नवल वर्ष के नव प्रभात में , भाग्य सूर्य मुस्काए ।
नव विचार हो भक्ति अटल हो , देश प्रेम सरसाए।।
अंत:करण शुद्ध हो सात्विक , 'मंजु' मधुर मुस्कान।
मंगलमय नववर्ष आपका , पावन ललित ललाम।।
लेखक .. खत्री कैलाश जलोटा जी
पहले सच्चे इंसान, फिर कट्टर भारतीय और अपने सनातन धर्म से प्रेम .. इन सबकी रक्षा के लिए ही हमें स्वजातीय संगठन की आवश्यकता पडती है !! khatri meaning in hindi, khatri meaning in english, punjabi surname meanings, arora caste, arora surname caste, khanna caste, talwar caste, khatri caste belongs to which category, khatri caste obc, khatri family tree, punjabi caste surnames, khatri and rajput,
गुरुवार, 31 दिसंबर 2009
बुधवार, 30 दिसंबर 2009
इस टिप्प्णी से सिद्ध होता है कि हर बात के अच्छे और बुरे दो पक्ष होते हैं !!
'हमारा खत्री समाज'में प्रकाशित एक आलेख 'नवदम्पत्ति स्वागतार्थ आयोजित प्रीति भोज में एक गिफ्ट काउंटर शालीन है या हास्यास्पद ??' में आदरणीय समीर लाल जी की एक टिप्पणी मिली....
Udan Tashtari said...
इसे हमारे यहाँ गिफ्ट नहीं, नवेद कहते हैं. इस उद्देश्य दिखावा नहीं, बल्कि जो भी व्यक्ति अपने बेटा या बेटी की शादी कर रहा है, उसकी मदद करना, उसके खर्च में समाज का हिस्सा डालना होता था. सब अपनी औकात और संबंधों के मुताबिक मदद करते थे. इसको नोट करने का एक मात्र कारण होता था कि से बिना सूद का कर्ज माना जाता था कि आज तुमने मेरी मदद की है, कल जब तुम पर ऐसे खर्च का भार आयेगा तो मैं तुम्हारी भी वैसे ही मदद करुँगा. यदि किसी ने आज से बीस साल पहले आपको १०१ रुपये दिये जबकि नार्मल प्रचलन २१ रुपये नवेद का था, तो आज आप उसके परिवारिक आयोजन में १००१ देकर कर्ज उतारते हैं या मदद के प्रति अहसान व्यक्त हैं इस टोकन राशि से.
समय के साथ साथ खर्चों में इजाफा हुआ. पहले एक मेहमान को खिलाने में २० रुपये लगते थे और आज २०० से ५०० तो नवेद या मदद की राशि भी उसी अनुपात में बढ़ती गई.
लोगों के सबंध और सामाजिक दायरे में इजाफा हुआ है. आज १०/२० मेहमान तो आते नहीं. तादाद हजारों में होने लगी है. ऐसे में मिखिया को व्यक्तिगत रुप से नवेद सौंपना और उसका उसे याद रखना कठिन कार्य हो गया और इसका बेहतर तरीका काऊन्टर बना कर नवेद या मदद को समूचित एवं व्यवस्थित रुप से नोट कर लेना लगा.
इसमें हास्य बोध जैसी तो कोई बात नहीं दिखती.
याद करें तो पहले पंगत में बिठा कर खिला देते थे किन्तु आज की वेशभूषा और मेहमानों की संख्या देखते हुए पंगत संभव नहीं है तो बफे सिस्टम चालू हो गया. यूँ तो फिर वो भी हास्य का विषय बन सकता था किन्तु किया सहूलियत के लिए ही गया.
ये मात्र मेरे विचार है. कोई विरोध नहीं.
इसके बाद मुझे लगता है कि जब सारे लोगों का स्तर एक था और सारा समाज अपना होता था , सबके दुख सुख अपने होते थे , तो इस परंपरा का पालन करना निमंत्रित किए जा रहे व्यक्ति के लिए बहुत आसान भी था और निमंत्रण देनेवालों के लिए सुविधाजनक भी । पर लोगों के स्तर की भिन्नता और स्वार्थ के कारण आज यह परंपरा एक भार बन गयी है , इस तरह समय के साथ हर बात के अच्छे और बुरे दोनो पक्ष होते हैं ।
Udan Tashtari said...
इसे हमारे यहाँ गिफ्ट नहीं, नवेद कहते हैं. इस उद्देश्य दिखावा नहीं, बल्कि जो भी व्यक्ति अपने बेटा या बेटी की शादी कर रहा है, उसकी मदद करना, उसके खर्च में समाज का हिस्सा डालना होता था. सब अपनी औकात और संबंधों के मुताबिक मदद करते थे. इसको नोट करने का एक मात्र कारण होता था कि से बिना सूद का कर्ज माना जाता था कि आज तुमने मेरी मदद की है, कल जब तुम पर ऐसे खर्च का भार आयेगा तो मैं तुम्हारी भी वैसे ही मदद करुँगा. यदि किसी ने आज से बीस साल पहले आपको १०१ रुपये दिये जबकि नार्मल प्रचलन २१ रुपये नवेद का था, तो आज आप उसके परिवारिक आयोजन में १००१ देकर कर्ज उतारते हैं या मदद के प्रति अहसान व्यक्त हैं इस टोकन राशि से.
समय के साथ साथ खर्चों में इजाफा हुआ. पहले एक मेहमान को खिलाने में २० रुपये लगते थे और आज २०० से ५०० तो नवेद या मदद की राशि भी उसी अनुपात में बढ़ती गई.
लोगों के सबंध और सामाजिक दायरे में इजाफा हुआ है. आज १०/२० मेहमान तो आते नहीं. तादाद हजारों में होने लगी है. ऐसे में मिखिया को व्यक्तिगत रुप से नवेद सौंपना और उसका उसे याद रखना कठिन कार्य हो गया और इसका बेहतर तरीका काऊन्टर बना कर नवेद या मदद को समूचित एवं व्यवस्थित रुप से नोट कर लेना लगा.
इसमें हास्य बोध जैसी तो कोई बात नहीं दिखती.
याद करें तो पहले पंगत में बिठा कर खिला देते थे किन्तु आज की वेशभूषा और मेहमानों की संख्या देखते हुए पंगत संभव नहीं है तो बफे सिस्टम चालू हो गया. यूँ तो फिर वो भी हास्य का विषय बन सकता था किन्तु किया सहूलियत के लिए ही गया.
ये मात्र मेरे विचार है. कोई विरोध नहीं.
इसके बाद मुझे लगता है कि जब सारे लोगों का स्तर एक था और सारा समाज अपना होता था , सबके दुख सुख अपने होते थे , तो इस परंपरा का पालन करना निमंत्रित किए जा रहे व्यक्ति के लिए बहुत आसान भी था और निमंत्रण देनेवालों के लिए सुविधाजनक भी । पर लोगों के स्तर की भिन्नता और स्वार्थ के कारण आज यह परंपरा एक भार बन गयी है , इस तरह समय के साथ हर बात के अच्छे और बुरे दोनो पक्ष होते हैं ।
सोमवार, 28 दिसंबर 2009
'फूल' या 'सखा' बनाया जाना समाज के विभिन्न वर्गो के मध्य परस्पर सौहार्द लाने वाली पद्धति थी ??
