शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

क्‍या ईश्‍वर ने शूद्रो को सेवा करने के लिए ही जन्‍म दिया था ??

शूद्र कौन थे


प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर थी, पर धीरे-धीरे यह व्यवस्था जन्म आधारित होने लगी । पहले वर्ण के लोग विद्या , दूसरे वर्ण के लोग शक्ति और तीसरे वर्ण के लोग पैसों के बल पर अपना महत्‍व बनाए रखने में सक्षम हुए , पर चौथे वर्ण अर्थात् शूद्र की दुर्दशा प्रारम्भ हो गयी। अहम्, दुराग्रह और भेदभाव की आग भयावह रूप धरने लगी। लेकिन इसके बावजूद यह निश्चित है कि प्राचीन सामाजिक विभाजन ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों में था जिसका अन्तर्निहित उद्देश्य सामाजिक संगठन, समृद्धि, सुव्यवस्था को बनाये रखना था। समाज के हर वर्ग का अलग अलग महत्‍व था और एक वर्ग के बिना दूसरों का काम बिल्‍कुल नहीं चल पाता था। 

यदि आपके घर में ही दो बच्‍चे हों और उनमें से एक गणित , विज्ञान या भाषा की गहरी समझ रखता हो तो आवश्‍यक नहीं कि दूसरा भी रखे ही। जिसका दिमाग तेज होगा , वह हर विषय के रहस्‍य को अपेक्षाकृत कम समय में समझ लेगा और बाकी समय का उपयोग उनके प्रयोग में करेगा , ताकि नयी नयी चीजें ढूंढी जा सके। पर जिसका दिमाग तेज नहीं होगा , उसका मन दिन भर अपने कार्य को पूरा करने के लिए मेहनत करता रहेगा। इसी मन की तल्‍लीनता के कारण उसे कला क्षेत्र में लगाया जा सकता है , जबकि दिमाग के तेज लोगों को कला क्षेत्र में भेजने से वे वहां शार्टकट ढूंढना चाहेंगे , जिससे कला में जो निखार आना चाहिए , वह नहीं आ पाएगा। यही सोंचते हुए हमारे ऋषि मुनियों ने कम बुद्धि वाले लोगों को कला क्षेत्र में लगाया और उसका परिणाम आप आज भी भारत की प्राचीन कलाओं में देख सकते हैं। 

शूद्र कौन थे


मैने अपने एक आलेखमें कहा है कि हर वर्ण में पुन: चारो वर्ण के लोग थे।  शूद्रों की मेहनत पर ही पूरे समाज की सफलता आधारित होती है। शूद्रों में भी कुछ लोग ब्राह्मण थे , जिन्‍होने कला के हर क्षेत्र में रिसर्च किए और अपने बंधुओं को तरह तरह की सोंच दी। उस समय एक कलाकार को बहुत महत्‍व दिया जाता था , इसलिए वे संतुष्‍ट होते थे और काम में दिलचस्‍पी रखते थे। पर कालांतर में कला का महत्‍व निरंतर कम होने लगा , जिसके कारण कलाकारों को कम पैसे दिए जाने लगे। साधन की कमी होने से उनके रहन सहन में तेजी से गिरावट आने लगी। 

रहन सहन की गिरावट उनके स्‍तर को कम करती गयी , साथ ही अपनी आवश्‍यक आवश्‍यकताओं के पूरी न होने से कला से उनका कोई जुडाव नहीं रह गया। विदेशी आक्रमणों से वे और बुरी तरह प्रभावित हुए। उनका यह कहकर शोषण किया जाने लगा कि उनका जन्‍म ब्राह्मणों , क्षत्रियों और वैश्‍यों की सेवा के लिए हुआ है। पर मुझे ऐसी बात कहीं नहीं दिखाई देती है , कल जिन कार्यों को करने के कारण वे शूद्र कहलाते थे , आज उन्‍हीं कार्यों से वे कलाकार कहे जा सकते हैं। यदि सेवा का कार्य बुरा होता है तो डॉक्टर, नर्स, ब्यूटिशियन, शिक्षक , सबके कार्य को सेवा ही क्यों कहा जाता है। 


(लेखिका .. संगीता पुरी)



शुक्रवार, 19 मार्च 2021

हमारे संस्‍कार ( खत्री हरिमोहन दास टंडन जी) ... भाग . 2

Who is khatri caste in hindi

वर्तमान समय में संस्‍कारों की उपेक्षा में केवल शिक्षा तथा संसर्ग या कलिकाल ही एकमात्र कारण नहीं है , उसका एक प्रमुख कारण पूर्वजों के अज्ञान , आचरण , अशिक्षा और अंधविश्‍वास में भी है। लगभग 1200 वर्ष के विदेशी शासन और उसके कारण उत्‍पन्‍न अस्थिरता के फलस्‍वरूप हमारी शिक्षा और सामाजिक व्‍यवस्‍था छिन्‍न भिन्‍न हो गयी है। पूर्वजों ने संस्‍कार रीति रिवाज और धार्मिक कट्टरता को एक सूत्र में पिरो दिया। धीरे धीरे सबकुछ इतना गड्ड मड्ड हो गया कि इनको अलग करना बहुत कठिन हो गया।

