होली की बात क्या कहूं , होली में रंग है।
त्यौहार की खुशी में सब लोग संग हैं।।
गालों पे है गुलाल , लगा माथे पर अबीर।
मस्ती से खेलते हैं , सभी रंक और अमीर।।
ये अंगराज से सजा हुआ सा अंग है।
होली की बात क्या कहूं , होली में रंग है।।
होली को खेला सूर ने , तुलसी कबीर ने।
खेला है इसे संत और सूफी अजीज ने।।
रहमान राम कृष्ण पयंबर भी संग है।
होली की बात क्या कहूं , होली में रंग है।।
फागुन भी क्या चीज है, जरा देखिए हुजूर।
मस्ती भरी हुई है जरा खेलिए हुजूर।।
अल्लाह मियां भी देख मेरा अंग दंग है।
होली की बात क्या कहूं , होली में रंग है।।
हिंदू या मुसलमान हो या सिक्ख या ईसाई।
मिलजुलकर खेलिए सभी इसमें भलाई।।
हम एक हैं यहां पे सदा से अखण्ड हैं।
होली की बात क्या कहूं , होली में रंग है।।
इंसानियत की राह पे चलते हैं, चलेंगे।
हिंदुस्तान के लिए जीते हैं , जीएंगे।।
होली तो एकता के लिए मानदंड है।
होली की बात क्या कहूं , होली में रंग है।।
( लेखक ----- अजीज जौहरी जी )
पहले सच्चे इंसान, फिर कट्टर भारतीय और अपने सनातन धर्म से प्रेम .. इन सबकी रक्षा के लिए ही हमें स्वजातीय संगठन की आवश्यकता पडती है !! khatri meaning in hindi, khatri meaning in english, punjabi surname meanings, arora caste, arora surname caste, khanna caste, talwar caste, khatri caste belongs to which category, khatri caste obc, khatri family tree, punjabi caste surnames, khatri and rajput,
रविवार, 28 फ़रवरी 2010
मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010
जाति से संबंधित कुछ भ्रांतियों का उन्मूलन
jativad kya hai
जाति से संबंधित कुछ भ्रांतियों का उन्मूलन
प्रश्न ... प्राचीन काल में एक गोत्र और अल्ल में विवाह क्यूं वर्जित था ?
उत्तर .. वह इसलिए ताकि आनेवाली पीढी में किसी प्रकार के रोगयुक्त होने का भय कम से कम तो हो ही , इसके अलावे वे पीढी से शारीरिक और मानसिक रूप से अधिक सक्षम हो।
प्रश्न .. यदि ऐसी बात थी , तो फिर दो जातियों के मध्य विवाह क्यूं नहीं होते थे ?
उत्तर .. क्यूंकि उस समय प्रत्येक जाति एक तरह के पेशे से जुडे हुए थे। इसके कारण न सिर्फ दोनो परिवारों को एक दूसरे से सामयोजन कर पाने में ही आसानी होती थी , मां और पिताजी दोनो के परिवार के एक ही पेशे से जुडे होने से आनेवाली पीढी को दो परिवारों के अनुभव का फायदा मिलता था , जिससे आनेवाली पीढी उस काम में अधिक कुशल होती जाती थी। अपनी अपनी जाति के अंतर्गत विवाह होने के मूल में यही बात थी। वर्तमान युग में भी खास पेशे में जुडे लोग अपने ही पेशे में बच्चों को और विकसित देखना चाहते हैं , यह कोई असामान्य बात नहीं थी।
प्रश्न .. कोइ व्यक्ति गलत काम करे तो कहते हैं 'देखो जात दिखा गया या देखो जात का असर है.ऐसा क्यूं ?
उत्तर . .प्राचीन काल में तो कर्म के आधार पर लोगों को काम दिया जाता था और उसी आधार पर जाति बनी थी पर कालांतर में कुछ ह्रास तो हुआ है , कला या मेहनत का मूल्य जैसे जैसे कमजोर होने लगा, उनका पतन होता चला गया। विविधता तो प्रकृति का नियम है , संसाधन के हिसाब से मनुष्य की मन:स्थिति रहनी स्वाभाविक है। भारत के लोग क्यूं आक्रामक नहीं होते , क्यूंकि ये संसाधन संपन्न देश है, लोग रक्षात्मक ढंग से रहना पसंद करते हैं, वे क्यूं विदेशों का रूख करेंगे ? अपने देश में किसी चीज की कमी नहीं और जिन देशों से साधनहीनता है , वहां के लोग भटकते हैं , आक्रमणकारी कहलाते हैं, क्षेत्र की तरह ही जाति का भी प्रभाव चरित्र पर पडता ही है, संसाधन के हिसाब से लोगों में चिंतन की शक्ति विकसित होती है, जिसका असर कालांतर में जीन में भी दिखाई पडता है। जिसको जैसा पारिवारिक माहौल मिला या जिसे जैसे संसाधन मिले, उसी के अनुरूप उसकी सोंच विकसित होती गयी , जिसे ही बाद में जातीय विशेषताएं कही जाने लगी। सरकार द्वारा छोटी जाति के लोगों को आरक्षण देने के पीछे इसी कमजोर सोंच को महत्व दिया गया है। अब धीरे धीरे लोगों के मध्य परस्पर मेल भाव होने से काफी समानता आयी है, पर शिक्षा के बावजूद सोंच में कुछ न कुछ तो फर्क आएगा ही । 90 प्रतिशत लोगों में तो जाति और क्षेत्र का प्रभाव रहता है, उन्हीं लोगों के लिए कहा गया है .. 'देखो जात दिखा गया या देखो जात का असर है , हालांकि यह भी बढा चढाकर प्रस्तुत किया जाता है।
प्रश्न ...कबीर ने कहा 'जात न पूछो साधू की पूछ लीजिये ज्ञान', क्या यह 'जात' और 'जाती' एक ही हैं?