प्राचीन भारत में भले ही आनेवाली पीढी को अपने पेशे में अधिक पारंगत बनाए जाने के ख्याल से अपनी बिरादरी में ही शादी विवाह किए जाने की प्रथा थी , पर सभी बिरादरी के लोगों का आपस में बहुत ही स्नेहिल संबंध रहा करता था। इस संबंध को और मजबूत बनाए जाने के लिए हर आयु वर्ग के लोग या दो परिवार के लोग आपस में एक विशेष रिश्ते से जुडते थे। पूरे भारत वर्ष की बात तो मैं नहीं कह सकती , पर झारखंड और बिहार में एक दूसरे बिरादरी के अपने दोस्तो और सहेलियों को पूरे नियम के साथ 'सखा' और 'फूल' बनाए जाने की प्रथा थी। 'सखा' और 'फूल' अपनी बिरादरी के बच्चों को नहीं बनाया जाता था। दूसरी बिरादरी के जिन दो किशोर या युवा बच्चों या बच्चियों के विचार मिलते थे , जिनमें प्रगाढ दोस्ती होती थी , उनके मध्य ये संबंध बनाया जाता था। एक आयोजन कर इस संबंध को सामाजिक मान्यता दी जाती थी और दोनो परिवारों के मध्य पारस्परिक संबंध वैसा ही होता था , जैसा अपने समधियाने में होता था।आजीवन मौसम के सभी त्यौहारों में उनके मध्य अनाज , फल फूल और पकवानों का लेनदेन हुआ करता था।
ताज्जुब की बात तो यह है कि ऐसे संबंध सिर्फ हिन्दु परिवारों के विभिन्न बिरादरी के मध्य ही नहीं थे , कुछ क्षेत्रों में अलग अलग धर्मों वाले परिवारों के भी आपस में भी ऐसे संबंध हुआ करता था। प्रत्येक परिवार के प्रत्येक बच्चे का कोई न कोई 'फूल' या 'सखा' हुआ करता था , जिसका चुनाव करते समय बिरादरी और धर्म को खास महत्व दिया जाता था। इस संबंध को बनाते समय उसके स्तर को भी नहीं देखा जाता था। इसके अलावे लोग ऐसी व्यवस्था करते थे कि अधिक से अधिक बिरादरी और धर्म के परिवारों से अपने संबंध मजबूत बनाया जा सके। पारस्परिक सौहार्द बढाने में इस व्यवस्था के महत्व को आज भी समझा जा सकता है। ऐसी स्थिति में हर शादी विवाह या अन्य प्रकार के कार्यक्रमों में आपस में आना जाना , लेन देन , खाना पीना सब होता था। धीरे दूसरे क्षेत्र में लोगों की व्यस्तता की वजह से ये सारी परंपराएं समाप्त हो गयी और धीरे धीरे सामाजिक सौहार्द भी घटने लगा है। अपने अपने काम की व्यस्तता में अब तो संबंधों का कोई आधार ही नहीं रह गया है। लेकिन प्राचीन भारत की इस परंपरा के सकारात्मक प्रभाव से इंकार तो नहीं किया जा सकता।
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ताज्जुब की बात तो यह है कि ऐसे संबंध सिर्फ हिन्दु परिवारों के विभिन्न बिरादरी के मध्य ही नहीं थे , कुछ क्षेत्रों में अलग अलग धर्मों वाले परिवारों के भी आपस में भी ऐसे संबंध हुआ करता था। प्रत्येक परिवार के प्रत्येक बच्चे का कोई न कोई 'फूल' या 'सखा' हुआ करता था , जिसका चुनाव करते समय बिरादरी और धर्म को खास महत्व दिया जाता था। इस संबंध को बनाते समय उसके स्तर को भी नहीं देखा जाता था। इसके अलावे लोग ऐसी व्यवस्था करते थे कि अधिक से अधिक बिरादरी और धर्म के परिवारों से अपने संबंध मजबूत बनाया जा सके। पारस्परिक सौहार्द बढाने में इस व्यवस्था के महत्व को आज भी समझा जा सकता है। ऐसी स्थिति में हर शादी विवाह या अन्य प्रकार के कार्यक्रमों में आपस में आना जाना , लेन देन , खाना पीना सब होता था। धीरे दूसरे क्षेत्र में लोगों की व्यस्तता की वजह से ये सारी परंपराएं समाप्त हो गयी और धीरे धीरे सामाजिक सौहार्द भी घटने लगा है। अपने अपने काम की व्यस्तता में अब तो संबंधों का कोई आधार ही नहीं रह गया है। लेकिन प्राचीन भारत की इस परंपरा के सकारात्मक प्रभाव से इंकार तो नहीं किया जा सकता।
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शनिवार, 26 दिसंबर 2009
नवदम्पत्ति स्वागतार्थ आयोजित प्रीति भोज में एक गिफ्ट काउंटर शालीन है या हास्यास्पद ??
मैं वैवाहिक आमंत्रण पर वर यात्रा में एक संबंधी के यहां गया। परिवार के दो लोग हाथ में बकायदा बैग , कलम और कॉपी लिए सचल डिपॉजिट काउंटर बने हुए थे। एक नवदम्पत्ति स्वागतार्थ आयोजित प्रीति भोज में , जहां बुफे सिस्टम से खाने पीने के काउंटर बने थे , वहीं एक गिफ्ट काउंटर भी बना था , जहां लिफाफे और पैकेट स्वीकार करने के लिए एक सज्जन बैठे थे। यह कितना शालीन था या हास्यास्पद यह सोंचिए। पर मुझे बहुत दिनों से चुभनेवाले विषय पर कुछ लिखने को मिल गया।
अभी नवम्बर माह में ही मुझे विवाह के 38 कार्ड मिल चुके हैं। अभी आगे और आएंगे। पूरे साल की गणना करूं , तो दो सौ से कम आमंत्रण न होंगे। जितनी बडी समस्या सभी जगह जाने की नहीं होती , उतनी बडी समस्या व्यवहार देने की होती है। आज परिचय संपर्क , सामाजिक दायरे व रिश्तेदारियों के कारण आमंत्रणों का विस्तार होता जा रहा है। अधिकांश लोगों के सामने समस्या अपना सम्मान बचाने की हो जाती है। महंगाई का जमाना , सीमित आय , जिसमें सिर्फ परिवार चला सकें , जिनका कोई व्यापार नहीं या रिटायर्ड हों , तो कैसे निबटे इस समस्या से। लेन देन भी इतना बढ गया है कि लिफाफे में कम कैसे रखा जाए। याादी के अलवे भी मुंडन , जनेऊ जैसे अवयर होते हैं। शादी की सालगिरह का फैशन हो गया है। बच्चे के जन्मदिन का व्यवसायीकरण हो गया है। जहां से जितना आया है , वहां उतना ही देना है तो इसे याद कैसे रखें ?
यह समस्या आज बहुतों को उद्वेलित कर रही है। इसका निदान चाहिए। लोगों को स्वयं ये बढावा दिखावा समाप्त करना चाहिए। लेन देन पर कुछ अंकुश हो यानि लेन देन बिल्कुल रिश्तेदारी तक ही सीमित हो और रकम भी मर्यादा में हो। खत्री भाई सामाजिक सामाजिक सुधार लाने के लिए इसकी पहल करें , स्थानीय सभाएं ऐसे स्वस्थ प्रस्ताव पारित करें , इसके लिए विनम्र आंदोलन करें , जिससे आमंत्रण पानेवाले की कठिनाई और सोंच दूर होगी। निमंत्रण देने वालों की भी शोभा बढेगी ख् क्यूंकि लेन देन की कठिनाई के कारण बहुत से लोग इन विवाह समारोहों में जाना टाल देते हैं। धीरे धीरे अन्य लोगों में भी इसका प्रचार प्रसार किया जाए और समाज के लोगों को एक बडी समस्या से मुक्ति मिले।
लेखक ... खत्री संत कुमार टंडन 'रसिक' जी
अभी नवम्बर माह में ही मुझे विवाह के 38 कार्ड मिल चुके हैं। अभी आगे और आएंगे। पूरे साल की गणना करूं , तो दो सौ से कम आमंत्रण न होंगे। जितनी बडी समस्या सभी जगह जाने की नहीं होती , उतनी बडी समस्या व्यवहार देने की होती है। आज परिचय संपर्क , सामाजिक दायरे व रिश्तेदारियों के कारण आमंत्रणों का विस्तार होता जा रहा है। अधिकांश लोगों के सामने समस्या अपना सम्मान बचाने की हो जाती है। महंगाई का जमाना , सीमित आय , जिसमें सिर्फ परिवार चला सकें , जिनका कोई व्यापार नहीं या रिटायर्ड हों , तो कैसे निबटे इस समस्या से। लेन देन भी इतना बढ गया है कि लिफाफे में कम कैसे रखा जाए। याादी के अलवे भी मुंडन , जनेऊ जैसे अवयर होते हैं। शादी की सालगिरह का फैशन हो गया है। बच्चे के जन्मदिन का व्यवसायीकरण हो गया है। जहां से जितना आया है , वहां उतना ही देना है तो इसे याद कैसे रखें ?