भारतीय मान्‍यता के अनुसार संस्‍कार का संबंध न केवल इस जन्‍म से बल्कि जनम जनमांतर से भी है , जबकि रीति रिवाज परिवर्तनशील होते हैं। हम एक उदाहरण के द्वारा इस बात को स्‍पष्‍ट कर सकते हैं। पूर्वकाल में मुंडन और विवाह के अवसर पर एक ढीला ढाला वस्‍त्र पहनाया जाता था , जिसे बागा कहते थे। वह केवल शोभा थी , संस्‍कार नहीं। इस तरह विवाह के अवसर पर आमोद प्रमोद के लिए कई रस्‍में हुआ करती हैं , जैसे वर के जूत्‍ते को छुपा देना , वर से छंद सुनना , कठौती , कंगना खोलना आदि , जो आज समयाभाव से प्राय: समाप्‍त हो रही है। पर संस्‍कार हिंदूत्‍व के अभिन्‍न अंग हैं , उनके त्‍याग से हिंदू धर्म का ही लोप हो जाएगा।


हिंदू शास्‍त्रकारों के मतानुसार जन्‍म से बच्‍चे का कोई धर्म नहीं होता , उसका जब किसी विशेष धर्म के अनुसार संस्‍कार किया जाता है , तो वह धर्म के नाम से अभिहित होता है। ईसाई , पारसी , मुसलमान ,‍ हिंदू , बौद्ध आदि धर्मों में ऐसे संस्‍कारों की व्‍यवस्‍था है , जिनके कर्मकांडों को पूरा करने के बाद ही बालक उसका अंग बनता है। शिक्षा और अन्‍य जीवन पद्धतियों के द्वारा विशिष्‍ट धर्म पर आस्‍था पैदा की जाती है और शुभाशुभ फल के प्रति विश्‍वास पैदा किया जाता है .

हिंदू शास्‍त्रों का मत है कि जैसा बीज बोया जाता है , वैसा ही वृक्ष होता है। उसपर भूमि , जल , वायु और प्रकाश का भी प्रभाव पउता है। इस प्रकार चरित्रवान , विचारवान , सुशिक्षित , स्‍वस्‍थ और धार्मिक व्‍यक्ति की संतान सुसंस्‍कृत परिवार और समाज के सहयोग से अधिकाधिक गुणवान और प्रतिभाशाली होती हैं। जिस तरह कृषक का धर्म है कि दोष रहित बीज को ऋतु और मिट्टी का ध्‍यान रखते हुए आरोपित करे , उसी प्रकार गर्भाधान में भी काल , अवसर , स्‍वास्‍थ्‍य और मानसिक शांति का ध्‍यान रखना आवश्‍यक होता है। केवल पशुवत् वासना तृप्ति ही जीवन का ध्‍येय नहीं होता।

जिस प्रकार कुछ समय व्‍यतीत होने पर बीज से अंकुर निकलकर पल्‍लवित होता है , उसके बाद फल प्राप्ति होने से पूर्व तक माली को विशेष देख रेख करनी होती है , उसी प्रकार गर्भाधान के बाद संतान के जनम से पूर्व दो प्रकार के संस्‍कार किए जाते हैं। तीसरे महीने में पुसवन और छठे या आठवे महीने में सीमन्‍त सीमन्‍तोन्‍नयन संस्‍कार संपन्‍न होता है। पुंसवन के बाद से माता के विचार और व्‍यवहार का प्रभाव निर्माणाधीन बच्‍चे पर पडने लगता है। सीमांत संस्‍कार के काल से गर्भ के बच्‍चे में ग्रहण की शक्ति आ जाती है। अर्जुन पुत्र अभिमन्‍यू ने चक्रव्‍यूह भेदन का ज्ञान और अष्‍टावक्र ने आध्‍यात्‍म ज्ञान उसी अवस्‍था में ग्रहण किया था। खत्रियों के यहां ये दोनो संस्‍कार रीति और गोद भरने के रूप में प्रचलित हैं।

जातकर्म , नामकरण , निष्‍कम्रण , अन्‍नप्राशन , विद्यारंभ , और कर्णभेद संस्‍कार नाम से ही स्‍पष्‍ट हैं। जीवन से संबंधित हर कार्य धार्मिक दृष्टि से ही करने का विधान है।सुमंगल की दृष्टि से उनके लिए तिथि , वार , नक्षत्र आदि का विचार करने की व्‍यवस्‍था की गयी है। षष्‍ठी पूजन एक संस्‍कार नहीं , अनुष्‍ठान है। वह भगवती षष्‍ठी को , जो स्‍वामी कार्तिकेय जी की पतनी है और बालकों की अधिष्‍ठात्री देवी हैं , को प्रसन्‍न करने के लिए किया जाता है। संतान की दीर्घ आयु , सुरक्षा और भरण पोषण के लिए इस देवी की पूजा का प्रचलन हुआ।

