आधुनिक विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र का चमत्कार कहा जा सकता है। पर आयु बढने से वृद्धों की समस्याएं भी बढती जा रही हैं। आवास , सुरक्षा , देखरेख की समस्या के साथ ही साथ जीवन के अंतिम प्रहर में सेवा , ममता और चिकित्सा की समस्या से हमारे बूढे बुरी तरह जूझ रहे हैं। भूमंडलीकरण के इस दौर में अंधाधुध रूपए कमाने की दौड में हमारा समाज अपने स्वयं और परिवार के भले तक ही सीमित रह गया है।
स्नेहपूर्ण आत्मीय संबंध आज बनावटी हो गए हें और जीवन में यौवन, मदिरा, भोग और दिखावे का महत्व बढ गया है। पद लोलुप लोगों का बोलबाला हर जगह बना हुआ है। आधुनिक पूंजीवाद और भोगवादी संस्कृति बढती जा रही है, झूठ , फरेब , मक्कारी , दुराचारी बाह्याडंबर पूरे समाज में बढता जा रहा है। परंपरागत वेशभूषा , खान पान को छोडकर पाश्चात्य , चायनीज , मांस मदिरा, जीन्स शर्ट आदि को बोलबाला बढ रहा है। सडकों पर शराब के नशे में नाचना हमारी संस्कृति है ? बूढे माता पिता , अशक्त परिवार जनों की देख रेख न करना हमारी संस्कृति है ? पिता का उत्तराधिकारी होने के कारण माता पिता की सेवा करना बहू पुत्र का कर्तब्य है। विदेशीपन आधुनिकता, के मोह में बाहरी दिखावे के चलते हमारे नवयुवक युवतियां पाश्चात्य ही हृदयविहिन संवेदनहीन संस्कृति को अपनाने में लगे हैं, वह हमारे समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है। समाज के युवक युवतियां अपनी देख रेख, सेवा , उचित सम्मान , त्याग , बलिदान , सत्य , अहिंसा , तपस्या पर आधारित सांस्कृतिक धरोहरों का अनुसरण करें एवं समाज और राष्ट्र को नवगति प्रदान करें।
लेखक ... पुनीत टंडन
स्नेहपूर्ण आत्मीय संबंध आज बनावटी हो गए हें और जीवन में यौवन, मदिरा, भोग और दिखावे का महत्व बढ गया है। पद लोलुप लोगों का बोलबाला हर जगह बना हुआ है। आधुनिक पूंजीवाद और भोगवादी संस्कृति बढती जा रही है, झूठ , फरेब , मक्कारी , दुराचारी बाह्याडंबर पूरे समाज में बढता जा रहा है। परंपरागत वेशभूषा , खान पान को छोडकर पाश्चात्य , चायनीज , मांस मदिरा, जीन्स शर्ट आदि को बोलबाला बढ रहा है। सडकों पर शराब के नशे में नाचना हमारी संस्कृति है ? बूढे माता पिता , अशक्त परिवार जनों की देख रेख न करना हमारी संस्कृति है ? पिता का उत्तराधिकारी होने के कारण माता पिता की सेवा करना बहू पुत्र का कर्तब्य है। विदेशीपन आधुनिकता, के मोह में बाहरी दिखावे के चलते हमारे नवयुवक युवतियां पाश्चात्य ही हृदयविहिन संवेदनहीन संस्कृति को अपनाने में लगे हैं, वह हमारे समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है। समाज के युवक युवतियां अपनी देख रेख, सेवा , उचित सम्मान , त्याग , बलिदान , सत्य , अहिंसा , तपस्या पर आधारित सांस्कृतिक धरोहरों का अनुसरण करें एवं समाज और राष्ट्र को नवगति प्रदान करें।
लेखक ... पुनीत टंडन
गुरुवार, 21 जनवरी 2010
चहुं ओर प्रकाश फेकने वाले दीप को ही हम सुंदर कह सकते हैं !!
आध्यात्मिक ज्ञान सहित जीवन प्रदत्त शिक्षा के लिए भारत विश्व में अग्रणी रहा है। साम्य भाव के स्तर पर निर्धन , धनी शिष्यों की एकता , नैतिकता और कर्मठता का पाठ व्यावहारिक , शैक्षिक स्थल से ही जिन गुरू आश्रमों में परहित भाव से प्राप्य था , अब वह अलभ्य ही नहीं , अपितु बदरंग हो नाना विधि प्रपंचों में दृष्टिगत है। पाश्चात्य शिक्षा और विज्ञान के विकासोन्मुख राह पर भले ही आज प्रगति की रंगीनी से व्यक्ति चांद तक पहुंचा है , किन्तु प्राचीनतम ग्रंथों की खोज से ज्ञात है कि किसी भी विषय के ज्ञान क्षेत्र मं भारत पिछडा न था।
आधुनिकतम शिक्षा जितनी महंगी और आडंबरपूर्ण है , उतनी ही कंटकों से भरपूर भी है। पहले तो अभिभावक पब्लिक स्कूलों में 'डोनेशन' से लेकर उच्च फीसें देकर अपनी संतति के लिए शीश महल बनाने के सपने देखते हैं , उसके बाद युवक इंजीनियरिंग , डाक्टरी या प्रशासनिक सेवाओं के लिए घर बार छोडकर अभिभावकों को गंधर्व नगर की योजनाओं से प्रलोभित कर नाना कोचिंग सेंटरों का आश्रय ले हजारों लाखों का धन और श्रम व्यय कर या नकली डिग्रियां उपलब्ध कर निराश्रित होते हैं। ये न केवल माता पिता की आंखों में धूल झोंकते हैं , अपने छल छद्म और भुलावे के हथकंडों से न केवल समाज को भ्रमित करते हैं ,अपितु स्वयं भी हीनता के गर्त से अभिभूत मानसिक संतुलन खो आनंद की खोज में नशीली ड्रग , शराब से तनाव रहित होने की चेष्टा में स्वयं के कर्मक्षूत्र से विरत मृगतृष्णा के भंवर से टकराते हैं। ऐसी दशा में अभिभावकों की आशाओं पर तुषारापात होता ही है , बल्कि शिक्षित युवा पीढी की असीम अर्थ लिप्सा औ इसके लिए दुष्चेष्टा निराश्रित मां बाप से भी कर्तब्य विमुख करती है।
वस्तुत: आज की शिक्षित युवा समाज की इस महामारी प्रकोप का उत्तरदायित्व दूषित संस्कार , शिक्षा और समाज पर है। बढते ऐश्वर्य साधन की उपज , व्यपारीकरण के कोरे ज्ञान दंभ का पक्षधर युवा महत्वाकांक्षाओं की उडान में मॉडलिंग , सौंदर्य प्रतियोगिताएं , चटपटे नग्न फैशन , नशाखोरी या टी वी के उत्तेजक दृश्यों से सर्वत: प्रलोभित सफलता के भ्रम से पचपका है। उचित शिक्षा नियंत्रण में दिशा दर्शन के लिए एक ओर जहां संयम और अनुशासनहीनता वश लाड प्यार लुटाने अभिभावक अपराधी हैं , तो दूसरी ओर कतिपय मनचले लोलुप शिक्षक और समाज। शिक्षा के मूलभूत आंतरिक स्वच्छता और निष्ठा के अभाव में युवाओं का पतन निहित है। आरंभिक शिक्षा के मूल से ही चरित्र और नैतिकता की पृष्ठभूमि पर बाह्य की अपेक्षा अंतस का पुनर्स्थापन संभव है। सागर की गहराई में मोती की उपलब्धि है। श्रेयस्कर वरीयता के लिए शिक्षा के बाह्य और अंत का संतुलन बेहद आवश्यक है। चहुं ओर प्रकाश फेकने वाले दीप को ही हम सुंदर कह सकते हैं।