यह समस्या आज बहुतों को उद्वेलित कर रही है। इसका निदान चाहिए। लोगों को स्वयं ये बढावा दिखावा समाप्त करना चाहिए। लेन देन पर कुछ अंकुश हो यानि लेन देन बिल्कुल रिश्तेदारी तक ही सीमित हो और रकम भी मर्यादा में हो। खत्री भाई सामाजिक सामाजिक सुधार लाने के लिए इसकी पहल करें , स्थानीय सभाएं ऐसे स्वस्थ प्रस्ताव पारित करें , इसके लिए विनम्र आंदोलन करें , जिससे आमंत्रण पानेवाले की कठिनाई और सोंच दूर होगी। निमंत्रण देने वालों की भी शोभा बढेगी ख् क्यूंकि लेन देन की कठिनाई के कारण बहुत से लोग इन विवाह समारोहों में जाना टाल देते हैं। धीरे धीरे अन्य लोगों में भी इसका प्रचार प्रसार किया जाए और समाज के लोगों को एक बडी समस्या से मुक्ति मिले।
लेखक ... खत्री संत कुमार टंडन 'रसिक' जी
शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009
यश रूपी सुगंध के फैलने से कपूर गोत्र की उत्पत्ति नहीं हुई है !!
बाल कृष्ण जी के खत्रीय इतिहास में कपूर की उत्पत्ति के बारे में जो कथा लिखी गयी है , उसके अनुसार एक खत्री महापुरूष अत्यंत उदार तथा परोपकारी थे। निर्धन और आवश्यकता पीडित व्यक्ति की वे खुले हाथ यथा शक्ति सहायता करते थे। शीघ्र ही दूर दूर तक उनकी यशोकीर्ति फैल गयी। चूंकि कपूर की सुगंधि शीघ्र ही फैल जाती है , इसी से लोगों ने उन्हें कपूर नाम से पुकारना शुरू कर दिया। उसके बाद उनके वंशज कपूर कहलाने लगे।
यह किंवदंती भी व्यक्तिवाचक है और इसके आधार पर अल्ल समूह की व्युत्पत्ति नहीं हो सकती। कपूर अल्ल सोम या चंद्र वंश के पर्यायवाची 'कर्पूर' के नाम से अत्यंत प्राचीन काल से प्रचलित था। अमर कोष तो चंद्र के सारे नामों को कर्पूर का नाम सिद्ध करती है। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में भी कर्पूरायण शाखा वाले की चर्चा है। पं गोविंद नारायण मिश्र ने भी 'सारस्वत सर्वस्य' में लिखा है कि कार्पूरि गोत्र के कारण क्षत्रियों की संज्ञा कपूर हो गयी। पंजाबी भाषा में संस्कृत के संयुक्त 'र' का लोप हो जाने से यही कर्पूर शब्द बोलचाल में ही नहीं , लिखने में भी कपूर हो गया। अत: यह भी सप्रमाण अत्यंत प्राचीन काल से ही सिद्ध हैं कि कपूर अल्ल सूर्यवंशी मेहरोत्रा अल्ल की भांति ही चंद्र वंश की कपूर नाम से ज्ञात प्रमुख शाखा है , जिसका आरंभ सोम पुत्र बुध के पुत्र राजा पुरूरवा से माना जाता है।
लेखक ... खत्री सीता राम टंडन
यह किंवदंती भी व्यक्तिवाचक है और इसके आधार पर अल्ल समूह की व्युत्पत्ति नहीं हो सकती। कपूर अल्ल सोम या चंद्र वंश के पर्यायवाची 'कर्पूर' के नाम से अत्यंत प्राचीन काल से प्रचलित था। अमर कोष तो चंद्र के सारे नामों को कर्पूर का नाम सिद्ध करती है। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में भी कर्पूरायण शाखा वाले की चर्चा है। पं गोविंद नारायण मिश्र ने भी 'सारस्वत सर्वस्य' में लिखा है कि कार्पूरि गोत्र के कारण क्षत्रियों की संज्ञा कपूर हो गयी। पंजाबी भाषा में संस्कृत के संयुक्त 'र' का लोप हो जाने से यही कर्पूर शब्द बोलचाल में ही नहीं , लिखने में भी कपूर हो गया। अत: यह भी सप्रमाण अत्यंत प्राचीन काल से ही सिद्ध हैं कि कपूर अल्ल सूर्यवंशी मेहरोत्रा अल्ल की भांति ही चंद्र वंश की कपूर नाम से ज्ञात प्रमुख शाखा है , जिसका आरंभ सोम पुत्र बुध के पुत्र राजा पुरूरवा से माना जाता है।
लेखक ... खत्री सीता राम टंडन
गुरुवार, 24 दिसंबर 2009
मेहरा , मेहरोत्रा या मल्होत्रा गोत्र की उत्पत्ति की कहानी हास्यास्पद ही है !!
mehra surname belongs to which cast
पं द्वारका प्र तिवारी जी के द्वारा लिखित 'खत्री कुल चंद्रिका' में लिखा मिलता है कि एक खत्री साहब को अपने साहबजादे की शादी में बहुत दहेज मिला , जिससे खुश होकर वे बहू को गोद में लेकर मंडप में ही नाचने लगे। यह हरकत देखकर लोग हंसने लगे और उसे महरा यानि जनाना के नाम से पुकारा , इससे उनकी औलाद मेहरा कहलाने लगी। कहा जाता है कि शादी में खत्रियों में बहूओं को नचाने का दौर उसी समय आरंभ हुआ।
यह तथाकथित किवंदंती कितनी हास्यास्पद है , यह तो पढने के बाद ही मालूम हो जाता है। मारे खुशी से बहू को नचाने की घटना तो सत्य हो सकती है , पर यह घटना संपूर्ण अल्ल की उत्पत्ति का कारण नहीं बन सकती। यदि ऐसी बात होती तो इस घटना की चर्चा के साथ यह तो बताया जाता कि उक्त घटना से पहले वे लोग किस अल्ल के थे। खत्रियों की अल्ल में ऊंची मानी जाने वाली 'मेहरोत्रा' अल्ल की प्रत्यक्ष सूर्यवंशी सप्रमाण उत्पत्ति के किसी कारण पर विचार करती है , जबकि 'वितर्क नार्त मार्कण्डमिहिरारूण पूषण:' अमर कोष की व्युत्पत्ति के अनुसार मेहरोत्रा अल्ल 'मिहिरोत्तर' से संबंधित है। मेहरोत्रा इसी शब्द का अपभ्रंश है। मेहरा सूक्ष्म नाम है तथा मल्होत्रा सी का परिवर्तित रूप है।
अत्यंत प्राचीन काल में सूर्य वंश के लिए मिहिर वंश का प्रयोग होता आ रहा है , जिसका प्रमाण राजतरंगिणी जैसे अनेक ऐतिहासिक ग्रंथों में भी है। कुछ विद्वान मिहिरावतार का ही अपभ्रंश 'मेहरोत्रा' को मानते हें। गोत्र निर्णय से भी प्राचीन काल में मिहिर क्षत्रियों के पुरोहित वशिष्ठ के पुत्र 'जीतल' के वंशज जीतली सारस्वत ब्राह्मण आजतक मेहरोत्रा खत्रियों के भी पुरोहित रहे हैं। वास्तव में इस मेहरोत्रा अल्ल की इस सूर्यवंशी शाखा की प्रामाणिकता के लिए इतने प्रमाण मिले हैं कि किसी प्रकार की किवंदंती आधारहीन और असत्य सिद्ध हो जाती है।
लेखक ... खत्री सीता राम टंडन
सोमवार, 21 दिसंबर 2009
अपने हित के लिए जातिय संगठन अपने अपने पेशे के लिए नवीनतम तकनीक की मांग करें !!
jathi pratha essay
जिस तरह भौगोलिक दृष्टि से विश्व को राष्ट्रों में , राष्ट्रों को राज्यों में , राज्यों को जिलों में , जिलों को ब्लॉकों में और ब्लॉकों को गांवों में बॉटकर अच्छी शासन व्यवस्था हो सकती है , उसी प्रकार सामाजिक व्यवस्था के चुस्त दुरूस्त रहने के लिए समाज की एक एक इकाई का महत्व है। ये इकाइयां किसी भी आधार पर रखी जा सकती हैं , पर समाज का पेशे के अनुसार बंटवारा सर्वाधिक उपयुक्त होता है , जो काम बच्चे बचपन से होते देखते हैं , वो काम उनके लिए तो महत्व रखता ही है , अभिभावक भी अपने ही क्षेत्र में बच्चों की योग्यता को देखना चाहते हैं। यही कारण है कि कालांतर में एक ही पेशेवाले एक दूसरे को अधिक पसंद करने लगते हैं और क्रमश: वे समाज की एक इकाई के रूप में संगठित हो जाते हैं। भारतीय समाज में इसी कारण एक जैसे पेशों वाले के मध्य शादी विवाह जैसे संबंध बनाए जाते रहे और जाति पाति की धारणा यहीं से शुरू हुई। पर चूंकि वैज्ञानिक दृष्टि से अधिक नजदीकी संबंध आनेवाले पीढी के लिए नुकसानदेह माने जाने के कारण ऐसे संबंध भी सामाजिक तौर पर मान्यता प्राप्त नहीं होते .