चूडाकर्म संस्‍कार के बिना शिशु हिंदू नहीं बनता है। सभी वर्णों के लिए यह अनिवार्य संस्‍कार है। चूडाकर्म के द्वारा बालको के गर्भ के बालों का क्षौर कर चोटी रख दी जाती है। प्रत्‍येक हिंदू के लिए चोटी की रक्षा करना आवश्‍यक होता है , क्‍यूंकि धार्मिक अनुष्‍ठान , संध्‍या , श्राद्ध आदि कर्मकांडों में उसकी आवश्‍यकता रहत है। यह हिंदुत्‍व की पहचान है। विद्यारंभ से लेकर समावर्तन तक के पांच संस्‍कार शैक्षणिक कहे जाते हैं। विद्यारंभ , उपनयन , वेदारंभ , केशांत और समावर्तन तक के नाम से प्रसिद्ध हैं। बालक या बालिका को पांच वर्ष तक शिक्षा देना माता का धर्म है , उसके बाद अक्षरारंभ और आरंभिक ज्ञान का अवसर आता है , बालक समाज के बीच विचरण करता है , तब उसके आचरण और चारित्रिक गुणों का विकास करना पिता का कर्तब्‍य है।

क्षत्रियों का उपनयन संस्‍कार 11 वें वर्ष में करने का विधान है। उसके बाद बालक या बालिका की उच्‍च शिक्षा और चरित्र निर्माण आदि का भार सुयोग्‍य गुरू को सौंप देना चाहिए। ब्रह्मचर्य पालन के साथ साथ यम , नियम आदि का पालन और योग्‍यतानुसार विद्या का अभ्‍यास समावर्तन तक चलता रहता है। खत्रियों के लिए उपनयन की अधिकतम आयु 21 वर्ष है। उपनयन और समावर्तन दोनो ही अवसरों पर केशांत किया जाता है। शीश पर केश शोभा की वस्‍तु है , जिसका त्‍याग करना रेयस्‍कर माना गया है , क्‍यूंकि सांसारिकता के मोह का त्‍याग ही संस्‍कारों का लक्ष्‍य है। समावर्तन वर्तमान दीक्षांत समारोहों के समान है ख्, जिसमें गुरू विद्यार्थियों को भविष्‍य में जीवन के कर्तब्‍यों , विद्या के सदुपोग और बाधाओं से जूझने के लिए उपदेश देता है।


रविवार, 28 जून 2020

समाज के उत्‍थान में पत्र पत्रिकाओं का विशेष महत्‍व

Khatri caste history in Hindi


किसी भी राष्‍ट्र , समाज , समुदाय या संस्‍था के उत्‍थान में पत्र पत्रिकाओं का विशेष महत्‍व होता है। इस सत्‍य को खत्री समाज के कर्णधारों ने समझा , स्‍वीकारा और वर्ष 1825 के आसपास से ही इस दिशा में सतत् प्रयत्‍नशील रहें। खत्री समाज की पूर्व की पत्र पत्रिकाओं का इतिहास तो उपलब्‍ध नहीं , पर 1872 में सर्वप्रथम पेजाब से खत्री समाज के पत्र का प्रकाशन उर्दू में आरंभ होने के प्रमाण मिलते हैं। वर्ष 1879 में आगरा से 'खत्री हितकार' नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ।

Khatri magazines

इसके बाद समय समय पर अनेक पत्रिकाओं का प्रकाशन विभिन्‍न प्रांतों और नगरों से हुआ , जैसे खत्री संसार(हैदराबाद), वरूण संदेश(जोधपुर), खत्री समाज(कलकत्‍ता), अरोडवंश सखा(व्‍यावर), खत्री दर्शन(नागपुर), अरोड संदेश(दिल्‍ली), श्री ब्रह्म क्षत्रिय हितेच्‍छु(अहमदाबाद), सोमादित्‍य(जोधपुर), भारतीय खत्री समाज(बंबई), अरोड वंश सुधारक(दिल्‍ली), सहस्रार्जुन वाणी(बैंगलौर), हिंगलाज ज्‍योति(जोधपुर), सूद संदेश(कपूरथला), ब्रह्म क्षत्रिय(बंबई), सहस्रांर्जुन वाणी(शोलापुर), खत्री प्रगति(झांसी), जातिबोध(विवेकानंद नगर), अरोड बंधु(श्रीगंगानगर) आदि अनेक पत्रिकाओं का मासिक या त्रैमासिक के रूप में प्रकाशन आरंभ हुआ , पर अधिकांश का अब कहीं अता पता भी नहीं। 

नवम्‍बर 1936 में आगरा और अवध की संयुक्‍त प्रांत(वर्तमान में उत्‍तर प्रदेश) की राजधानी के खत्री समाज की एकमात्र प्रतिनिधि सभा 'श्री खत्री उपकारिणी सभा , लखनउ' ने अपने सक्रिय सदस्‍य स्‍व महाराज किशोर टंडन जी की योजना को साकार करते हुए 'ख्त्री हितैषी' मासिक का प्रकाशन आरंभ किया , जो अभी तक निरंतर जारी रहकर देश के करोडों खत्री समाज का मार्गदर्शन और सेवा कर रही है। अपनी 50 वीं वर्षगांठ पर इसने खत्री हितैषी का 'स्‍वर्ण जयंती विशेषांक' निकाला था।

