प्राचीन भारत में भले ही आनेवाली पीढी को अपने पेशे में अधिक पारंगत बनाए जाने के ख्याल से अपनी बिरादरी में ही शादी विवाह किए जाने की प्रथा थी , पर सभी बिरादरी के लोगों का आपस में बहुत ही स्नेहिल संबंध रहा करता था। इस संबंध को और मजबूत बनाए जाने के लिए हर आयु वर्ग के लोग या दो परिवार के लोग आपस में एक विशेष रिश्ते से जुडते थे। पूरे भारत वर्ष की बात तो मैं नहीं कह सकती , पर झारखंड और बिहार में एक दूसरे बिरादरी के अपने दोस्तो और सहेलियों को पूरे नियम के साथ 'सखा' और 'फूल' बनाए जाने की प्रथा थी। 'सखा' और 'फूल' अपनी बिरादरी के बच्चों को नहीं बनाया जाता था। दूसरी बिरादरी के जिन दो किशोर या युवा बच्चों या बच्चियों के विचार मिलते थे , जिनमें प्रगाढ दोस्ती होती थी , उनके मध्य ये संबंध बनाया जाता था। एक आयोजन कर इस संबंध को सामाजिक मान्यता दी जाती थी और दोनो परिवारों के मध्य पारस्परिक संबंध वैसा ही होता था , जैसा अपने समधियाने में होता था।आजीवन मौसम के सभी त्यौहारों में उनके मध्य अनाज , फल फूल और पकवानों का लेनदेन हुआ करता था।
ताज्जुब की बात तो यह है कि ऐसे संबंध सिर्फ हिन्दु परिवारों के विभिन्न बिरादरी के मध्य ही नहीं थे , कुछ क्षेत्रों में अलग अलग धर्मों वाले परिवारों के भी आपस में भी ऐसे संबंध हुआ करता था। प्रत्येक परिवार के प्रत्येक बच्चे का कोई न कोई 'फूल' या 'सखा' हुआ करता था , जिसका चुनाव करते समय बिरादरी और धर्म को खास महत्व दिया जाता था। इस संबंध को बनाते समय उसके स्तर को भी नहीं देखा जाता था। इसके अलावे लोग ऐसी व्यवस्था करते थे कि अधिक से अधिक बिरादरी और धर्म के परिवारों से अपने संबंध मजबूत बनाया जा सके। पारस्परिक सौहार्द बढाने में इस व्यवस्था के महत्व को आज भी समझा जा सकता है। ऐसी स्थिति में हर शादी विवाह या अन्य प्रकार के कार्यक्रमों में आपस में आना जाना , लेन देन , खाना पीना सब होता था। धीरे दूसरे क्षेत्र में लोगों की व्यस्तता की वजह से ये सारी परंपराएं समाप्त हो गयी और धीरे धीरे सामाजिक सौहार्द भी घटने लगा है। अपने अपने काम की व्यस्तता में अब तो संबंधों का कोई आधार ही नहीं रह गया है। लेकिन प्राचीन भारत की इस परंपरा के सकारात्मक प्रभाव से इंकार तो नहीं किया जा सकता।
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6 टिप्पणियां:
मेरे लिए यह नई जानकारी रही. धन्यवाद.
bahut achchhi jankari di hai....badhai
संगीता जी-अपने जाति समाज से इतर पारिवारिक संबध निर्मित करने के लिए यह व्यवस्था भारत के कई प्रदेशों मे प्रचलित है जिन्हे विभिन्न नामो से जाना जाता है। जैसे फ़ुल, सखा-सखी, भायला-भायली, गंगाजल, महाप्रसाद-महाप्रसादिन, मितान, सहिनाव, इन संबंधो को बहुत ही सम्मान दिया जाता है और यहां तक की,इन सम्बधों के निर्माण के बाद एक दुसरे का नाम नही ले, उन्हे इन्ही नामों से पु्कारा जाता है, जैसे हमारे मितान, हमारे गंगाजल, हमा्रे महाप्रसाद, इत्यादि, आपने बढिया जानकारी दी- आभार
बहुत सुंदर जानकारी, शायद पंजाब मै भी कोई ऎसी ही प्रथा हो? लेकिन मुझे नही पता, मैरा बचपन तो अलग अलग राज्यो मै बीता; ओर फ़िर यहां.
एक जानकारी मिली.
यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।
हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.
मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.
नववर्ष में संकल्प लें कि आप नए लोगों को जोड़ेंगे एवं पुरानों को प्रोत्साहित करेंगे - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।
निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।
वर्ष २०१० मे हर माह एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।
आपका साधुवाद!!
नववर्ष की अनेक शुभकामनाएँ!
समीर लाल
उड़न तश्तरी
संगीता जी
हमारे यहाँ तो गाँवो में आज भी यः प्रथा है और मेरी साँस कि धर्म सखी अभी तक पारिवारिक परम्पराओ को उसी गर्माहट के साथ निभा रही है |आपका बहूत बहूत धन्यवाद जो आपने ऐसी परम्पराओ से सबको अवगत करवाया .
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