पेशे के अनुसार शादी विवाह करने की प्रवृत्ति आज भी लोगों में बनीं हुई है। आज बीसवीं सदी में भी एक डॉक्टर अपना विवाह डाक्टर कन्या से ही करना चाहता है , अपने पुत्र या पुत्री को डॉक्टर ही बनाना चाहता है , फिर उनका विवाह भी डॉक्टर से ही करना चाहता है। इसी प्रकार की मानसिकता एक इंजीनियर , एक वकील , एक प्रोफेसर की भी होती है और इससे जीवन में कम समझौता करना पडता है। जहां पढे लिखे वर्ग कई कई पीढियों से अपने अपने पेशे में ही विवाह करना पसंद करते हैं , जाति पाति की बात उठाना उचित नहीं, वे कहीं भी किसी भी जाति में विवाह कर सकते हैं। कई पीढियों से अपने परंपरागत पेशों को छोड कर दूसरे पेशों से जुडे व्यक्ति भी दूसरी जाति में वैवाहिक संबंध बना सकता है, पर अपने परंपरागत पेशों से जुडे वर वधू अभी भी अपने जाति में ही रिश्ते बनाकर अधिक समायोजन कर सकते हैं, क्यूंकि बहुत सारे जातियों के 70 प्रतिशत से भी अधिक लोग आज भी अपने परंपरागत पेशे में ही संलग्न हैं।
जाति पाति के आधार पर संगठन बनने में मुझे कोई बुराई नहीं दिखती , यदि उनका लक्ष्य पूरे समाज की तरक्की हो। एक एक समाज की तरक्की से ही पूरे देश की तरक्की का रास्ता खुलता है। पर जाति से जुडा संगठन इसलिए बुरा माना जाता है , क्यूंकि इसके मुद्दे न तो राष्ट्र के हित से जुडे होते हैं और न ही अपने समाज से। उनका सारा आंदोलन समाज के 5 प्रतिशत उच्चवर्गीय लोगों के हिस्से में जाता है , उनके लिए हर सुख सुविधा का आरक्षण होता है और 95 प्रतिशत गरीबों के दिन कभी नहीं फिर पाते। वे जिन पेशों में लगे हैं , उनकी स्थिति को सुधारना जातिय आंदोलन का सबसे बडा लक्ष्य होना चाहिए , अन्यथा नेता उनके वोटों की मजबूती से अपनी स्थिति को मजबूत करते रहेंगे और उनकी हालत ज्यों की त्यों बनी रहेगी। मैं सभी जातिय संगठनों को सलाह देना चाहूंगी कि वे अपने हित के लिए अपने पेशों को नवीनतम तकनीक से युक्त करने की मांग करे , जो उनके हित के साथ साथ राष्ट्र के हित में भी होगा , क्यूंकि इससे देश की एक इकाई मजबूत हो सकती है।
शनिवार, 19 दिसंबर 2009
परिवार और समाज के निर्माण में महिलाओं की भूमिका
भौतिकतावादी मूल्यों और उपभोक्तावादी रूझान ने समाज की सद्प्रवृत्तियों को काफी चोट पहुंचायी है। आज परिवार में पहले जैसा सशक्त ताना बाना नहीं रहा , पारिवारिक रिश्तों का जबरदस्त विघटन हो रहा है। बडों के पास बच्चें का दिशा दिखाने की फुर्सत नहीं है। हर किसी का ध्येय पैसा कमाना है , उसके लिए उल्टे सीधे रास्ते पर भी चलने में किसी को हिचक नहीं होती। आश्चर्य है कि लोगों ने शराब तक को सामाजिक स्तर का बडा प्रतीक मान लिया है। ऐसे लोग अपने बच्चे तक को शराब चखाते देखे जाते हैं। घर के बडों के साथ ही जब यह खोट जुड जाए कि खुद उनमें आत्मगौरव के भावना के विकास की क्षमता नहीं रह गयी है , तो बच्चों का क्या होगा ?
आज बडे घरों के लउके लडकियां अपराधों में लिप्त पाए जाते हैं । इसकी वजह भी यही है कि कानून में वह शक्ति नहीं कि जो अपराध करेगा , किसी सूरत में बच नहीं पाएगा। देखने में आया है कि आज कानून का इस्तेमाल नहीं हो रहा है और व्यवस्था लचर हो गयी है। लोग मान चुके हैं कि पैसा दे देने पर बडे बडे अपराध से भी मुक्ति मिल सकती है। अच्छे वकील झूठे मूठे साक्ष्य से भी बडो के बिगडैल औलादों को बचा देता है। यदि कोई अपराधी किसी तरह जेल में डाल भी दिए जाएं तो अपराध करने के लिए और निश्चिंत हो जाते हैं
आज लोगों के दृष्टिकोण में विकृतियां आ गयी हैं। लोगों का नजरिया निम्न दर्जे का होता जा रहा है। इसी वजह से महिला को 'वस्तु' माना जाने लगा है। वे लोग मान चुके हैं कि महिलाओं के साथ कुछ भी व्यवहार किया जाए , कुछ नहीं होगा। आज के अवयस्क बच्चे बच्चियां शारिरीक रिश्ते बनाने में भी पीछे नहीं हटते। उन्हें लगता है कि जैसे और चीजें हैं , वैसा सेक्स भी है। उन्हें छात्र जीवन में अच्छी पढाई , आचार व्यवहार की तरु ध्यान देने में कोई दिलचस्पी नहीं होती। पहले लोगों के विद्यार्थी जीवन में सादगी और संजीदगी होती थी , वे अच्छे इंसान और चरित्रवान होने में फख्र महसूस करते थे। पर आज व्यवहार पद्धति ही बदल गयी है। मीडिया के जरिए भी सेक्स और हिंसा को बढावा दिया जा रहा है।
ऐसी हालत में महिलाओं को अपनी भूमिका को पहचानना होगा कि परिवार और समाज के निर्माण में अच्छा वातावरण कैसे बन सकता है। यह फैशन सा बन गया है कि महिलाओं के विकास की बात करते हुए हम उनके लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की बातें करते हैं। हमें इसपर ध्यान देने की कतई फुर्सत नहीं कि शिक्षा की विषयवस्तु क्या हो ? जिंदगी कैसे जी जानी चाहिए , अच्छा इंसान कैसे बना जाए , इस दिशा में चिंतन करनेवालों की संख्या घटती जा रही है। आज हमें यह बतानेवाला कोई नहीं कि अपना कर्तब्य निभाते हुए जीना सबसे बडा धर्म है। हम बखूबी समझ लें कि धर्म निरपेक्ष होना हमारा कर्तब्य नहीं , क्यूंकि सार्वभौमिक मूल्य सभी धर्मों में समान हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था में धार्मिक शिक्षा को समाहित किया जाना चाहिए। टी वी पर भी इस तरह की शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में असल जीवन को प्रतिबिम्बित करना पडेगा , तभी चरित्र निर्माण की कोशिशों को गति मिल सकेगी। यह सूकून की बात है कि महिलाएं हर क्षेत्र में निश्चय भरा कदम बढा रही हैं। उनके कार्य की गुणवत्ता उच्च स्तर की है। हम महिलाओं को मिलकर सोंचना होगा कि सारे विकास कार्यों और मूल्यों के बढने के बावजूद अपराध क्यू बढ रहे हैं ? एक महिला के प्रति समाज की सम्मानपूर्ण दृष्टि ही समाज के मूल्यों का हिफाजत कर सकती है।
(डॉ प्रोमिला कपूर , सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री के सौजन्य से )
बुधवार, 16 दिसंबर 2009
आओ हम सब मिलकर गाएं , मेहनत को आदर्श बनाएं, हम भारत के बच्चे ........
आओ हम सब मिलकर गाएं , मेहनत को आदर्श बनाएं ,
पढलिखकर हम आगे जाएं , जग में अपना नाम कमाएं,
हम भारत के बच्चे , हम भारत के बच्चे ............
कोई छुटपन से खेल खेलकर क्रिकेटा बन जाता है ,
कोई बुद्धि के बल पर डाक्टरेट की डिग्री पाता है ,
चाहे कोई भी क्षेत्र हो , परिश्रम ही काम आता है ,
हम भारत के बच्चे , हम भारत के बच्चे .............