(लेखक .. खत्री सतीशचंद्र सेठ जी)

मंगलवार, 12 मई 2020

शीतला:एक कल्‍याणकारी माता

Jai shitla mata

शीतला:एक कल्‍याणकारी माता 

जगतजननी, जनकल्‍याणी मां शीतला देवी के मंदिर सेनिकलती मधुर शंख ध्‍वनि एवं चौरासी मांगलिक घंटो और घंटियों की स्‍वरलहरियां दूर दूरांतर में फैलकर न केवल मानव में एक दूसरे के प्रति प्रेम औरसद्भावना संचारित करती हैं , बल्कि उसे समाज और धर्म की चेतना से परिचित करवाकर उसके मन में अन्‍याय के प्रति विद्रोह के भाव उत्‍पन्‍न करने के साथ साथ बालक के प्रति मां की ममता और वात्‍सल्‍य को भी उद्भाषित करती है।युगों पूर्व देवताओं ने भी माता शीतला की स्‍तुति में गाया था ...

शीतले त्‍वं जगत माता , शीतले त्‍वं जगत्पिता। शीतले त्‍वं जगत्‍धात्री , शीतले नमो नम:।।


अर्थात् , हे शीतले, तुम्‍हीं इस जगत की माता और पिता के साथ साथ इस चराचर जगत को धारण करने वाली और पालन पोषण करने वाली हो। ऐसी शीतल माता को बारम्‍बार प्रणाम है। सामान्‍यतया शीतला का नाम सुनते ही मन में एक बीमारी , जिसे चेचक , मासूरिका , गलाघोंट , बडी माता , छोटी माता , विस्‍फोटक आदि नामों से जाना जाता है , का विचार मन में कौंध जाता है। ऋतु परिवर्तनों पर शरद और वसंत नाम के दो भयंकर दानव विभिन्‍न रोगों का कारण माने जाते हैं , इसलिए इन्‍हें बासंतिक कष्‍ट भी कहा जाता है। धर्म के प्रति सही जानकारी न होने से इसे बडी माता या छोटी माता नाम दे दिया गया है , जो सर्वथा गलत है। माता तो सबपर वरद्हस्‍त रखती है और आशीर्वाद ही देती है। कहा भी गया है 'पुत कपूत हो सकता है , माता कुमाता नहीं हो सकती'। कोई भी ममतामयी मां , जो कि पूजनीय है , अपने पुत्ररूप में भक्‍तों को कष्‍ट देने या जान लेने हेतु प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष तौर पर ऐसा नहीं कर सकती। वह तो हमेशा अपने भक्‍तों का कष्‍ट हरण को तैयार होकर मनोकामनाओं को पूरी करती है।

अखिल ब्रह्मेश्‍वरी माता शीतला अलग अलग स्‍थानों में अलग अलग नाम से जानी जाती , जैसे कौशाम्‍बी जनपद में 'कडे की देवी' , ऋषिकेश में 'बासंती माता' , मुजफ्फरनगर में 'बबरेवाली शीतला माता' , जम्‍मू और कश्‍मीर के स्‍थलन क्षेत्र में 'जौडीयां माता' , गुडगांव में 'कृपी माता' , आदि कई नाम से शक्तिपीठ या सिद्धपीठ स्‍थापित हैं। इसी प्र‍कार उन्‍नाव में इन्‍हें कोई कल्‍याणी देवी के नाम से , तो इलाहाबाद में मासूरिका देवी के नाम से तो जौनपुर में चाऊंकिया देवी के नाम से । ऐसे ही सहारनपुर के पास शिवालिका पहाडियों में 'श्रीशताक्षीमाता' को , हिमाचल में 'चिंतपूर्णी माता' को , तथा रोहतक में 'फल्‍मदे माता' को शीतला माता के नाम से जाना जाता है। अद्भुत रहयमयी शीतला माता के बारे में एक बात तो सर्वमान्‍य और सत्‍य है कि यी दुर्गा का ही रूप है , पर कौन सा , ये विवादित हैं।

 कडे की देवी और बबरेवाली शीतला माता को मां कालरात्रि का रूप माना जाता है। तीनो तापों की अग्नि को शांत करने के कारण इन्‍हें मां कुष्‍मांडा का स्‍वरूप माना गया है, तो कहीं भगवान स्‍कंदजी द्वारा माता कहे जाने के कारण इन्‍हें स्‍कंद माता भी माना जाता है। फिरोजाबाद के एक गांव में 'ब्रह्मचारिणी माता' को भी शीतला माता के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार एक स्‍वामी जी के अनुसारये 'मां धूमावती' हैं। मां शीतला देवी के इतने नाम ही अपने आपमें एक रहस्‍य छुपाए हुए हैं। कहीं कहीं तो सतीदेवी के अंग गिरने के कारण भी इन्‍हें जाना जाता है। जैसे कौशाम्‍बी क्षेत्र में 'कडे की देवी' के स्‍थान पर सती देवी के दाहिने कर के कारण शीतला शक्तिपीठ माना जाता है। वास्‍तविकता तो मैया शीतला देवी स्‍वयं ही जान सकती हैं।

jai shitla mata


अज्ञानतावश अद्भुत , विस्‍मयकारी , रहस्‍यमयी कहे जानेवाले हिंदु शास्‍त्र पूर्णत: वैज्ञानिक हैं , इसलिए तो महर्षि वेदव्‍यास और भगवान धन्‍वंतरि ने विभिन्‍न पुराणों में देवी शीतला के स्‍वरूप का वर्णन इस प्रकार किया है ....