लेखिका ... डा श्रीमती रमा मेहरोत्रा
आधुनिकतम शिक्षा जितनी महंगी और आडंबरपूर्ण है , उतनी ही कंटकों से भरपूर भी है। पहले तो अभिभावक पब्लिक स्कूलों में 'डोनेशन' से लेकर उच्च फीसें देकर अपनी संतति के लिए शीश महल बनाने के सपने देखते हैं , उसके बाद युवक इंजीनियरिंग , डाक्टरी या प्रशासनिक सेवाओं के लिए घर बार छोडकर अभिभावकों को गंधर्व नगर की योजनाओं से प्रलोभित कर नाना कोचिंग सेंटरों का आश्रय ले हजारों लाखों का धन और श्रम व्यय कर या नकली डिग्रियां उपलब्ध कर निराश्रित होते हैं। ये न केवल माता पिता की आंखों में धूल झोंकते हैं , अपने छल छद्म और भुलावे के हथकंडों से न केवल समाज को भ्रमित करते हैं ,अपितु स्वयं भी हीनता के गर्त से अभिभूत मानसिक संतुलन खो आनंद की खोज में नशीली ड्रग , शराब से तनाव रहित होने की चेष्टा में स्वयं के कर्मक्षूत्र से विरत मृगतृष्णा के भंवर से टकराते हैं। ऐसी दशा में अभिभावकों की आशाओं पर तुषारापात होता ही है , बल्कि शिक्षित युवा पीढी की असीम अर्थ लिप्सा औ इसके लिए दुष्चेष्टा निराश्रित मां बाप से भी कर्तब्य विमुख करती है।
वस्तुत: आज की शिक्षित युवा समाज की इस महामारी प्रकोप का उत्तरदायित्व दूषित संस्कार , शिक्षा और समाज पर है। बढते ऐश्वर्य साधन की उपज , व्यपारीकरण के कोरे ज्ञान दंभ का पक्षधर युवा महत्वाकांक्षाओं की उडान में मॉडलिंग , सौंदर्य प्रतियोगिताएं , चटपटे नग्न फैशन , नशाखोरी या टी वी के उत्तेजक दृश्यों से सर्वत: प्रलोभित सफलता के भ्रम से पचपका है। उचित शिक्षा नियंत्रण में दिशा दर्शन के लिए एक ओर जहां संयम और अनुशासनहीनता वश लाड प्यार लुटाने अभिभावक अपराधी हैं , तो दूसरी ओर कतिपय मनचले लोलुप शिक्षक और समाज। शिक्षा के मूलभूत आंतरिक स्वच्छता और निष्ठा के अभाव में युवाओं का पतन निहित है। आरंभिक शिक्षा के मूल से ही चरित्र और नैतिकता की पृष्ठभूमि पर बाह्य की अपेक्षा अंतस का पुनर्स्थापन संभव है। सागर की गहराई में मोती की उपलब्धि है। श्रेयस्कर वरीयता के लिए शिक्षा के बाह्य और अंत का संतुलन बेहद आवश्यक है। चहुं ओर प्रकाश फेकने वाले दीप को ही हम सुंदर कह सकते हैं।
लेखिका ... डा श्रीमती रमा मेहरोत्रा
सोमवार, 11 जनवरी 2010
हमें समाज में पलती हिंसक अराजकता और उच्छृंखलता को समाप्त करने की आवश्यकता है !!
आज महानगर का लंबा राजपथ हो या गावं देहात की पतली पगडंडियां , सभी अपने अपने विकास के लिए व्याकुल एक दूसरे को धकियाते लोग आगे बढे जा रहे हैं । एक प्रश्न बार बार मन को कुरेदता है , कितनी जद्दोजहद के बाद मिली देश की स्वतंत्रता के कितने साल व्यतीत हो गए। हम भले ही 'दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल' अलापते रहें , मगर आजादी की बलीवेदी पर शहीद हुए , प्राणो की आहुति देनेवाले भगतसिंह , आजाद , बिस्मिल , अशफाक , सुभाषचंद्र बोस और सैकडों अनाम , अज्ञातों को क्या भुलाया जा सकता है ?
देश आजादी के साथ टुकडो में बंट गया, क्या हुआ ऐसा कि आजादी मिले दो दशक भी नहीं हुए कि हम देश , समाज , स्वाधीनता .. सभी को भूल अपनी स्वार्थ पूर्ति में लग गए। स्वास्थ्य विभाग , रक्षा विभाग , शिक्षा विभाग .. सब के सब से एक विचित्र धुंआ गहराने लगा। धुंआ कहां से और क्यूं उठ रहा है , इसपर ध्यान न देते हुए आंखे मलते हम एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहे, देशभक्ति का विचार भी कपोलकल्पित लगने लगा और धीरे धीरे स्वतंत्रता स्वच्छदता में बदल गयी। स्वतंत्रता में मर्यादा होती है , एक सीमा भी , इसका मतलब रूढियां नहीं हैं , रूढियां तो समयानुसार टूटती है , इससे विकास का मार्ग प्रशस्त होता है।
दूरदर्शन के कारण भी हम सब विक्षिप्त होते जा रहे हैं, अवैध संबंधों पर आधारित अनेक सीरियल की नग्नता के आगे शालीनता ने घुटने टेक दिए हैं। विश्वसुंदरी का खिताब देकर हमारे देश की सुंदरता को किस गर्त में ढकेला जा रहा है ? हमारे देश में सौंदर्य की उपासना तो प्राचीनकाल से होती रही है। सौंदर्य चाहे प्रकृति का हो या स्त्री पुरूष का उसका बाजार भाव लगाना क्या उचित है ? इसी उच्छृंखलता ने भी अराजकता से गठबंधन कर लिया है। बडी आयु के लोग भी इसमें सम्मिलित हो चुके है और नैतिक धरातल शून्य हो गया है।सादगी औ सज्जनता तो गंवारों की रेणी में आ गयी है। प्रांतवाद , भाषावाद के नाम पर अखाडे तैयार हैं। सम्मिलित परिवारों की टूटन, बडों की लापरवाही, विदेश का सम्मोहन और भोगवाद की ललक .. यह कहां जाकर रूकेगी ? क्यूकि स्वच्छंदता और उच्छृंखलता की कोई सीमा नहीं।
अपने घर आंगन के प्रति हमें जागरूक होना होगा। चाहे भोजन हो या फिर मनोरंजन .. अगली पीढी को दिशा देने के लिए बडों को संयमित होना होगा। पहले अति निर्धन या अति संपन्न लोगों में खाने पीने की अराजकता रहती थी , मध्यम वर्ग संतुलित और संसकारित रहता था। यह वर्ग समाज के ढांचे में मेरूदंड की तरह काम करता था। , अब बेमेल संस्कृति ने इसमें भी लचीलापन ला दिया है। बनावटी रंग ढंग और ग्लैमर ने सबकी आंखे चुंधिया दी है। इस आपाधापी में उच्छृंखलता और स्वच्छंदता का सागर इतना गहराया है कि भौतिक सुख सुविधाएं तो ऊपर उतराने लगी है , मगर नैतिकता , शालीनता , यहां तक कि स्वाभिमान की भावना भी उसमें डूब गयी है।हमें जागयकता लाने की आवश्यकता है , ताकि समाज में पलती यह हिंसक अराजकता और उच्छृंखलता समाप्त हो !!