जो बच्चे विद्यार्थी जीवन में मेहनत से घबडाते हैं ,
पूरे जीवन मेहनत करते करते वो थक जाते हैं ,
जीवन उनका व्यर्थ हो जाता , अंत में वो पडताते हैं,
हम भारत के बच्चे , हम भारत के बच्चे .............
हमें नहीं पछताना है हम मेहनत करते जाएंगे ,
विघ्न बाधाओं से ना डरकर आगे बढते जाएंगे ,
पहुंचेंगे हम उच्च शिखर पर कभी नहीं घबडाएंगे ,
हम भारत के बच्चे , हम भारत के बच्चे .............
लेखक .... श्रेय खन्ना , झरिया , धनबाद
कक्षा .... 6
मंगलवार, 15 दिसंबर 2009
उम्र दराज होने का मतलब अकेले होते जाना नहीं हैं !!
यदि आप उम्रदराज हो रहे हैं , तो इसका मतलब कतई नहीं कि आप बूढे या बेकार हो रहे हैं। यह बात सिर्फ आपके दिमाग की ऊपज है। हां , आपको कुछ बातों का ध्यान तो रखना ही पडेगा ....
अपने व्यवहार में शालीनता और गंभीरता रखते हुए आत्मविश्वास बनाए रखें , अपनी दिनचर्या में आवश्यकतानुसार बदलाव लाएं।
सामाजिक गतिविधियों में भाग लें । किसी सामाजिक संगठन के लिए काम करना शुय करें या अपने परिवारजनों , रिश्तेदारों , परिचितों , और पडोसियों की मुश्किल को आसान करने में उनकी मदद करें।
आजकल एकल परिवरों का चलन ही जोरों पर है , इसलिए उम्र बढते ही असुरक्षा का अहसास होने लगता है , इसे काटने के लिए आप आसपस के लोगों से मेलजोल अवश्य बनाएं !
यह न सोंचे कि अब जीवन में क्या बचा है। अपने जीवन में जोश पैदा करें , अपने अनुभवों के द्वारा अपनी और आसपास के युवाओं की अभिरूचियों को व्यवसाय में तब्दील करें।
हस्तकला का शौक हो तो इससे भी धनोपार्जन किया जा सकता है।
संगीत और अध्ययन में रूचि विकसित करें , यह ताउम्र हमारा साथ देती है।
अपने धन को सोंच समझकर खत्म करें , बुरे वक्त के लिए कुछ धन बचाकर रखें।
मानसिक और शारीरिक संतुलन बनाए रखें और तनाव न पालें।
उम्र बढने का यह मतलब कतई नहीं कि आप घर में बैठकर नई पीढी से कुढें और उनको कोसें , आप उनसे दोस्ती का हाथ बढाएं , अपनापन देकर देखें , वे अवश्य दोस्त बन जाएंगे।
अपनी क्षमताओं को समझने के साथ साथ अपनी कमजोरियों को भी बेझिझक स्वीकारें और उसे दूर करने की कोशिश करें।
(खत्री हितैषी से साभार)
सोमवार, 14 दिसंबर 2009
हिन्दुओं पर सांप्रदायिकता का आरोप क्या सही है ??
कोई भी धर्म देश और काल के अनुरूप एक आचरण पद्धति होता है। हर धर्म के पांच मूल सिद्धांत होते हैं, सत्य का पालन ,जीवों पर दया , भलाई , इंद्रीय संयम , और मानवीय उत्थान की उत्कंठा। लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि पूजा , नमाज , हवन या सत्संग कर लेने से उनका उत्थान नहीं होनेवाला। धर्म निरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों और ईसाईयों के मुद्दे पर देश में अनावश्यक हंगामा खडा किया जाना और राम मंदिर तथा बाबरी मस्जिद जैसे सडे प्रसंगों को तूल देना हमारा धर्म नहीं है।
आज इस राजनीतिक वातावरण के परिप्रेक्ष्य में 'हिन्दू' शब्द की जितनी परिभाषा राजनेताओं की ओर से दी जा रही हैं , उतनी परिमार्जित परिभाषा तो विभिन्न धर्म सुधारकों , विद्वानों , तथा चिंतकों ने कभी नहीं की होगी। ये सत्ता लोलुप राजनेता उस व्यक्ति विशेष , संस्था या राजनीतिक दल को तुरंत साम्प्रदायिकता का जामा पहनाने से नहीं चूकते , जो हिंदुत्व की बात करता है। यह उनकी सत्ता प्राप्ति की दौड जीतने का एक बेवकूफी भरा प्रयास ही है। ये शब्द उन करोडों लोगों को आहत करते हैं , जो अपने देश या अपनी संस्कृति से प्यार करते हैं और यदि वे सत्ता के शीर्ष पर हैं तो वह चंद लोगों की चाह नहीं , करोडों लोगों के सहयोग से हैं। नेता पहले स्वयं आत्म मंथन करें और अपनी योग्यता का आकलन करें और वही सांप्रदायिकता का पहला पत्थर फेकें , जिसने कभी भी किसी रूप में किसी विशेष संप्रदाय का समर्थन न किया हो।
हमारे देश की संस्कृति अपने आप में ही विलक्षण है , इसकी जो आत्मसात करने की प्रवृत्ति है , वो अन्यत्र दुर्लभ है। नैतिकता के हमारे नियम उदार हैं , सत्कार और परोपकार इसमें जोरदार रूप से भरा है। इतिहास भी मूक स्वर में इसका साक्षी है कि हिन्दूओं ने आजतक किसी दूसरे मुल्क में तरवार लेकर कदम नहीं रखा , यदि रखा भी है तो 'अहिंसा परमोधर्म:' का सूत्र वाक्य लेकर। हिन्दूओं ने किसी के समक्ष मृत्यु वरण या धर्म परिवर्तन का भी विकल्प नहीं रखा है। हिंदुस्तान में रहनेवाले कुछ लोगों ने भले ही विदेशी शासन काल में या अन्यान्य कारण से धर्म परिवर्तन भी कर लिया हो , पर वे अभी भी हिन्दुत्व की भावना से ओत प्रोत हैं।
पर आज हिन्दू अपने वास्तविक धर्म को भूल गए हैं , पापार्जित धन के दुष्परिणामों से बचने के लिए उसके अंशदान से वे मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे और चर्च तो बनवाते हैं , पर सामुदायिक हॉल , तालाब , कुएं और धर्मशालाएं न तो बनाते हैं और न ही उसके प्रबंधन पर ध्यान देते हैं। वे इच्छा होने पर पूजा करते है , हर जुम्मे बिना नागा के नमाज पढते है , ईसा को ध्याते है , गुरूद्वारे में माथा टेकते है , अपने धर्मस्थलों को आर्थिक अंशदान देते हैं, पर एक पंथ के हिन्दू दूसरे पंथ के हिन्दू को हीन समझते है। हिन्दू धर्म में इतने धर्म , बाबा , बैरागी , साधु, संत , मार्ग बना दिए गए हैं कि हिन्दू टुकडों टुकडों में बंट गया है, अब जरूरत है हमें एक होने की। जिस तरह आजादी प्राप्त करने के लिए हम सब मिलकर एक हो गए थे, आज की समस्याओं से निजात पाने के लिए भी हमें एक होने की आवश्यकता है।
रविवार, 13 दिसंबर 2009
हमारा जीवन वही होगा .. जो हम इसे बनाना चाहें !!
वास्तव में जीवन मिलता नहीं , जीया जाता है। जीवन स्वयं के द्वारा स्वयं का सतत् सृजन है , यह नियति नहीं , निर्माण है ।
हमारा जीवन एक पवित्र यज्ञ बन सकता है , लेकिन उन्हीं के लिए जो सत्य के लिए स्वयं की आहुति देने को तैयार रहते हैं।
हमारा जीवन एक अमूल्य अवसर बन सकता है , लेकिन उन्हीं के लिए जो साहस संकल्प और श्रम करते हैं।
हमारा जीवन एक वरदान बन सकता है , लेकिन केवल उन्हीं के लिए जो इसकी चुनौती को स्वीकारते हैं और उनका सामना करते हैं।
हमारा जीवन एक महान संघर्ष बन सकत है , लेकिन उन्हीं के लिए जो स्वयं की शक्ति को इकट्ठा कर विजय के लिए जूझते हैं।
हमारा जीवन एक भव्य जागरण बन सकता है , लेकिन उन्हीं के लिए जो निद्रा और मूर्छा से लड सकें।
हमारा जीवन एक दिब्य गीत बन सकता है , लेकिन उन्हीं के लिए जिन्होने स्वयं को मधुर वाद्य यंत्र बना लिया है।
अन्यथा जीवन एक लंबी और धीमी मृत्यु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं , जीवन वही हो जाता है , जो हम जीवन को बनाना चाहते हैं।
(खत्री हितैषी के सौजन्य से)
बुधवार, 9 दिसंबर 2009
इंसानों की जात के इतने व्यक्तियों के होते हुए देश की ऐसी दशा ??