बंदेह शीतलाम् देवी रासभस्‍थां दिगम्‍बराम्। मार्जनीकलाशोपेतां सूपलिकृतमस्‍तकाम्।।


इसका अर्थ है कि गधे पर बैठी हुई सर्वथा नग्‍न , झाडू और कलश उठाए , सूप को मस्‍तक पर भूषण की तरह सजाए शीतला देवी की मैं वंदना करता हूं। अगर उपरोक्‍त मंत्र की वैज्ञानिक विवेचना की जाए तो मालूम होगा कि इसमें कई अद्भुत रहस्‍य छुपे हैं। शीतला का प्रकोप होते ही रोगी अपने शरीर में निरंतर दाह का अनुभव करता है , इसलिए ये शीतला कहलाती है। इनका वाहन गधा सहनशीलता का प्रतीक है। चेचक का प्रकोप होने पर शरीर पर कपडे न के बराबर ही होने चाहिए, क्‍योंकि वस्‍त्र दानों या जल भरे छालों पर चिपकते हैं। उन्‍हे अलग करने पर पीडा होती है।झाडू और कलश माता शीतला के हाथों में दर्शाने का अर्थ है कि वहां सफाई और ठंडक आवश्‍यक है। जल कलश रखने का तात्‍पर्य है कि रोगी के निकट जानेवाला व्‍यक्ति भी हाथ पैर धोकर जाए । सूप को दर्शाने का अर्थ यह है कि रोगी को शुद्ध आहार दिया जाना चाहिए। रोगी को निरामिष , ठंडा औरबासी भोजन दिया जाता है। रोगी के घर के सभी प्राणी साफसुथरे रहकर , पान सुपारी का प्रयोग वर्जित मानकर माता शीतला देवी की भक्ति उपासना में लग जाते हें।

माता दुर्गा के जागरण में महारानी तारा देवी की कथा कहने सुनने की परंपरा प्रचीन काल से ही चली आ रही है। बिना इस कथा के जागरण को संपूर्ण नहीं माना जाता है, यद्यपि पुराणों और ऐतिहासिक पुस्‍तकों में इसका कोई उल्‍लेख नहीं है । इस कहानी में एक स्‍थान पर आता है कि रूक्‍कों के बालक को जब चेचक निकल आयी थी , तब रूक्‍को दुखी होकर अपने पूर्वजन्‍म की बहन तारामती के पास गयी और सब वृतांत सुनाया। तब तारामती ने कहा कि तू ध्‍यान करके देख कहीं तुझसे माता के पूजन में कोई भूल तो नहीं हो गयी है। तब रूक्‍को को छह वर्ष पूर्व की बात का ध्‍यान आ गया कि उसने कहा था कि बच्‍चे के होने पर जागरण करवाऊंगी। अर्थात् ये जागरण शीतला माता के लिए ही हुआ था। हिंदुशास्‍त्रों के अनुसार कोई भी धार्मिक मांगलिक या नवरात्र पूजा का कार्य तबतक पूर्ण नहीं माना जाता है , जबतक कि घट की पूजा न की जाए। सुगंधयुक्‍त शीतल जल से भरे सुंदर शुभदायी कलश में आलौकिक विधि यानि कलश में ही श्री माता शीतला देवी विराजमान हैं। कलश ही माता शीतला का रूप है। कोई श्रद्धालु इनका स्‍मरण करके इन्‍हें कहीं भी पूज सकता है , किसी चौराहे पर , पेउ पर , पत्‍थर को माता का स्‍वरूप मानकर उसकी पूजा कर लेने से मां शीतला प्रसन्‍न हो जाती हैं। शीतला माता के शुभ दिन सोमवार और शुक्रवार हैं।

मां शीतला के चरणों में शीश झुकाने से श्रद्धालुओं को जीवन सफल हो जाता है , मनोकामनाओं की पूर्ति होती है तथा भवबाधा से मुक्ति मिलती है।


लेखक
- खत्री अनिल कोहली (गुडगांव)

उपनयन का महत्‍व

16 sanskar in hindi

उपनयन का महत्‍व

हिंदू धर्म में उपनयन का बहुत महत्‍व है। इस संस्‍कार को बालक के समझदार होने पर करने का विधान है , जिससे वह धार्मिक कृत्‍यो को अच्‍छी तरह समझ सके और चरित्र निर्माण संबंधी बातों को समझ पाए। इसके बाद ही उसे धार्मिक कर्म ( यज्ञ , पूजन , श्राद्ध आदि) तथा शालाध्‍ययन का अधिकार प्राप्‍त होता है। उसे द्विजता प्राप्‍त होती है और वह गायत्री मंत्र का भी अधिकारी होता है। द्विज का अर्थ दूसरा जन्‍म है , बालक प्रथम जनम मे मां के उदर के अंधकार से मुक्‍त होता है और सांस्‍कारित जन्‍म में वह अज्ञान से मुक्‍त होकर ज्ञान के प्रकाश की ओर उन्‍मुख होता है। उसं गायत्री मंत्र संध्‍याकृत के साथ दो बार जाप करने का निर्देश दिया जाता है। 