(लेखिका ... श्रीमती माधवी कपूर)
देश आजादी के साथ टुकडो में बंट गया, क्या हुआ ऐसा कि आजादी मिले दो दशक भी नहीं हुए कि हम देश , समाज , स्वाधीनता .. सभी को भूल अपनी स्वार्थ पूर्ति में लग गए। स्वास्थ्य विभाग , रक्षा विभाग , शिक्षा विभाग .. सब के सब से एक विचित्र धुंआ गहराने लगा। धुंआ कहां से और क्यूं उठ रहा है , इसपर ध्यान न देते हुए आंखे मलते हम एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहे, देशभक्ति का विचार भी कपोलकल्पित लगने लगा और धीरे धीरे स्वतंत्रता स्वच्छदता में बदल गयी। स्वतंत्रता में मर्यादा होती है , एक सीमा भी , इसका मतलब रूढियां नहीं हैं , रूढियां तो समयानुसार टूटती है , इससे विकास का मार्ग प्रशस्त होता है।
दूरदर्शन के कारण भी हम सब विक्षिप्त होते जा रहे हैं, अवैध संबंधों पर आधारित अनेक सीरियल की नग्नता के आगे शालीनता ने घुटने टेक दिए हैं। विश्वसुंदरी का खिताब देकर हमारे देश की सुंदरता को किस गर्त में ढकेला जा रहा है ? हमारे देश में सौंदर्य की उपासना तो प्राचीनकाल से होती रही है। सौंदर्य चाहे प्रकृति का हो या स्त्री पुरूष का उसका बाजार भाव लगाना क्या उचित है ? इसी उच्छृंखलता ने भी अराजकता से गठबंधन कर लिया है। बडी आयु के लोग भी इसमें सम्मिलित हो चुके है और नैतिक धरातल शून्य हो गया है।सादगी औ सज्जनता तो गंवारों की रेणी में आ गयी है। प्रांतवाद , भाषावाद के नाम पर अखाडे तैयार हैं। सम्मिलित परिवारों की टूटन, बडों की लापरवाही, विदेश का सम्मोहन और भोगवाद की ललक .. यह कहां जाकर रूकेगी ? क्यूकि स्वच्छंदता और उच्छृंखलता की कोई सीमा नहीं।
अपने घर आंगन के प्रति हमें जागरूक होना होगा। चाहे भोजन हो या फिर मनोरंजन .. अगली पीढी को दिशा देने के लिए बडों को संयमित होना होगा। पहले अति निर्धन या अति संपन्न लोगों में खाने पीने की अराजकता रहती थी , मध्यम वर्ग संतुलित और संसकारित रहता था। यह वर्ग समाज के ढांचे में मेरूदंड की तरह काम करता था। , अब बेमेल संस्कृति ने इसमें भी लचीलापन ला दिया है। बनावटी रंग ढंग और ग्लैमर ने सबकी आंखे चुंधिया दी है। इस आपाधापी में उच्छृंखलता और स्वच्छंदता का सागर इतना गहराया है कि भौतिक सुख सुविधाएं तो ऊपर उतराने लगी है , मगर नैतिकता , शालीनता , यहां तक कि स्वाभिमान की भावना भी उसमें डूब गयी है।हमें जागयकता लाने की आवश्यकता है , ताकि समाज में पलती यह हिंसक अराजकता और उच्छृंखलता समाप्त हो !!
(लेखिका ... श्रीमती माधवी कपूर)
सोमवार, 4 जनवरी 2010
गांधीवाद का दीपक सत्य का , तेल तप का , बाती करूणा तथा दया की और लौ क्षमा की है !!
गांधीवाद ऐसा रक्षा कवच है , जो हमें कलुषमुक्त रख सकता है। गांधीवाद वह संविधान है , जो हमारे विचार और व्यवहार को नियंत्रित करते हुए हमें सत्पथा में प्रवृत्त कराता है। राष्ट्रीय एकता ईंट , पत्थर और सिमेंट से जोडकर नहीं तैयार की जा सकती है। यह तो इंसान के दिल और दिमाग मे खामोशी से जन्म लेकर पल्लवित और पुष्पित करायी जा सकती है। यह वह प्रक्रिया है , जो धीमी , किन्तु स्थायी और दृढ होती है। इसी एकता को बनाने के लिए राष्ट्रपिता आदर्श हैं , जो सबकुछ त्यागकर उपेक्षित भारतवासियों में आत्म विश्वास , आत्म गरिमा एवं गतिशीलता का उन्मेष कर उन्हें राष्ट्र के सबल और सक्रिय स्वतंत्राता संग्राम के सेनानी के रूप में खडा कर दिया। यह उनका सपना , समता , ममता , स्वधर्म के अनुशासन व अनुशासन के परिणाम स्वरूप राष्ट्र अक्षय वैभव प्राप्त करेगा। आपसी विग्रह प्रतिरोध से नहीं , उदारता से समाप्त होंगे , ऐसा मानना था बापू का। पर आज के राजनायकों ने क्या खिल्ली उडायी है उनके आदर्शों ?
मनुष्यता की पहचान है बापू , मानवता के प्राणवान प्रतीक हैं बापू , पुरूषों में संत और संतों में सर्वश्रेष्ठ भक्त हैं बापू , पर बापू के रामराज्य का नारा आज प्रनचिन्ह बना है। मानस में अंकित ...
दैहिक दैविक भौतिक तापा , रामराज्य नहिं कहहि व्यापा ।
इसी काब्य के पठन और मनन के बाद ही बापू ने रामराज्य का नारा दिया होगा। बापू के व्यवहार में जादू था , तभी तो सभी उसपर प्राण न्यौच्छावर करने को तैयार रहते थे। उनके साथ जुडे लोगों को आज के राजनायकों की तरह धन , पद या पेट्रोल की पर्ची या अन्य प्रलोभन नहीं दिए जाते थे।
बापू प्रगतिशील , क्रांतिकारी , समाज सुधारक , युग सृष्टा , युगदृष्टा ने अनुभव के सागर में गोता लगाकर हमारे नवयुवकों को एक शब्द दिया 'स्वावलंबन' । स्वाधीनता का जो प्रकाशदीप दर्शाया , उसका दीपक सत्य का , तेल तप का , बाती करूणा तथा दया की और लौ क्षमा की है। क्षमता की लौ से निकला प्रकाश ही मानवता का प्रतीक है। संदेश है गमता और समता का। उनके द्वारा प्रतिष्ठापित प्रतिष्ठित जीवन मूल्यों को अपने जीवन में उतारने हेतु मानवीय मूल्यों व मर्यादा से इसी धर्ममय विवेकमय , शीलरूप ,निष्पक्ष , निरपेक्ष बनते हुए मानवता की मंगलमयी सुगंध को अपने जीवन में विकसित , पललवित , पोषित करते रहना हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
(लेखिका .. डॉ रजनी सरीन)
मनुष्यता की पहचान है बापू , मानवता के प्राणवान प्रतीक हैं बापू , पुरूषों में संत और संतों में सर्वश्रेष्ठ भक्त हैं बापू , पर बापू के रामराज्य का नारा आज प्रनचिन्ह बना है। मानस में अंकित ...