आज हमारे देश की स्थिति बहुत ही शोचनीय है , देश में ऐसा कोई मुद्दा नहीं रह गया है , जिसपर हम गर्व कर सके। सभी धर्म , सभी संप्रदाय के लोग देश को टुकडों में बांटने की कोशिश कर रहे हैं। देश के इस स्थिति को दूर करने के उद्देश्य से मैने अपने 'खत्री समाज' के लोगों को संगठित करने के ध्येय से एक ब्लॉग बनाया , जिसमें अपने पुरखों की देशभक्ति की याद दिलाते हुए देश की आज की समस्या से निबटने के लिए आह्वान किया। मैने हिन्दू , मुस्लिम और सिख धर्म के बीच संबंध दिखाते हुए कई आलेख तक पोस्ट किए।
पर इस पोस्टसे मालूम हुआ कि हिन्दी ब्लॉग जगत के अधिकांश लोग जात पात पर विश्वास नहीं रखते, क्यूंकि वे इंसानों की जात के हैं। जानकर मेरी प्रसन्नता की सीमा नहीं रही , पर ताज्जुब भी हुआ कि इंसानों की जात के इतने लोगों के होते हुए देश की यह दशा क्यूं है। चिंतन करने पर महसूस हुआ कि लिखने और बोलने के लिए तो सारे इंसान हो सकते हैं , पर कितने ब्लॉगर इंसानियत के नियमों का पालन करते हैं , अपने शरीर , अपने मौज , अपनी पत्नी , अपना पति , अपना बच्चा, अपने माता , अपने पिता, अपना भाई , अपनी बहन , के लिए सोंचते वक्त कितने ब्लॉगरों के मनोमस्तिष्क में दूसरों का शरीर , दूसरों के मौज , दूसरों की पत्नी , दूसरों का पति , दूसरों का बच्चा , दूसरों के माता , दूसरों के पिता , दूसरों के भाई और दूसरों के बहन के बारे में सोंचते हैं।
प्राचीन काल में भी उच्च स्तर के लोगों की जाति नहीं होती थी , राजे महाराजाओं के घरों के विवाह किसी भी जाति के राजा महाराजाओं के यहां हुआ करता था। ऊपरे स्तर की जाति के लोगों को अभी भी छोड दिया जा सकता है , क्यूंकि उनके लिए कई कई पीढियों से हर सुख सुविधा के साधन एकत्रित किए गए हैं। इसलिए उनके अधिकांश लोग उन बीस प्रतिशत भारतीयों में आ सकते हैं , जिनके रोजगार के लिए हर क्षेत्र में कुछ न कुछ रोजगार हैं , इसलिए जाति व्यवस्था उनके लिए बकवास है। पर नीचले स्तर की जातियों की उनलोगों की सोंचे , जहां आज भी 60 से 70 प्रतिशत आबादी अपने परंपरागत रोजगार में ही संलग्न हैं। उनलोगों का समाज किसी के कहने से इतनी आसानी से टूट नहीं सकता।
आज भी एक पेशेवाले लोग शादी विवाह के बंधन में बंधना पसंद करते हैं। एक डॉक्टर अपना विवाह एक डॉक्टर , और कलाकार एक कलाकार से ही करना चाहता है , क्यूंकि इस स्थिति में एक की अनुपस्थिति में दूसरों के द्वारा कार्य को संभाले जाने की सुविधा होती है। व्यक्तिगत परिवारों में इतना ही काफी है , पर संयुक्त परिवारों में एक जैसे व्यवसाय वाले परिवारों के जुडने से आपस में समायोजन करना अधिक आसान होता है , क्यूंकि हमारे अंदर परिवेश की मानसिकता होनी ही है।
आज किसी शहर में एक ब्लॉगर पहुचते हैं , तो एक ब्लॉगर मीट का आयोजन कर लेते हैं , 'हमारा ब्लॉगर समाज' बनता जा रहा है। जब तीन चार वर्षों की मित्रता को इतना महत्व दिया जा रहा हो , युगों युगों से चली आ रही पीढी दर पीढी के परिचय को इतनी जल्दी भुलाना आसान भी नहीं। हां , आज अन्य क्षेत्रों की तरह ही समाज के नाम पर संकुचित मानसिकता के परिणामस्वरूप होने वाली इसके बुरे प्रभाव का मैं अवश्य विरोध करती हूं।
(लेखिका .. संगीता पुरी)
रविवार, 6 दिसंबर 2009
चम्बा की जंगली जातियां गद्दी भी अपने को प्राचीन क्षत्रिय वंशज बताते हैं !!
आपत्ति काल में अनेक क्षत्रिय वंशज नवनागों के डंसने से बचकर स्वदेश और राज्य के पर हस्तगत होने के कारण शत्रुभाव से पीडित हो पूरी दुर्दशा से अपने पुरोहित सारस्वत ब्राह्मणों के आश्रित हों , कुछ तो अपने भाइयों से मिल गए थे और कुछ जंगल या पहाडों में पशुपालकों की बुरी दशा में जीवन रक्षा करते रहें और वहीं के अधिवासी हो गए। चम्बे आदि के पहाडों में ये जंगली जातियां गद्दी के नाम से प्रसिद्ध है , उनकी दशा आज भी जंगली पशुपालक जैसी है, पर उनके पुरोहित उनके विवाह आदि संस्कार वेद मंत्रों से ही कराते हैं। वे अपने को प्राचीन क्षत्रिय वंशज बताते हैं और अपने पूर्वजों को लाहौर और अमृतसर आदि के निवासी बताते हैं। उनकी जाति कपूर , खन्ना और सेठ आदि है।
एथनोलोजी के अनुसार उनमें से कितने ही मुसलमानी राज्य के उपद्रवों के दौरान वहां जा बसे थे। यह तो स्पष्ट है ही कि मुसलमानी राज्य के समय पंजाब के खत्रियों और ब्राह्मणों को अनेक कष्ट भोगने पडे थे , कितने ही दीन हीन इस्लाम को न मानने के लिए मारे गए । अत: इस गद्दी जाति के भी हिमाचल प्रदेश के कांगडा , चंबा आदि जिले के पहाडों में जा बसने की बातें निर्मूल नहीं हो सकती।
गद्दी और खक्कर खत्रियों का उल्लेख राजतरंगिनी में विशेष रूप से मिलता है , जिनके इतिहास पर कुछ प्रकाश राजतरंगिनी के अनुवादक और भाष्यकार डॉ रघुनाथ सिंह ने अपनी टिप्पणियों में डाला है , पर इनपर विस्तृत आधिकारिक खोज की आवश्यकता है।
(लेखक .. सीताराम टंडन जी)
शनिवार, 5 दिसंबर 2009
सूद खत्री अपनी वंशावली भगवान रामचंद्र जी के रसोइए से मानते हैं !!