संसार में सबसे ज्‍योतिर्मय सूर्य है। उससे ही स्थिरता , संयमितता और प्रखर बुद्धि के विकास की द्विज कामना करता है। विवेक , बुद्धि से वो प्रतिभाशाली और म‍हान बनता है। उपनयन के समय ब्रह्मचारी को उपवीत सूत्र पहनाया जाता है , जिसे जनेऊ कहते हैं। पहले बालक और बालिका दोनो का उपनयन होता था , परंतु कालांतर में बालिकाओं का उपनयन बंद हो गया , क्‍यूंकि उनका गुरूकुल में रहकर ज्ञानार्जन बंद हो गया। इसी कारण विवाहोपरांत जोडा जनेऊ पहना जाता है , क्‍यूंकि सभी धार्मिक कृत्‍य पति और पत्‍नी मिलकर करते हैं।

समावर्तन के बाद ब्रह्मचारी को विवाहोपरांत गृहस्‍थ जीवन व्‍यतीत करने का अधिकार मिलता है। हिंदू धर्म में विवाह को केवल कामयोग की कानूनी स्‍वीकृति नहीं माा गया है , यह स्‍त्री और पुरूष के बीच मिलकर घर गृहस्‍थी चलाने का एक समझौता भी नहीं है , जिसे ढोया या रद्द किया जा सके। यह एक समर्पण है , सहयोगी भावना से जीवन चलाने का संकल्‍प है , स्‍त्री सहधर्मिर्णी है , अर्द्धांगिनी है , विवाह का बंधन अटूट है। सुत , शील और धर्म तीनों ही पति और पत्‍नी के सामंजस्‍य पर निर्भर हैं। 

16 sanskar in hindi


जो जन्‍म लेता है , उसकी मृत्‍यु भी होती है , हिंदू धर्म पुनर्जन्‍म पर दृढ विश्‍वास रखता है। अत: अंत्‍येष्टि संस्‍कार में अनेक ऐसे कर्मकांड हैं , जो व्‍यक्ति को अगले जनम में शांतिपूर्ण जीवन जीने में मदद करते हैं। यदि उन्‍होने कोई पाप भी किया हो , तो कर्मकांड की मदद से उसका प्रक्षालन करने की कोशिश की जाती है। पूर्वजों से प्राणी का संबंध स्‍थापित कर उसे गौरव प्रदान करने की भावना को लेकर भी हमारे यहां कई कर्मकांड हैं। दशगात्र , सपिंडी , तथा पितृ मिलन की क्रिया तदर्थ ही निहित है। वार्षिक श्राद्ध करने की परंपरा आर्य गौरव तथा संस्‍कृति की रक्षा की भावना से प्रचलित हुई है। उसका ध्‍येय है कि पूर्वजों द्वारा अर्जित धवल यश कीर्ति सदैव आकाशदीप बनकर हमारा मार्गदर्शन करता रहे। 

आजकल ऐसा प्रदर्शन बढ रहा है कि कुछ संस्‍कार सनातन धर्म के हिसाब से और कुछ आर्य समाज के हिसाब से किए जाते हैं। यह स्थिति श्रेययस्‍कर कदापि नहीं। निजी सुविधा , धार्मिक कृत्‍यों पर अविश्‍वास और आर्थिक कारणों से अव्‍यवस्‍था निरंतर फैल रही है। मनुष्‍य को एक धर्म या संप्रदाय के अनुसार अपनी जीवनप्रणाली निश्चित करनी चाहिए। हम सनातनधर्मी हैं और उसके अनुसार संस्‍कार करके ही संसार की सर्वोत्‍तम संस्‍कृति का निर्माण कर सके हैं। अत: सनातन धर्म के अनुसार संस्‍कार करने में हमारी भलाई है। संस्‍कार एक शिक्षा है और कर्मकांड एक विधि। देश , काल , पात्र और परिस्थिति के अनुसार कर्मकांड में सुधार हो सकता है , पर संस्‍कार नियत है। कर्मकांड विवेचना एक विस्‍तृत विषय है और इसपर आज की विशेष परिस्थिति में विद्वज्‍जन ही प्रकाश डाल सकते हैं। 




शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

हमारे संस्‍कार ( खत्री हरिमोहन दास टंडन जी) ... भाग . 1

हमारे संस्‍कार 

संस्‍कृत कोष के अनुसार संस्‍कार का मुख्‍य अर्थ है .. शिक्षा , अनुशीलन , मानासक प्रशिक्षण , अन्‍त: शुद्धि , पवित्रिकरण , पुनीत कृत्‍य , श्रंगार , चमकाना आदि। मनुष्‍य का प्रशिक्षण आ पवित्रिकरण कर उसको अधिक से अधिक चमकाना , मानव चरित्र का परिमार्जन कर उसके अंदर सद्भावना , सत्‍य , अहिंसा , दया , सहनशीलता आदि सद्गुणों का विकास करना ही संस्‍कार का उद्देश्‍य है। यह एक लंबी कष्‍टसाधन प्रक्रिया है , जिसके द्वारा किसी जाति या समाज की पहचान बनती है और यही पहचान संस्‍कृति कहलाती है। 