दैहिक दैविक भौतिक तापा , रामराज्य नहिं कहहि व्यापा ।
इसी काब्य के पठन और मनन के बाद ही बापू ने रामराज्य का नारा दिया होगा। बापू के व्यवहार में जादू था , तभी तो सभी उसपर प्राण न्यौच्छावर करने को तैयार रहते थे। उनके साथ जुडे लोगों को आज के राजनायकों की तरह धन , पद या पेट्रोल की पर्ची या अन्य प्रलोभन नहीं दिए जाते थे।
बापू प्रगतिशील , क्रांतिकारी , समाज सुधारक , युग सृष्टा , युगदृष्टा ने अनुभव के सागर में गोता लगाकर हमारे नवयुवकों को एक शब्द दिया 'स्वावलंबन' । स्वाधीनता का जो प्रकाशदीप दर्शाया , उसका दीपक सत्य का , तेल तप का , बाती करूणा तथा दया की और लौ क्षमा की है। क्षमता की लौ से निकला प्रकाश ही मानवता का प्रतीक है। संदेश है गमता और समता का। उनके द्वारा प्रतिष्ठापित प्रतिष्ठित जीवन मूल्यों को अपने जीवन में उतारने हेतु मानवीय मूल्यों व मर्यादा से इसी धर्ममय विवेकमय , शीलरूप ,निष्पक्ष , निरपेक्ष बनते हुए मानवता की मंगलमयी सुगंध को अपने जीवन में विकसित , पललवित , पोषित करते रहना हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
(लेखिका .. डॉ रजनी सरीन)
शनिवार, 2 जनवरी 2010
भारत में भारत की ही संस्कृति .. हो गयी है बेमानी
पहले पिताजी डैडी बन गए , फिर हो गए डैड,
जीते जी मृतक बनाकर , पुत्र हो रहा ग्लैड।
माताजी का हाल हुआ, और दो कदम आगे,
जीते जी ममी बन गयी, अब क्या होगा आगे।
कभी हाय करके चिल्लाता , पीडा से इंसान,
आज मिलने पे हाय करना सभ्यता का निशान।
हाथ जोडकर अभिवादन करना , पिछडेपन की निशानी,
भारत में भारत की ही संस्कृति , हो गयी है बेमानी।
हिन्दी भाषा फिल्मों से , जो जनता में शोहरत पाते,
साक्षात्कार के समय वो गिटपिट करते नहीं अघाते।
कहते हैं यू एन ओ मे , हिन्दी को दिलाएंगे सममान,
भले हिन्द में ही हिन्दी का होता रहा अपमान।
प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस मनाकर ही संतुष्ट हो जाते,
क्यूं नहीं , अंग्रेजी का , बहिष्कार दिवस मनाते।
अंग्रेजी बहिष्कार दिवस , फिर सप्ताह मास मनाएं,
अंग्रेजी को बहू और हिन्दी को सास बनाएं।
कहे 'चिंतक' यह अभियान , जबतक नहीं चलेगा,
मातृभाषा को राजभाषा का दर्जा नहीं मिलेगा।।
(लेखक .. खत्री महेश नारायन टंडन 'चिंतक')
जीते जी मृतक बनाकर , पुत्र हो रहा ग्लैड।
माताजी का हाल हुआ, और दो कदम आगे,
जीते जी ममी बन गयी, अब क्या होगा आगे।
कभी हाय करके चिल्लाता , पीडा से इंसान,
आज मिलने पे हाय करना सभ्यता का निशान।
हाथ जोडकर अभिवादन करना , पिछडेपन की निशानी,
भारत में भारत की ही संस्कृति , हो गयी है बेमानी।
हिन्दी भाषा फिल्मों से , जो जनता में शोहरत पाते,
साक्षात्कार के समय वो गिटपिट करते नहीं अघाते।
कहते हैं यू एन ओ मे , हिन्दी को दिलाएंगे सममान,
भले हिन्द में ही हिन्दी का होता रहा अपमान।
प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस मनाकर ही संतुष्ट हो जाते,
क्यूं नहीं , अंग्रेजी का , बहिष्कार दिवस मनाते।
अंग्रेजी बहिष्कार दिवस , फिर सप्ताह मास मनाएं,
अंग्रेजी को बहू और हिन्दी को सास बनाएं।
कहे 'चिंतक' यह अभियान , जबतक नहीं चलेगा,
मातृभाषा को राजभाषा का दर्जा नहीं मिलेगा।।
(लेखक .. खत्री महेश नारायन टंडन 'चिंतक')
शनिवार, 26 दिसंबर 2009
नवदम्पत्ति स्वागतार्थ आयोजित प्रीति भोज में एक गिफ्ट काउंटर शालीन है या हास्यास्पद ??
मैं वैवाहिक आमंत्रण पर वर यात्रा में एक संबंधी के यहां गया। परिवार के दो लोग हाथ में बकायदा बैग , कलम और कॉपी लिए सचल डिपॉजिट काउंटर बने हुए थे। एक नवदम्पत्ति स्वागतार्थ आयोजित प्रीति भोज में , जहां बुफे सिस्टम से खाने पीने के काउंटर बने थे , वहीं एक गिफ्ट काउंटर भी बना था , जहां लिफाफे और पैकेट स्वीकार करने के लिए एक सज्जन बैठे थे। यह कितना शालीन था या हास्यास्पद यह सोंचिए। पर मुझे बहुत दिनों से चुभनेवाले विषय पर कुछ लिखने को मिल गया।
अभी नवम्बर माह में ही मुझे विवाह के 38 कार्ड मिल चुके हैं। अभी आगे और आएंगे। पूरे साल की गणना करूं , तो दो सौ से कम आमंत्रण न होंगे। जितनी बडी समस्या सभी जगह जाने की नहीं होती , उतनी बडी समस्या व्यवहार देने की होती है। आज परिचय संपर्क , सामाजिक दायरे व रिश्तेदारियों के कारण आमंत्रणों का विस्तार होता जा रहा है। अधिकांश लोगों के सामने समस्या अपना सम्मान बचाने की हो जाती है। महंगाई का जमाना , सीमित आय , जिसमें सिर्फ परिवार चला सकें , जिनका कोई व्यापार नहीं या रिटायर्ड हों , तो कैसे निबटे इस समस्या से। लेन देन भी इतना बढ गया है कि लिफाफे में कम कैसे रखा जाए। याादी के अलवे भी मुंडन , जनेऊ जैसे अवयर होते हैं। शादी की सालगिरह का फैशन हो गया है। बच्चे के जन्मदिन का व्यवसायीकरण हो गया है। जहां से जितना आया है , वहां उतना ही देना है तो इसे याद कैसे रखें ?
यह समस्या आज बहुतों को उद्वेलित कर रही है। इसका निदान चाहिए। लोगों को स्वयं ये बढावा दिखावा समाप्त करना चाहिए। लेन देन पर कुछ अंकुश हो यानि लेन देन बिल्कुल रिश्तेदारी तक ही सीमित हो और रकम भी मर्यादा में हो। खत्री भाई सामाजिक सामाजिक सुधार लाने के लिए इसकी पहल करें , स्थानीय सभाएं ऐसे स्वस्थ प्रस्ताव पारित करें , इसके लिए विनम्र आंदोलन करें , जिससे आमंत्रण पानेवाले की कठिनाई और सोंच दूर होगी। निमंत्रण देने वालों की भी शोभा बढेगी ख् क्यूंकि लेन देन की कठिनाई के कारण बहुत से लोग इन विवाह समारोहों में जाना टाल देते हैं। धीरे धीरे अन्य लोगों में भी इसका प्रचार प्रसार किया जाए और समाज के लोगों को एक बडी समस्या से मुक्ति मिले।
लेखक ... खत्री संत कुमार टंडन 'रसिक' जी
अभी नवम्बर माह में ही मुझे विवाह के 38 कार्ड मिल चुके हैं। अभी आगे और आएंगे। पूरे साल की गणना करूं , तो दो सौ से कम आमंत्रण न होंगे। जितनी बडी समस्या सभी जगह जाने की नहीं होती , उतनी बडी समस्या व्यवहार देने की होती है। आज परिचय संपर्क , सामाजिक दायरे व रिश्तेदारियों के कारण आमंत्रणों का विस्तार होता जा रहा है। अधिकांश लोगों के सामने समस्या अपना सम्मान बचाने की हो जाती है। महंगाई का जमाना , सीमित आय , जिसमें सिर्फ परिवार चला सकें , जिनका कोई व्यापार नहीं या रिटायर्ड हों , तो कैसे निबटे इस समस्या से। लेन देन भी इतना बढ गया है कि लिफाफे में कम कैसे रखा जाए। याादी के अलवे भी मुंडन , जनेऊ जैसे अवयर होते हैं। शादी की सालगिरह का फैशन हो गया है। बच्चे के जन्मदिन का व्यवसायीकरण हो गया है। जहां से जितना आया है , वहां उतना ही देना है तो इसे याद कैसे रखें ?