सूद जाति का इतिहास
सूद खत्री अपनी वंशावली भगवान रामचंद्र जी के रसोइए से खोजते हैं , जिसका दावा उन्होने उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में अपनी जातीय पत्रिका 'रिसायले सूद' में किया था और कहते हैं कि इसे क्षत्रिय माना जाता है। 'इनका रंग, रूप, प्रथाएं, संस्कार , वीरता , तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता , व्यवहार कुशलता इन्हें क्षत्री या खत्री समुदाय में ही रखती है' ऐसा मोती लाल सेठ जी का मत है (एथनोलोजी के पृष्ठ 221 में) । ये अपने को खत्री मानते थे , पर खत्री इन्हें भाटिया , अरोडे और लोहाणे की तरह खत्री नहीं मानते थे , यही कारण है कि सूद लोगों के शादी विवाह भी अपनी जमात तक ही सीमित रही , पर इनका अस्तित्व पुराना है और इन्हें खत्री मानने से इंकार नहीं किया जा सकता।
खत्री हितकार , आगरा के दिसम्बर 1881 के अंक में पृष्ठ 250 से 252 में मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के खत्री चरणदास ने अपने आसपास बसे सूद खत्रियों के विषय में जांच पडताल करके एक लेख प्रकाशित किया , जिसमें बताया गया था कि सागर , दमोह , जबलपुर , नरसिंहपुर , होशंगाबाद , भोपाल , सिवनी , छपरा , दारासिवनी , छिंदवाडा , भटिंडा , नागपुर , भटिंडा और बालाघ्घाट जैसे बडे बडे कस्बों मे आबाद सूद खत्री अपना मूल स्थान पंजाब ही बताते थे। इनके बारह गोत्र गोलर , पराशर , भारद्वाज , धारगा , खेज्जर , खूब , नजारिया , पालीदार , मानपिया , कटारिया , जाट , दानी और चौहान बहुत मशहूर थे। ये लोग भी खत्रियों की तरह ही एक गोत्र मे विवाह नहीं करते थे।
इनलोगों का पेशा सरकारी नौकरी , महाजनी , काश्तकारी , हकीमी , बजारी , दलाली , इत्र फरोशी , घोडों की सौदागिरी , सर्राफी , हलवाईगिरी , छींट और देशी कपडों का व्यापार था , पर ये लोग अपना पूर्वपेशा हिफाजत मुल्क या फौजी पदों पर नियुक्ति बताते थे। धार्मिक दृष्टि से इनलोगों में कुलदेवी का पूजन होता था , पर प्राय: सभी वैष्णव थे। कुछ लोग मेंहर के भी उपासक थे। सामान्यतया शाकाहारी ये लोग तम्बाकू का भी सेवन नहीं करते थे और गुरू नानक के अनुयायी साधुओं को बहुत मानते थे।
इनका पुरोहित तो सारस्वत ब्राह्मण ही था, पर उनके उपलब्ध नहीं होने से दूसरे पंडितो से भी वे पुरोहिताई का काम लेने लगे थे। सारस्वत ब्राह्मणों से उनका कच्ची पक्की रसोई का संबंध था और वे उस घटना की भी चर्चा करते थे , जब ब्राह्मणों ने क्षत्रियों की गर्भवती स्त्रियों की जान अपनी लडकियां कहकर उनके हाथ का किया भोजन करके श्री परशुराम जी के हाथ से बचायी थी। सन् 1895 में लुधियाना से इनकी एक पत्रिका 'रिसालाए सूद' भी छपती थी , पर इनके संबंध में विस्तृत अनुसंधान आवश्यक है।
(लेखक .. खत्री सीताराम टंडन जी)
शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009
भाटिया खत्री राजा यदु के वंशज भट्टी या भाटी के वंश के माने जाते हैं !!
bhatia konsi cast hoti hai
जिन क्षत्रियों ने परशुराम के क्षत्रिय संहार के समय भटनेर नामक ग्राम या नगर में शरण ली थी , उन्हें ही भाटिया कहा जाता है। जो भाटिए पंजाब में हैं , वे अपने को खत्री कहते हैं और जो राजपूताना में , वे अपने को राजपूत कहते हैं। इस कारण न तो राजपूत वंशी इनसे विवाह करते थे और न ही खत्री , इसलिए इनके विवाह संबंध अपने जमात तक ही बने रहे। कुछ यह भी कहते हैं कि परशुराम के संहार के समय जो लोग भट्टी में छुपे रहे और अपनी पवित्रता के कारण आग से नहीं जले , वे ही भाटिया कहलाए।
श्री मोती लाल सेठ ने अपने ग्रंथ 'ए ब्रीफ एथनोलोजिकल सर्वे ऑफ द खत्रीज' में तथा खत्री हितकारी , आगरा जनवरी 1896 के पृष्ठ 70 के नक्शा नं 16 में इनके 84 उपभेद लिखे थे, जो अंधार , पकूरा , छात्रिया , डांगा , नागर , बावला, बेदा , राजिया सानी , सरिया आदि हैं और खत्री जाति परिचय में इसकी सूचि दी गयी है। पंजाब के अलावे उत्तर प्रदेश में भाटिया बिखरे हुए हैं , पर कच्छ , काठियाबाड , गुजरात , बंबई , रत्नागिरी , खानदेश , थाना , शोलापुर कनारा , बेलगाम और पूना जिले में भी पाए जाते हैं। ए बेन्स ने अपने ग्रंथ 'एथनोलोजी' में इनकी कुल जनसंख्या 60,600 होने का अनुमान लगाया था।
पर श्री अशोक कुमार अरोडा का कथन है कि श्री कृष्ण जी और बलदेव जी की मृत्यु के पश्चात् द्वारका का पतन हो जाने से उनके वंशज सिंध चले गए थे और इसी वंश में राजा यदु के वंशज भट्टी या भाटी ने विक्रम संवत् 1212 , सावन बदी 12 को जैसलमेर नगर की स्थापना की। इनके वंशज ही सर्वत्र फैल गए और वे अब भाटिया खत्री कहलाते हैं। राजस्थान में इन्हे अभी भी भाटी राजपूत कहा जाता है।
(लेखक .. खत्री सीताराम टंडन जी)
21 दिनों तक लोहे के किले में रहकर निकले क्षत्रिय लोहाणे कहलाए !!
सिन्ध में सोहाणे को अरोड कहा जाता था , अत: ये लोहाणे अरोडा खत्री से अलग हैं। लोहाणे खत्री सामान्यतया नागपुर की ओर के हैं। सेठ , खन्ना , कपूर , चोपडा और नंदा इनमें अल्ले हैं। सारस्वत ब्राह्मण इनके भी पुरोहित हैं। लोहाणे नाम पडने की इनकी अलग ही कथा मानी जाती है। अब इन्हें भी खत्री भाइयों ने अपना बिछुडा हुआ भाई मान लिया है और इनसे शादी विवाह आदि संबंध बनाने लगे हैं ।
इनके बारे में ये कथा कही जाती है , सिंध देश में दुर्गादत्त नामक सारस्वत ब्राह्मण 84 क्षत्रियों के साथ राजा जयचंद के प्रतिकूल गए। वहां उन्होने तपस्या की। 21 दिनों तक लोहे के किले में रहकर ये निकले , इसी से ये क्षत्रिय लोहाणे कहलाए। कैप्टन बर्टन ने इन्हें मुल्तानी बनिया लिखा है। 'जाति भास्कर' पृष्ठ 20 में इन्हें लवाणा क्षत्रिय लिखा गया है। पं ज्वाला प्रसाद जी इन्हें राजपूत बताते हैं। पहले अन्य खत्रियों के साथ इनका विवाह नहीं होता था , ये अपने विवाह संबंध अपने ही जमात में करते थे .
(लेखक .. खत्री सीताराम टंडन जी)
बुधवार, 2 दिसंबर 2009
हम खुद मिल जुलकर शहर की 30 से 40 प्रतिशत गंदगी फौरन दूर कर सकते है !!