भारतीय मनीषीयों ने चिंतन , मनन और अनुभव के द्वारा मानव जीवन का उद्देश्‍य , उसका लक्ष्‍य तथा उसके स्‍वरूप का निश्‍चय किया। पशुजगत में व्‍याप्‍त मनोविकारों , मोह आदि के आकर्षणों से मन को हटाकर सत्‍यानुभूति की ओर उन्‍मुख करने की चेष्‍टा ऋषियों ने की अर्थात् मनुष्‍य को कतिपय संस्‍कारों से शुद्ध कर उसे शाष्‍वत मूल्‍यों को ग्रहण करने की प्रेरणा दी। सृष्टि संचालन के ध्‍येय से भौतिकता का महत्‍व स्‍वीकार करते हुए परमतत्‍व की प्राप्ति को जीवन का लख्‍य निर्धारित किया गया। इस तरह नश्‍वरता से अनश्‍वरता की ओर बढने का प्रयास आध्‍यात्मिकता का आधार है। यह भारतीय संस्‍कृति की विशिष्‍टता है , उसकी पहचान है। सनातन सत्‍य की खोज और ज्ञान का निरंतर परिष्‍कार सनातन धर्म की शक्ति है। श्री हरिभाई उपाध्‍याय के शब्‍दों में ‘ जो मार्ग , जो विधि , जो क्रिया हमें ईश्‍वरत्‍व की ओर ले जाती है , वही हिंदू संस्‍कृति , आर्य संस्‍कृति , सज्‍जन संस्‍कृति और सुसंस्‍कृति है।‘ इसके अंतर्गत ही आचार , व्‍यवहार तथा विचार .. सभी का समावेश होता है।

मानव जीवन को पवित्र और उत्‍कृष्‍ट बनाने वाले आध्‍यात्मिक उपचार का नाम संस्‍कार है। वह श्रेष्‍ठता की ओर बढने हेतु किया गया संकल्‍प है। कर्म सिद्धांत के कारण हमने जीवन में संयम , नियम , त्‍याग , प्रेम , अहिंसा , दान , दया , क्षमा और सहिष्‍णुता आदि गुणों को आवश्‍यक मान लिया। भारतीय संस्‍कृति में संयुक्‍त परिवार , विश्‍व बंधुत्‍व , विविधता में एकता आदि अनेक गुण ऐसे हैं , जो उसे अबाध गति से विकास करने में सहायक हैं।शरीर , इंद्रियां , मन , बुद्धि , चित्‍त आदि .. इन सबके अत्‍यधिक उत्‍कर्ष तक संस्‍कार होते हैं। योग , जप , तप आदि सभी संस्‍कार ही हैं। मोटे तौर पर संस्‍कार दो प्रकार के होते हैं .. मलापनयन और अतिशयाधान। दर्पण को किसी चूर्ण या साबुन से साफ करने को मलापनयन संस्‍कार कहते हें। तेल या रंग द्वारा हाथी के मस्‍तक या काठ या धातु की वस्‍तु को चमकाना या सुंदर बनाना को अतिशयाधान संस्‍कार कहते हैं। 48 संस्‍कारों में कुछ के ारा शारीरिक और मानसिक मल , पाप , अज्ञान आदि का अपनयन और कुछ के द्वारा पवित्रता , शुद्धि , विद्या आदि की अतिशयता का प्रयास किया जाता है।

संस्‍कार और रीति रिवाज में फर्क है। रीति रिवाज परिवार या समाज के सुख , दुख , उत्‍साह , संबंध , शुभशुभ आदि के प्रदर्शन से जनम लेते हैं। पुत्र जनम , विवाह आदि अवसरों पर संबंधियों को भेंट देना , तन्‍नी या मंडप के नीचे हल्‍दी तोडना , सेहरा बांधना , मृत्‍यु होने पर महापात्र को दान देना , वर्षभर ब्राह्मण को भोजन कराना कब्र में मूल्‍यवाण वस्‍तुओं को रखना इत्‍यादि रीति रिवाज हैं। संस्‍कारों का विधान शास्‍त्रों में वर्णित है। वर्णों के अनुसार उसमें यत्किंचित भेद तो है , पर मूलभूत विधान में एकता है। देश , काल और परिस्थिति क कारण रीति रिवाजों में सदा परिवर्तन होता रहा है और आगे भी होता रहेगा , पर सनातन धर्म की रक्षा संस्‍कारों द्वारा ही संभव है। संस्‍कार बदलने या त्‍याग देने से धर्म या संप्रदाय ही बदल जाता है। वर्तमान काल में आर्य समाज , ब्रह्म समाज , राधास्‍वामी , सिक्‍ख आदि संप्रदायों का जनम इसी प्रकार हुआ है। किसी भी धर्म या संप्रदाय में दीक्षित होने से पहले और बाद में कुछ संस्‍कार होते हैं , पर सभी धर्मों के मूलभूत सिद्धांत एक ही हैं। जीव दया , दान , सहिष्‍णुता , संयम , समता , परस्‍पर सहानुभूति आदि को ग्रहण करने का उपदेश सभी धर्म देते हैं। वैदिक काल के अबतक प्रचलित हिंदू धर्म के स्‍तंभ प्रधान रूप से 16 संस्‍कार हैं।