यह समस्या आज बहुतों को उद्वेलित कर रही है। इसका निदान चाहिए। लोगों को स्वयं ये बढावा दिखावा समाप्त करना चाहिए। लेन देन पर कुछ अंकुश हो यानि लेन देन बिल्कुल रिश्तेदारी तक ही सीमित हो और रकम भी मर्यादा में हो। खत्री भाई सामाजिक सामाजिक सुधार लाने के लिए इसकी पहल करें , स्थानीय सभाएं ऐसे स्वस्थ प्रस्ताव पारित करें , इसके लिए विनम्र आंदोलन करें , जिससे आमंत्रण पानेवाले की कठिनाई और सोंच दूर होगी। निमंत्रण देने वालों की भी शोभा बढेगी ख् क्यूंकि लेन देन की कठिनाई के कारण बहुत से लोग इन विवाह समारोहों में जाना टाल देते हैं। धीरे धीरे अन्य लोगों में भी इसका प्रचार प्रसार किया जाए और समाज के लोगों को एक बडी समस्या से मुक्ति मिले।
लेखक ... खत्री संत कुमार टंडन 'रसिक' जी
शनिवार, 19 दिसंबर 2009
परिवार और समाज के निर्माण में महिलाओं की भूमिका
भौतिकतावादी मूल्यों और उपभोक्तावादी रूझान ने समाज की सद्प्रवृत्तियों को काफी चोट पहुंचायी है। आज परिवार में पहले जैसा सशक्त ताना बाना नहीं रहा , पारिवारिक रिश्तों का जबरदस्त विघटन हो रहा है। बडों के पास बच्चें का दिशा दिखाने की फुर्सत नहीं है। हर किसी का ध्येय पैसा कमाना है , उसके लिए उल्टे सीधे रास्ते पर भी चलने में किसी को हिचक नहीं होती। आश्चर्य है कि लोगों ने शराब तक को सामाजिक स्तर का बडा प्रतीक मान लिया है। ऐसे लोग अपने बच्चे तक को शराब चखाते देखे जाते हैं। घर के बडों के साथ ही जब यह खोट जुड जाए कि खुद उनमें आत्मगौरव के भावना के विकास की क्षमता नहीं रह गयी है , तो बच्चों का क्या होगा ?
आज बडे घरों के लउके लडकियां अपराधों में लिप्त पाए जाते हैं । इसकी वजह भी यही है कि कानून में वह शक्ति नहीं कि जो अपराध करेगा , किसी सूरत में बच नहीं पाएगा। देखने में आया है कि आज कानून का इस्तेमाल नहीं हो रहा है और व्यवस्था लचर हो गयी है। लोग मान चुके हैं कि पैसा दे देने पर बडे बडे अपराध से भी मुक्ति मिल सकती है। अच्छे वकील झूठे मूठे साक्ष्य से भी बडो के बिगडैल औलादों को बचा देता है। यदि कोई अपराधी किसी तरह जेल में डाल भी दिए जाएं तो अपराध करने के लिए और निश्चिंत हो जाते हैं
आज लोगों के दृष्टिकोण में विकृतियां आ गयी हैं। लोगों का नजरिया निम्न दर्जे का होता जा रहा है। इसी वजह से महिला को 'वस्तु' माना जाने लगा है। वे लोग मान चुके हैं कि महिलाओं के साथ कुछ भी व्यवहार किया जाए , कुछ नहीं होगा। आज के अवयस्क बच्चे बच्चियां शारिरीक रिश्ते बनाने में भी पीछे नहीं हटते। उन्हें लगता है कि जैसे और चीजें हैं , वैसा सेक्स भी है। उन्हें छात्र जीवन में अच्छी पढाई , आचार व्यवहार की तरु ध्यान देने में कोई दिलचस्पी नहीं होती। पहले लोगों के विद्यार्थी जीवन में सादगी और संजीदगी होती थी , वे अच्छे इंसान और चरित्रवान होने में फख्र महसूस करते थे। पर आज व्यवहार पद्धति ही बदल गयी है। मीडिया के जरिए भी सेक्स और हिंसा को बढावा दिया जा रहा है।
ऐसी हालत में महिलाओं को अपनी भूमिका को पहचानना होगा कि परिवार और समाज के निर्माण में अच्छा वातावरण कैसे बन सकता है। यह फैशन सा बन गया है कि महिलाओं के विकास की बात करते हुए हम उनके लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की बातें करते हैं। हमें इसपर ध्यान देने की कतई फुर्सत नहीं कि शिक्षा की विषयवस्तु क्या हो ? जिंदगी कैसे जी जानी चाहिए , अच्छा इंसान कैसे बना जाए , इस दिशा में चिंतन करनेवालों की संख्या घटती जा रही है। आज हमें यह बतानेवाला कोई नहीं कि अपना कर्तब्य निभाते हुए जीना सबसे बडा धर्म है। हम बखूबी समझ लें कि धर्म निरपेक्ष होना हमारा कर्तब्य नहीं , क्यूंकि सार्वभौमिक मूल्य सभी धर्मों में समान हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था में धार्मिक शिक्षा को समाहित किया जाना चाहिए। टी वी पर भी इस तरह की शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में असल जीवन को प्रतिबिम्बित करना पडेगा , तभी चरित्र निर्माण की कोशिशों को गति मिल सकेगी। यह सूकून की बात है कि महिलाएं हर क्षेत्र में निश्चय भरा कदम बढा रही हैं। उनके कार्य की गुणवत्ता उच्च स्तर की है। हम महिलाओं को मिलकर सोंचना होगा कि सारे विकास कार्यों और मूल्यों के बढने के बावजूद अपराध क्यू बढ रहे हैं ? एक महिला के प्रति समाज की सम्मानपूर्ण दृष्टि ही समाज के मूल्यों का हिफाजत कर सकती है।
(डॉ प्रोमिला कपूर , सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री के सौजन्य से )
सोमवार, 14 दिसंबर 2009
हिन्दुओं पर सांप्रदायिकता का आरोप क्या सही है ??