उत्तर ..कभी कभी पूर्वजन्म के संस्कार भी काम करते हैं और किसी व्यक्ति में परिवार या क्षेत्र से अलग विशेषताएं देखने को मिलती हैं। उन्हीं लगभग 10 प्रतिशत लोगों के लिए है .. 'जात न पूछो साधू की पूछ लीजिये ज्ञान' और आनेवाले समय में मानवतावादी दृष्टिकोण बढे और उससे ऐसी सोंच 10 प्रतिशत से बढती हुई 100 प्रतिशत हो जाए , हम इसकी कामना करते हैं।
( यह पोस्ट मेरी एक चैट के दौरान हुई बातचीत को सार्वजनिक कर रही है)
जाति व्यवस्था पर हमारे अन्य लेख भी पढ़ें :------
जाति व्यवस्था पर हमारे अन्य लेख भी पढ़ें :------
रविवार, 21 फ़रवरी 2010
रंग बिरंगी होली का यही तो है संदेश
ऐसे रंग में क्या रंगा, स्वयं हुए बदरंग।
प्रेम रंग सांचा 'रसिक' जीवन भरे उमंग।।
रंगी हथेली ले बढे,चेहरा रंगा उजास।
सच्ची होली हो तभी, फैले प्रेम प्रकाश।।
लाल लाल उडने लगी , चारो ओर गुलाल।
शहर शहर बाजार से, गांव गांव चौपाल।।
जल में जैसे रंग घुला, एक हृदय हो मीत।
वैमनस्य मिट जाए सब , रहे मित्रता जीत।।
चमक रही आभा लिए, जैसे रजत अबीर।
समता बढे समाज में , निर्धन बन अमीर।।
लेखक ... संत कुमार टंडन 'रसिक' जी
प्रेम रंग सांचा 'रसिक' जीवन भरे उमंग।।
रंगी हथेली ले बढे,चेहरा रंगा उजास।
सच्ची होली हो तभी, फैले प्रेम प्रकाश।।
लाल लाल उडने लगी , चारो ओर गुलाल।
शहर शहर बाजार से, गांव गांव चौपाल।।
जल में जैसे रंग घुला, एक हृदय हो मीत।
वैमनस्य मिट जाए सब , रहे मित्रता जीत।।
चमक रही आभा लिए, जैसे रजत अबीर।
समता बढे समाज में , निर्धन बन अमीर।।
लेखक ... संत कुमार टंडन 'रसिक' जी
शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010
आकाश राज जी ... क्या आप अपने गांव और जिले का नाम लेने से परहेज कर सकेंगे ??
भारतवर्ष के इतिहास से पता चलता है कि खत्री जाति का काम प्रजा की रक्षा करना था। समाज में , राज्य में और शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में उनकी अहम् भूमिका रही है। पर कालांतर वे सिर्फ व्यवसाय में ही रम गए और आज भी उसी में रमे हैं। समाज और देश के इस बिगडे हुए हालात से , देशवासियों की दुर्दशा से वे तनिक भी विचलित नहीं हो रहे हैं। मैं इस ब्लॉग के माध्यम से उन्हें एकजुट करने और देश की स्थिति को सुधारने की अपील कर रही हूं। मेरे विचारों को पढने और अनुसरणकर्ता बनने के लिए मैने सबसे अनुरोध किया है , जो भी हमारे विचारों से इत्तेफाक रखते हों, मेरे साथ चल सकते हैं। मेरा एक भी पोस्ट ऐसा नहीं है , जो स्वार्थपूर्ण होकर लिखा गया हो। इसी सिलसिले में कल इस ब्लॉग पर लेखक ... कैलाश नाथ जलोटा 'मंजू' द्वारा लिखी गयी एक बहुत ही अच्छी पोस्ट प्रेषित की गयी थी , जिसको पढकर आकाश राज जी ने हमारी पंक्तियों को लिखते हुए टिप्पणी की .......