सनातन धर्म मनुष्‍य मात्र में समता भावना की शिक्षा देता है। ‘सियाराम मय सब जग जानि’ या ‘सर्वे भवन्‍तु सुखिन:’ आदि वाक्‍य समता के उद्घोषक हैं। समय समय पर बौद्धिक और शारीरिक शक्ति संपन्‍न वर्ग ने निर्बल वर्ग को हीन दृष्टि से देखा है। फलत: महान व्‍यक्तियों का प्रादुर्भाव होता है। श्रीराम ने न केवल शक्तिशाली , वरन् अत्‍याचारी रावण से समाज को मुक्ति दिलायी। उन्‍होने निषाद , शबरी , वानर , रीछ आदि उपेक्षित जातियों के बीच भाईचारे की भावना पैदा की थी। कृष्‍ण ने न केवल अत्‍याचारी कंस , शिशुपाल , जरासंध , आदि को नष्‍ट किया , उन्‍होने ग्रामीण जीवन में जुडे उपेक्षित समाज को भी निर्भय कर सम्‍मान दिलाया। गौतम बुद्ध आदि युगपुरूषों ने राजवैभव को तुच्‍छ मानकर अहिंसा , दया , समता का प्रचार किया। धर्म की रक्षा निरंतर होती रहे, समाज और देश में शांति बनीं रहे , और अत्‍याचार पर अंकुश लगा रहे .. इस उद्देश्‍य से क्षत्रियों को उसके नियंत्रण की जिम्‍मेदारी सौंपी गयी। उसके लिए एक सूत्र बना.. धर्मों रक्षति रक्षिता’ अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है , उसकी रक्षा धर्म करता है। क्षत्रियों ने अपने कर्तब्‍य का सदा पालन किया। यदि उन्‍होने कभी धर्म की उपेक्षा की , तो उन्‍हें ही कष्‍ट भी झेलना पडा , सजा भुगतनी पडी। आज हम पुन: संक्रांति काल से गुजर रहे हैं , क्‍युंकि हम अपने धर्म के मूलाधार संस्‍कारों की उपेक्षा करने मे अपना बडप्‍पन समझते हैं।


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बुधवार, 10 नवंबर 2010

महाशिवरात्रि का महत्व .. भाग 10 .. खत्री लक्ष्‍मण नारायण टंडन जी

महाशिवरात्रि का महत्व



फाल्‍गुन माह के कृष्‍ण पक्ष की चतुदर्शी को शिव रात्रि होती है। शिव की पूजा बेलपत्र से की जाती है और व्रत रखा जाता है। आज के दिन शिव जी का विवाह हुआ था। कुछ लोग रात्रिभर जगते हैं और शिव जी के भजन गाते रहते हैं। कुछ स्त्रियां तो शिवरात्रि के बाद वाले दिन में भी व्रत रखती हैं। किंतु रात में मंदिरों में नहीं जाती। धतुरा भंग बेलपत्र फूल फल , घी का दीपक आदि से पूजा की जाती है तथा उसपर जल , चंदन , अक्षत , पुष्‍प आदि चढाया जाता है। बम बम भोला महादेव के साथ श्रृंगी बजाकर शिव भिक्षुक भिक्षा मांगते हैं। उन्‍हें रोटी , दाल , चावल और कढी के साथ तरकारी और पापड भी दिया जाता है।


पूर्णमासी को होलिका दहन होता है। प्रात: काल धुरेरी से नया वर्ष मनाया जाता है , आज के दिन हिरण्‍यकशिपु की बहन होलिका अग्नि में जल मरी थी। रबी फसल कट जाने था जाडे की समाप्ति और ग्रीष्‍म ऋतु लगने की खुशी में यह त्‍यौहार मनाया जाता है। नया अन्‍न उत्‍पन्‍न होने की खुशी में कृषक भी खूब गाते बजाते तथा रंग खेलते हैं। होलिका में चना , गेहूं आदि की हरी डाली जलायी जाती है , कहीं कहीं तो एक सप्‍ताह पूर्व से ही लोग होली और धमार गाते हैं , रंग खेलते और खुशियां मनाते हैं। कुछ लोग भांग खाते हैं तो कुछ गालियां बकते, तथा गंदे गीत और कबीर गाते हैं। कहते हैं कि आज सब माफ है। गुलाल अबीर की जगह कीचड भी उछालते इस बुराई के मुक्‍त होने पर यह पर्व अत्‍यंत आनंदमय होगा।





क्‍या ईश्‍वर ने शूद्रो को सेवा करने के लिए ही जन्‍म दिया था ??

शूद्र कौन थे प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर थी, पर धीरे-धीरे यह व्यवस्था जन्म आधारित होने लगी । पहले वर्ण के लोग विद्या , द...