कोई भी धर्म देश और काल के अनुरूप एक आचरण पद्धति होता है। हर धर्म के पांच मूल सिद्धांत होते हैं, सत्य का पालन ,जीवों पर दया , भलाई , इंद्रीय संयम , और मानवीय उत्थान की उत्कंठा। लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि पूजा , नमाज , हवन या सत्संग कर लेने से उनका उत्थान नहीं होनेवाला। धर्म निरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों और ईसाईयों के मुद्दे पर देश में अनावश्यक हंगामा खडा किया जाना और राम मंदिर तथा बाबरी मस्जिद जैसे सडे प्रसंगों को तूल देना हमारा धर्म नहीं है।
आज इस राजनीतिक वातावरण के परिप्रेक्ष्य में 'हिन्दू' शब्द की जितनी परिभाषा राजनेताओं की ओर से दी जा रही हैं , उतनी परिमार्जित परिभाषा तो विभिन्न धर्म सुधारकों , विद्वानों , तथा चिंतकों ने कभी नहीं की होगी। ये सत्ता लोलुप राजनेता उस व्यक्ति विशेष , संस्था या राजनीतिक दल को तुरंत साम्प्रदायिकता का जामा पहनाने से नहीं चूकते , जो हिंदुत्व की बात करता है। यह उनकी सत्ता प्राप्ति की दौड जीतने का एक बेवकूफी भरा प्रयास ही है। ये शब्द उन करोडों लोगों को आहत करते हैं , जो अपने देश या अपनी संस्कृति से प्यार करते हैं और यदि वे सत्ता के शीर्ष पर हैं तो वह चंद लोगों की चाह नहीं , करोडों लोगों के सहयोग से हैं। नेता पहले स्वयं आत्म मंथन करें और अपनी योग्यता का आकलन करें और वही सांप्रदायिकता का पहला पत्थर फेकें , जिसने कभी भी किसी रूप में किसी विशेष संप्रदाय का समर्थन न किया हो।
हमारे देश की संस्कृति अपने आप में ही विलक्षण है , इसकी जो आत्मसात करने की प्रवृत्ति है , वो अन्यत्र दुर्लभ है। नैतिकता के हमारे नियम उदार हैं , सत्कार और परोपकार इसमें जोरदार रूप से भरा है। इतिहास भी मूक स्वर में इसका साक्षी है कि हिन्दूओं ने आजतक किसी दूसरे मुल्क में तरवार लेकर कदम नहीं रखा , यदि रखा भी है तो 'अहिंसा परमोधर्म:' का सूत्र वाक्य लेकर। हिन्दूओं ने किसी के समक्ष मृत्यु वरण या धर्म परिवर्तन का भी विकल्प नहीं रखा है। हिंदुस्तान में रहनेवाले कुछ लोगों ने भले ही विदेशी शासन काल में या अन्यान्य कारण से धर्म परिवर्तन भी कर लिया हो , पर वे अभी भी हिन्दुत्व की भावना से ओत प्रोत हैं।
पर आज हिन्दू अपने वास्तविक धर्म को भूल गए हैं , पापार्जित धन के दुष्परिणामों से बचने के लिए उसके अंशदान से वे मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे और चर्च तो बनवाते हैं , पर सामुदायिक हॉल , तालाब , कुएं और धर्मशालाएं न तो बनाते हैं और न ही उसके प्रबंधन पर ध्यान देते हैं। वे इच्छा होने पर पूजा करते है , हर जुम्मे बिना नागा के नमाज पढते है , ईसा को ध्याते है , गुरूद्वारे में माथा टेकते है , अपने धर्मस्थलों को आर्थिक अंशदान देते हैं, पर एक पंथ के हिन्दू दूसरे पंथ के हिन्दू को हीन समझते है। हिन्दू धर्म में इतने धर्म , बाबा , बैरागी , साधु, संत , मार्ग बना दिए गए हैं कि हिन्दू टुकडों टुकडों में बंट गया है, अब जरूरत है हमें एक होने की। जिस तरह आजादी प्राप्त करने के लिए हम सब मिलकर एक हो गए थे, आज की समस्याओं से निजात पाने के लिए भी हमें एक होने की आवश्यकता है।
रविवार, 13 दिसंबर 2009
हमारा जीवन वही होगा .. जो हम इसे बनाना चाहें !!
वास्तव में जीवन मिलता नहीं , जीया जाता है। जीवन स्वयं के द्वारा स्वयं का सतत् सृजन है , यह नियति नहीं , निर्माण है ।
हमारा जीवन एक पवित्र यज्ञ बन सकता है , लेकिन उन्हीं के लिए जो सत्य के लिए स्वयं की आहुति देने को तैयार रहते हैं।
हमारा जीवन एक अमूल्य अवसर बन सकता है , लेकिन उन्हीं के लिए जो साहस संकल्प और श्रम करते हैं।
हमारा जीवन एक वरदान बन सकता है , लेकिन केवल उन्हीं के लिए जो इसकी चुनौती को स्वीकारते हैं और उनका सामना करते हैं।
हमारा जीवन एक महान संघर्ष बन सकत है , लेकिन उन्हीं के लिए जो स्वयं की शक्ति को इकट्ठा कर विजय के लिए जूझते हैं।
हमारा जीवन एक भव्य जागरण बन सकता है , लेकिन उन्हीं के लिए जो निद्रा और मूर्छा से लड सकें।
हमारा जीवन एक दिब्य गीत बन सकता है , लेकिन उन्हीं के लिए जिन्होने स्वयं को मधुर वाद्य यंत्र बना लिया है।
अन्यथा जीवन एक लंबी और धीमी मृत्यु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं , जीवन वही हो जाता है , जो हम जीवन को बनाना चाहते हैं।
(खत्री हितैषी के सौजन्य से)
बुधवार, 2 दिसंबर 2009
हम खुद मिल जुलकर शहर की 30 से 40 प्रतिशत गंदगी फौरन दूर कर सकते है !!
भारत के हर शहर की गंदगी का क्या हाल दिखता है , नालियां भरी हुई होने से गंदा बजबजाता बदबूदार पानी सडकों पर फैलता रहता है। आजादी को मिले इतने वर्ष हो गए , लेकिन 500 साल की गुलामी ने हमारी सोंच को इतना खराब कर दिया है कि इस गंदगी पर हमें कुछ भी ऐतराज नहीं होता है । सब काम हम सरकार पर ही छोड देते हैं , अपने ऊपर हमें जरा भी भरोसा नहीं है और न ही हम कोई विकल्प ढंढते हैं। यदि हम सभी अपनी सोंच , अपनी खराब आदत को बदलना चाहें तो हम सबके सहयोग से शहर की 30 से 40 प्रतिशत गंदगी फौरन दूर हो सकती है।
अधिक विवाद में न पडकर घर से निकलने वाले तीन तरह के कूडे को ध्यान में रखते हुए हमलोग अलग अलग रंग के तीन तरह के कूडेदान का प्रयोग करें , तो कितनी समस्याएं समाप्त हो सकती है। एक कूडेदान में प्लास्टिक , लोहा , पीत्तल , अल्युमिनियम , तांबा , कांच , लकडी , चमडा , कागज आदि दुबारा गलाकर काम में लाने लायक वस्तुओं को रखा जाए। इस कूडेदान की वस्तुएं सडनेवाली नहीं , इसलिए इसे आप कुछ दिनों तक रख सकते हैं और समय आने पर कबाडी को बेचें , तो दो पैसे आपको , चार पैसे कबाडी को भी मिलेंगे, देश को दुबारा कम लागत पर वस्तुएं वापस मिल जाएंगी और जमीन बंजर होने से भी बचेगा , इसके साथ शहर के कूडे का बहुत हिस्सा कम हो जाएगा। इस तरीके से कूडे को रखने पर एक छोटा शहर हर दो महीनें में एक मालगाडी के भार के बराबर लोहा और एक हवाई जहाज के बराबर अल्युमिनियम और बडी तादाद में पीतल तांबा आदि धातुएं देश को वापस दे सकते हैं।
दूसरे कूडेदान में आप सब्जी , फलों के छिल्के , पेड पौधों की सूखी पत्तियां और कुछ ऐसी चीजे डाल सकती हैं , जिसे गायों को खिलाया जा सके या फिर ऐसी व्यवस्था न हो तो उसे सडाकर अच्छी खाद बनाया जा सके। इस तरह यह कूडा आपके लिए बहुत उपयोगी हो सकता है। विज्ञान का प्रचार प्रसार करने में समर्थ लोगों से मेरा अनुरोध है कि इस कूडे को खाद बनाने की वैज्ञानिक विधि इसी पोस्ट पर टिप्पणी के रूप में लोगों को बताएं , ताकि गमलों में डालने वाले खाद का इंतजाम हर परिवार में अपने आप हो जाएं । प्रयोग करने के बाद बची चायपत्ती भी इसके लिए बेहतर होती है।
तीसरे साफ कूडेदान में बचे या जूठे खाने वगैरह को दिनभर जमा कर उसे गली के कुत्तों या अन्य चिडियों वगैरह को खिलाया जा सकता है। इसमें अलग से कुछ भी खर्च नहीं , सिर्फ थोडी सी सहनशीलता और दृढता की जरूरत है। कितने बेजुबानों को चारा मिल जाएगा , फिर भी यदि इतना करने का समय आपके पास नहीं तो इसे कम से कम खाद वाले डब्बे में ही डाल दें। दूसरे और तीसरे तरह के कूडेदान से निकले कूडे से बिजली भी बनायी जा सकती है , पर हमलोग कूडों को मिलाजुलाकर ऐसा गुड गोबर कर देते हैं कि वह हमारे किसी काम का नहीं होता है। इसलिए अपने बच्चों के साथ साथ काम करनेवाले दाई नौकरों को भी आप इस ढंग से कचरा फेकने की सीख अवश्य दें। हर बात में सिर्फ सरकार के भरोसे रहना बेवकूफी है .