भारत के हर शहर की गंदगी का क्या हाल दिखता है , नालियां भरी हुई होने से गंदा बजबजाता बदबूदार पानी सडकों पर फैलता रहता है। आजादी को मिले इतने वर्ष हो गए , लेकिन 500 साल की गुलामी ने हमारी सोंच को इतना खराब कर दिया है कि इस गंदगी पर हमें कुछ भी ऐतराज नहीं होता है । सब काम हम सरकार पर ही छोड देते हैं , अपने ऊपर हमें जरा भी भरोसा नहीं है और न ही हम कोई विकल्प ढंढते हैं। यदि हम सभी अपनी सोंच , अपनी खराब आदत को बदलना चाहें तो हम सबके सहयोग से शहर की 30 से 40 प्रतिशत गंदगी फौरन दूर हो सकती है।
अधिक विवाद में न पडकर घर से निकलने वाले तीन तरह के कूडे को ध्यान में रखते हुए हमलोग अलग अलग रंग के तीन तरह के कूडेदान का प्रयोग करें , तो कितनी समस्याएं समाप्त हो सकती है। एक कूडेदान में प्लास्टिक , लोहा , पीत्तल , अल्युमिनियम , तांबा , कांच , लकडी , चमडा , कागज आदि दुबारा गलाकर काम में लाने लायक वस्तुओं को रखा जाए। इस कूडेदान की वस्तुएं सडनेवाली नहीं , इसलिए इसे आप कुछ दिनों तक रख सकते हैं और समय आने पर कबाडी को बेचें , तो दो पैसे आपको , चार पैसे कबाडी को भी मिलेंगे, देश को दुबारा कम लागत पर वस्तुएं वापस मिल जाएंगी और जमीन बंजर होने से भी बचेगा , इसके साथ शहर के कूडे का बहुत हिस्सा कम हो जाएगा। इस तरीके से कूडे को रखने पर एक छोटा शहर हर दो महीनें में एक मालगाडी के भार के बराबर लोहा और एक हवाई जहाज के बराबर अल्युमिनियम और बडी तादाद में पीतल तांबा आदि धातुएं देश को वापस दे सकते हैं।
दूसरे कूडेदान में आप सब्जी , फलों के छिल्के , पेड पौधों की सूखी पत्तियां और कुछ ऐसी चीजे डाल सकती हैं , जिसे गायों को खिलाया जा सके या फिर ऐसी व्यवस्था न हो तो उसे सडाकर अच्छी खाद बनाया जा सके। इस तरह यह कूडा आपके लिए बहुत उपयोगी हो सकता है। विज्ञान का प्रचार प्रसार करने में समर्थ लोगों से मेरा अनुरोध है कि इस कूडे को खाद बनाने की वैज्ञानिक विधि इसी पोस्ट पर टिप्पणी के रूप में लोगों को बताएं , ताकि गमलों में डालने वाले खाद का इंतजाम हर परिवार में अपने आप हो जाएं । प्रयोग करने के बाद बची चायपत्ती भी इसके लिए बेहतर होती है।
तीसरे साफ कूडेदान में बचे या जूठे खाने वगैरह को दिनभर जमा कर उसे गली के कुत्तों या अन्य चिडियों वगैरह को खिलाया जा सकता है। इसमें अलग से कुछ भी खर्च नहीं , सिर्फ थोडी सी सहनशीलता और दृढता की जरूरत है। कितने बेजुबानों को चारा मिल जाएगा , फिर भी यदि इतना करने का समय आपके पास नहीं तो इसे कम से कम खाद वाले डब्बे में ही डाल दें। दूसरे और तीसरे तरह के कूडेदान से निकले कूडे से बिजली भी बनायी जा सकती है , पर हमलोग कूडों को मिलाजुलाकर ऐसा गुड गोबर कर देते हैं कि वह हमारे किसी काम का नहीं होता है। इसलिए अपने बच्चों के साथ साथ काम करनेवाले दाई नौकरों को भी आप इस ढंग से कचरा फेकने की सीख अवश्य दें। हर बात में सिर्फ सरकार के भरोसे रहना बेवकूफी है .
अपनी सुविधा के लिए पोलीथीन में खाने की चीजें भरकर बाहर फेककर नालियों को न बंद करें , साथ ही इससे बेजुबान जानवरों की अकालमृत्यु के आप भागीदार बन जाते हैं। पॉलीथीन को भी पहले वाले डस्टबीन में रखें , ताकि समय पर उसे भी गलाने के लिए बेचा जा सके। दुबारा न गलनेवाली पोलीथीनों को वहां पहली परत के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए, जहां नई नई सडके बनती है और वहां की जमीन ऊंची करनी हो । इसके लिए भी वैज्ञानिकों को ध्यान देना चाहिए। तो आज से ही आप इस कार्य को शुरू कर दें , अपने पर्यावरण को और नुकसान न पहुंचाएं , क्यूंकि स्वस्थ पर्यावरण ही आपको स्वस्थ जिंदगी दे सकता है , सफाई के इस यज्ञ को पूरा करने के लिए एक एक व्यक्ति का योगदान आवश्यक है। आज ही अपनी टिप्पणी के द्वारा प्रण करें कि सामान ढोने के लिए आप सिर्फ कपडे की थैली का ही उपयोग करेंगे।
(लेखक .. खत्री राजेन्द्र नाथ अरोडा जी)
मंगलवार, 1 दिसंबर 2009
राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन जी के बारे में विभिन्न विद्वानों के विचार
माखन लाल चतुर्वेदी जी ने कहा था .....
जिस कोख से तुमने जन्म लिया , उसको है शत शत प्रणाम ,
जिस देह का तुमने क्षीर पीया , उस देह को है शत शत प्रणाम।
जिस रज में हिल मिल बडे हुए , उस रज को है सौ बार नमन ,
जिस पथ को तुमने अपनाया , उस पथ को है सौ बार नमन।
हिन्दी की सेवा और उसकी रक्षा के लिए किए गए प्राणाहुति का नाम है पुरूषोत्तम दास टंडन।
त्रिभुवन नारायण सिंह ने कहा था .....
जहां टंडन जी हिन्दी के प्रकाण्ड पंडित विद्वान थे , वहां उनका अंग्रजी साहित्य पर भी बडा अधिकार था
डा गोविंद दास जी ने कहा था .....
प्रगतिशीलता के नाम पर भारत की शिक्षा , सभ्यता और उसकी संस्कृति रूपी धरती पर पश्चिमी या यूरोपीय ढंग का नया वृक्षारोपण करने के टंडन जी विरूद्ध थे।
मैथिली शरण गुप्त जी ने कहा था .....
अपने बल पर अटल रहा, जो धीर तपोव्रत धर्म धरे।
चला गया वह परम तपस्वी, पुरूषोत्तम भी आज हरे।।
विनोवा भावे जी ने कहा था .....
राजर्षि टंडन ने जीवन में जिन नैतिक मूल्यों की परख कर स्थिर किया , उनपर टिका रहने में उन्होने बडे से बडे लाभ को ठुकराने में हिचक नहीं दिखलायी।
मदन मोहन मालवीय जी ने कहा था .....
पुरूषोत्तम वही बोलता है , जो उसका अंत करेगा उसे आज्ञा देता है।
महात्मा गांधी जी ने कहा था .....
पुरूषोत्तम दास टंडन सरीखे लोगों से राष्ट्र निर्माण होता है।
डा राजेन्द्र प्रसाद जी ने कहा था .....
आधुनिक वातावरण और तज्जय सीमाओं में रहते हुए भी टंडन जी का जीवन प्राचीन ऋषियों मुनियों जैसा ही बीता ।
डा राधा कृष्णन जी ने कहा था .....
टंडन जी स्वतंत्रता संग्राम में निर्भय सेनानी और हमारी संस्कृति के मूल भूत मूल्यों मे अदम्य विश्वास रखने वाले रहे हैं
पं जवाहर लाल नेहरू जी ने कहा था .....
हमारा और टंडन जी का अजीब जोडा था , हमलोगों का नजरिया बहुत मामले में मुख्तलिफ था और इस कारण हम दोनो को कभी कभी एक दूसरे से चिढ होती थी .. मैने उनकी राय की हमेशा कद्र की है , कई कारणों से , मगर खासतौर पर इसलिए कि वे स्पष्टवादी थे और हमेशा निर्भय होकर सोंचते और सलाह देते थे ।
लाल बहादुर शास्त्री जी ने कहा था .....
टंडन जी की उपस्थिति ही बलदायक और प्रेरक होती थी।
हरिवंश राय बच्चन जी ने कहा था .....
टंडन जी अमूर्त्त सिद्धांत बनाने और और उसकी घोषणा करने में विश्वास नहीं रखते थे।
महादेवी वर्मा जी ने कहा था .....
जीवन के वसंत में ही टंडन जी ने सुख सुविधामय जीवन के स्थान पर निरंतर संघर्ष मय जीवन पूर्ण निष्ठा के साथ बिता दिया था ।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने कहा था .....
हिन्दी को भारत व्यपी बनाने में टंडन जी का भगीरथ प्रयत्न प्रत्येक हिन्दी हितैषी के लिए वंदनीय है।
अलगू राम शास्त्री जी ने कहा था .....
टंडन जी की महत्ता का मूलमंत्र है , उनकी व्यक्तिगत जीवन शुद्धता , भाव निर्मलता , कोमलता मानवता और मिलनसारिता ।
राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा था .....
पूज्य तुम राजर्षि क्या ब्रह्मर्षि बहुगुण धाम। व्यर्थ आज वशिष्ठ विश्वामित्र के संग्राम।।
बहुत मेरे अर्थ पुरूषोत्तम तुम्हारा नाम। सतत् श्रद्धायुक्त तुमको शत सहस्र प्रणाम।।
और हमारी मातृभाषा हिन्दी के बारे में देशभक्त राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन जी के विचार ये थे .......
मनुष्य की मातृभाषा उतनी ही महत्ता रखती है , जितनी उसकी माता और मातृभूमि रखती है।
खत्री समाज को अपने समाज में जन्म लेनेवाले ऐसे महापुरूषों पर गर्व है .. हम उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं !!
( 'खत्री हितैषी' से साभार)
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क्या ईश्वर ने शूद्रो को सेवा करने के लिए ही जन्म दिया था ??
शूद्र कौन थे प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर थी, पर धीरे-धीरे यह व्यवस्था जन्म आधारित होने लगी । पहले वर्ण के लोग विद्या , द...