अपनी सुविधा के लिए पोलीथीन में खाने की चीजें भरकर बाहर फेककर नालियों को न बंद करें , साथ ही इससे बेजुबान जानवरों की अकालमृत्यु के आप भागीदार बन जाते हैं। पॉलीथीन को भी पहले वाले डस्टबीन में रखें , ताकि समय पर उसे भी गलाने के लिए बेचा जा सके। दुबारा न गलनेवाली पोलीथीनों को वहां पहली परत के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए, जहां नई नई सडके बनती है और वहां की जमीन ऊंची करनी हो । इसके लिए भी वैज्ञानिकों को ध्यान देना चाहिए। तो आज से ही आप इस कार्य को शुरू कर दें , अपने पर्यावरण को और नुकसान न पहुंचाएं , क्यूंकि स्वस्थ पर्यावरण ही आपको स्वस्थ जिंदगी दे सकता है , सफाई के इस यज्ञ को पूरा करने के लिए एक एक व्यक्ति का योगदान आवश्यक है। आज ही अपनी टिप्पणी के द्वारा प्रण करें कि सामान ढोने के लिए आप सिर्फ कपडे की थैली का ही उपयोग करेंगे।
(लेखक .. खत्री राजेन्द्र नाथ अरोडा जी)
रविवार, 29 नवंबर 2009
जिज्ञासुओं को शक्ति प्रदान करो प्रभु !!
जिज्ञासु अनंत काल से आगे बढता जा रहा है। वह अपनी मंजिल स्वयं भी नहीं जानता, फिर भी अपने पथ पर अग्रसर रहता है। जिज्ञासु ठहरना नहीं जानता , क्यूंकि वह जानता है कि ठहरना मृत्यु है , जिसे वह वरण नहीं करना चाहता। आनेवाली हर लडाई को वह जीतता जा रहा है और अध्यात्म अमृत का पान करता हुआ उस अनंत से साक्षात्कार की पिपासा लिए उस अनदेखी मंजिल तक पहुंच जाना चाहता है। पर वह किसी मृगतृष्णा में भी फंसना नहीं चाहता , भ्रमित दिशा में घिरना नहीं चाहता , वह दूरदृष्टि से आगे बढना चाहता है। उसके जीवन का लक्ष्य अनंत में लीन होना है , नई नई खोजें उसकी पिपासा है।
जिज्ञासु जीवन का कठिनतम सत्य भी है। यदि जिज्ञासु न हो तो संसार स्थिर हो जाएगा। ऐसा कभी नहीं होता और हो भी नहीं सकता क्यूंकि प्रभु सदा ही जिज्ञासुओं को इस पृथ्वी पर भेजता रहता है , जो नए नए रास्ते खोजते हैं। संसार में नित्य नए नए विकास इन्हीं जिज्ञासुओं की तपस्या के प्रतिफल हैं। संसार का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं , जहां इन जिज्ञासुओं की पैठ न हो। ये अपने कार्य में अटल हैं और पाने की आकांक्षा लिए बडे उत्साह से आगे बढते जा रहे हैं।
जिज्ञासु जीवन को परिरष्कृत करने और परिपक्व बनाने की कला जानता है और उसमें नई नई खोजें करने की भी क्षमता रखता है। जीवन एक उलझी हुई जंजीर होती है , जिज्ञासु उसकी हर कडी को सीधा करता हुआ गंतब्य की ओर बढना चाहता है। जीवनमूल्यों के तीव्रता से उतार चढाव एवं ह्रास की ओर से भी वह सतर्क होता है और समयानुसार जो समीचीन होता है , उसे ग्रहण करने में उसे कोई संकोच नहीं होता। इन सब उहापोह के मध्य एक आध्यात्म अमृत ही उसका सही संबल और सुदृढ मार्गदर्शक होता है। जिज्ञासु इसका ऋणी होता है , क्यूंकि इसके द्वारा ही उसका मार्ग सरल हो जाता है।
हे ईश्वर , इन जिज्ञासुओं की सदा सहायता एवं रक्षा करना , ताकि ये तेरे रचे हुए संसार को सही दिशा में ले जा सके और आध्यात्म के नाम पर खुली अनेकानेक दुकानों से बचा सके। आज जो आतंकवाद चरमसीमा पर है , उसे जीतने में इन जिज्ञासुओं को शक्ति प्रदान करो प्रभु , तभी जगत् का कल्याण होगा । अस्तु ....
(लेखक .. खत्री कैलाशनाथ जलोटा 'मंजु' जी)
शनिवार, 28 नवंबर 2009
तुम्हारे पास जो भी है उसे बांटो , विद्या , बुद्धि , ज्ञान , ध्यान , भक्ति , शक्ति , कीर्तन , गीत या संगीत ... जो भी है उसे बांटो। यदि ये भी नहीं तो प्रेम , स्नेह , आत्मीयता , मीठी वाणी जो भी है उसे बांटो, इससे बडा दान तो कुछ हो ही नहीं सकता। तुम दूसरों के आंखों से आंसू तो पोछ ही सकते हो , पीठ तो थपथपा ही सकते हो , सहानुभूति तो प्रकट कर ही सकते हो। यह तो कह ही सकते हो कि तुम उदास मत हो , निराश मत हो , हताश मत हो , चिंता मत करो , मैं तुम्हारे साथ हूं। पर तुम इतना भी नहीं कहते।
बॉंटो अपने प्रेम को , दोनो हाथो से बॉंटो , बॉटने में फैलाव है , जो जितना बॉटता है , वह उतना महान होता जामा है। पर तुम बांटना नहीं चाहते। धन को बांटने में कंजूसी करते हो , सोना चांदी बॉटने में तुम्हारा कलेजा फटता ही है। जमीन जायदाद बांटने में भी पीडा होती है। मीठा बोलने में भी कष्ट होता है। किसी का आदर करने में भी लज्जा आती है। तो और क्या करोगे ? बस अपनी स्तुति और दूसरो की निंदा , मेरा धन , मेरी संपत्ति , मेरा सौंदर्य , मेरा संगीत , मेरा कुल , मेरा ज्ञान , मेररा शान , मेरा मान या फिर दूसरों की निंदा , उसका पति ऐसा , उसकी पत्नी ऐसी , उसका बेटा ऐसा , उसकी बहू ऐसी , उसका घर ऐसा , उसका परिवार ऐसा , उसका चरित्र ऐसा ... सारी उमर इसी निंदास्तुति में बीत जाती है।
जैसे कुएं का पानी रूक जाए तो सड जाता है , पीने योग्य नहीं होता , विषाक्त हो जाता है , यहां तक कि नदी की धार रूक जाए तो उसका पानी भी पीने योग्य नहीं रहता। प्रेम भी बहता रहे , बंटता रहे , बरसता रहे , लुटता रहे , तो गंगोत्री से निकले जल की तरह पवित्र रहता है। इसलिए प्रेम का बडा महत्व है , भाव का बडा महत्व है। किसी कीमत पर भावों को विकृत होने नहीं दो। प्रेम और भाव ही तो हमारा सच्चा धन है , सच्ची पूंजी है। इसी के चलते हम सम्राट हैं।
पूरी प्रकृति बांट रही है , सूर्य प्रकाश दे रहा है , चंद्रमा चांदनी दे रही है , जल जीवन दे रहा है , अग्नि उष्णता दे रही है , वायु ऑक्सीजन दे रही है , नदियां जल दे रही हैं , पेड फल दे रहे हैं , पृथ्वी सबको धारण कर रही है। एक मनुष्य ने ही बांटना बंद कर दिया है। मनुष्य जो भी करता है , बस अपने परिवार के लिए , अपने और परिवार के लिए तो सब कोई करते हैं , करना ही पडता है। यदि नहीं करोगे तो परिवारवाले तुम्हारी छाती पर बैठकर ले लेंगे , कोर्टो में केस करके ले लेंगे , गले में अंगूठा लगाकर ले लेंगे। परंतु अपने या अपने परिवार के अलावे तुम क्या करते हो , यह देखने वाली बात है।
ये पृथ्वी , जल , वायु , अग्नि , आकाश , देशकाल , आपकी सेवा कर रहे हें , आपकी देखभाल कर रहे हैं , आपको जीवन दे रहे हैं । पर इसके लिए भी आपका कोई कर्तब्य नहीं ? कम से कम आप इसे तो गंदा न करें , विषाक्त न करें , अपवित्र न करें। इनकी पवित्रता का ध्यान रखें , कम से कम यह भी आपकी बडी मेहरबानी होगी !
(लेखक .. खत्री रामनाथ महेन्द्र जी)
रविवार, 22 नवंबर 2009
पेड पौधों के बाद जीव जंतुओं का विनाश .. ये समाप्त हो गए तो फिर क्या करेंगे आप ??
आज मानव की दानवीय कूरता के चंद उदाहरण आपके सामने रख रही हूं .....
दही और वनस्पति से बननेवाली माइकोबायल रेनेट का उपयोग न कर अधिक जायकेदार चीज बनाने के लिए गाय के बछडे के पेट में रेनेट नामक पदार्थ को प्राप्त करने के लिए नवजात बछडों का वध कर दिया जाता है । जिसकी मां का अमृत समान दूध हमारे बच्चों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है , उसी बच्चे का जीवन हम अपने स्वाद के लिए ले लेते हैं। छि: छि: यह हमारा कैसा व्यवहार है ??
चूंकि लोगों को शुतुरमुर्ग के पंखों से प्यार है , पंख विकसित होने तक इंतजार किया जाता है और पंख नोच लेने के बाद इसकी खाल नोची जाती है। खरोंचने और नोचने का यह क्रम तबतक चलता है जबतक शुतुरमुर्ग के प्राण पखेरू उड न जाएं। खाल का थैला बनता है और पंख आपके टोप में खोंस दिए जाते हैं। मात्र फैशन के लिए इतनी क्रूरता ??
बिल्ली से बहुत छोटा बिज्जु नामक जानवर को बेंतो से इतना पीटा जाता है कि यह उद्वेलित हो जाए। लगातार पिटाई के दौरान उद्विग्न अवस्था में इसके शरीर से जो तरल पदार्थ निकलता है , उसमें से सुगंध निचोडे जाने के लिए उसकी ग्रंथियों को चाकू से लगातार खरोंचा जाता है। सुगंध प्राप्त करने के लिए ऐसा अनर्थ ??
लिपिस्टिक में प्रयुक्त होनेवाले रसायनों में जहर की जांच के लिए दर्जनों बंदरों को बैठाकर उनके गले में ट्यूब के जरिए अनेक प्रकार के तरल पदार्थ पेट में पहुंचा दिए जाते हैं, इससे अधिकांश बंदरों का मरना तय होता है। इतना जहर पचाकर जो बंदर नहीं मरते , उनका पोस्टमार्टम महज इसलिए किया जाता है कि वे क्यूं नहीं मरे ? दिनभर के प्रयोग के बाद सायंकाल में बंदरों की लाशों को कूडे की तरह फेक दिया जाता है। उनके दर्द को कोई क्यूं नहीं समझता ??
अपनी बडी बडी सुंदर गोल आंखे और चेहरे के नादान भाव वाले स्लैण्डर लोरिस नाम के छोटे से बंदर का शिकार कर उसकी आंखे और दिल निकाल ली जाती है और इसे पीसकर सौंदर्य प्रसाधन बनाया जाता है , भला इतने जानवरों की मौत से हमारा चेहरा मुस्कुरा सकता है ??
जिंदे सांप के खाल को ख्ींचने में होने वाली सरलता के कारण सांप के सिर को कील से पेड के तनों पर ठोक दिया जाता है , जिंदा सांप तडपता रहता है और चाकू की मदद से उसकी खाल उतरती रहती है , आदमी हैं या राक्षस हैं हम ??
अापकी ऑफ्टर शेव लोशन आपकी गाल पर फोडे फुंसी तो नहीं करेंगे , यह जानने के लिए गिनी पिग की खाल को बार बार खरोंचकर उसकपर लेप कर इसका परीक्षण किया जाता है , इस परीक्षण में न जान कितने गिनी पिग मारे जाते हैं। कहां का न्याय है ये ??
केवल कश्मीर की घाटियों में ही पाया जानेवाला को पकडने के लिए घास के अंदर कंटीले लोहे के ऐसे जाल बिछाए जाते हैं , कि बेचारा हरिण पैर रखते ही फंस जाता है। छटपटाते हुए वह लहूलुहान अपने पैर को उस इस्पाती शिकंजे से निकालने की बराबर चेष्टा करता है और सिसक सिसक कर प्राण त्याग देता है। इस प्रकार पकडे गए औसतन तीन हरिणों मे से दो को या तो बेकार समझकर वहीं पडे रहने दिया जाता है क्यूंकि या तो वे कस्तूरी मृग नहीं होते या व्यवसायिक दृष्टि से अनुपयोगी समझे जाते हैं , क्या मूल्य है उनकी जान का ?
मगरमच्छ को चालाकी से बाहर लाया जाता है और एकाएक उसकी नाक में एक पैना छुरा घोंप दिया जाता है , ताकि उसका जीवन समाप्त हो जाए। उसकी खाल का उपयोग चमडे के रूप में महिलाओं के पर्स या सूटकेस बनाने में किया जाता है , क्या इसके बाद भी आप कहेंगे कि मगरमच्छ झूठे आंसू बहाता है ?
(कल्याण से साभार)
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क्या ईश्वर ने शूद्रो को सेवा करने के लिए ही जन्म दिया था ??
शूद्र कौन थे प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर थी, पर धीरे-धीरे यह व्यवस्था जन्म आधारित होने लगी । पहले वर्ण के लोग विद्या , द...