"यदि हम चाहें , तो संपूर्ण भारत में जाति जागरण का डंका बजा सकते हैं और अपनी खोई हुई कीर्ति को वापस ला सकते हैं। हम पुन: संपूर्ण समाज का प्रेरणास्रोत बनकर विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने में समर्थ हो सकते हैं। यही हमारा जाति के प्रति धर्म और त्याग होगा।"
संपूर्ण भारत में जाति जागरण का डंका तो न जाने कब से बजा पड़ा है और इसलिए तो हमारे देश में सबसे ज्यादा शांति है हिंदू - मुस्लिम - शिख - इशाई काफी नही जो अब उप जातिओं का डंका पुरे भारतवर्ष में बजाया जाये|
मैं आप पाठकों से ही पूछती हूं कि ऊपर की पंक्तियों में क्या बुराई थी , जिसका विरोध किया गया ??
मुझे तो लग रहा है कि आज अपने को आधुनिक समझनेवाले लोग हर परंपरागत बात का विरोध करने को तैयार रहते हैं। किसी को कुछ कहने लिखने के पहले ये तो ध्यान देना ही चाहिए कि इसकी मंशा क्या है ? किसी के घर में बिना पूजा के कोई काम नहीं होगा , बिना मुहूर्त्त के विवाह नहीं होगा , असफलता मिलने पर छुपछुपकर लोग ज्योतिषी के पास जाएंगे , पर सामने ज्योतिषियों की हर बात का विरोध करेंगे , इतनी बडी आबादी के बावजूद जिस महीने में लगन नहीं होता , उस महीने में कभी कभार ही शादी होते देखा जाता है , जबकि पंडित जी जिस दिन लगन अच्छा कह दें , बुकिंग की भीड हो जाती है। समाज मे यह सब मान्य है , पर मैं यदि सामाजिक भ्रांतियो को दूर करने की कोशिश करूं , तो वह अंधविश्वास हो जाता है। कमाल की मानसिकता है लोगों की ??
युवक खुद दूसरी जाति में विवाह न करें , माता पिता की बात मानकर प्रेमिकाओं को धोखा देते फिरें , पर सामने अवश्य विरोध करेंगे , बडे बडे भाषण देंगे। अपने , अपने परिवार,अपनी जाति , अपने गांव, अपने क्षेत्र और अपने देश पर सबको अभिमान होता है। अपनी अच्छी परंपरा की रक्षा करने का सबको हक है। अब जाति के कारण समाज बंट रहा है , तो जाति का नाम ही न लिया जाए । धर्म के कारण समाज बंट रहा है , तो धर्म का नाम ही न लिया जाए , ये कोई बात है ? फिर तो क्षेत्र के कारण समाज बंट रहा है , तो क्या आप अपने गांव और जिले का नाम लेने से परहेज कर सकेंगे ? आज आवश्यकता है , अपनी मानसिकता को परिवर्तित करने की , सबको समान दृष्टि से देखने की। जब वह हो जाएगी , तो हम किसी भी जाति के हों , किसी भी धर्म के हों और किसी भी क्षेत्र के हों , कोई अंतर नहीं पडनेवाला। अभी इतनी आसानी से भारत में जातिबंधन समाप्त होनेवाला नहीं , अपनी जाति के दूर दराज के परिवार में भी हम आराम से विवाह संबंध कर लेते हैं , बीच में कोई न कोई परिचित निकल आता है। पर दूसरी जाति में तब ही करते हैं , जब वह हमारे बहुत निकटतम मित्र हों। यदि विवाह संबंध करते समय आप इसका ध्यान नहीं रखते हैं , तो कभी भी आपके समक्ष भी समस्या आ सकती है। आशा है , बिना समझे बूझे हर बात का विरोध करना बंद करेंगे।
"यदि हम चाहें , तो संपूर्ण भारत में जाति जागरण का डंका बजा सकते हैं और अपनी खोई हुई कीर्ति को वापस ला सकते हैं। हम पुन: संपूर्ण समाज का प्रेरणास्रोत बनकर विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने में समर्थ हो सकते हैं। यही हमारा जाति के प्रति धर्म और त्याग होगा।"
संपूर्ण भारत में जाति जागरण का डंका तो न जाने कब से बजा पड़ा है और इसलिए तो हमारे देश में सबसे ज्यादा शांति है हिंदू - मुस्लिम - शिख - इशाई काफी नही जो अब उप जातिओं का डंका पुरे भारतवर्ष में बजाया जाये|
मैं आप पाठकों से ही पूछती हूं कि ऊपर की पंक्तियों में क्या बुराई थी , जिसका विरोध किया गया ??
मुझे तो लग रहा है कि आज अपने को आधुनिक समझनेवाले लोग हर परंपरागत बात का विरोध करने को तैयार रहते हैं। किसी को कुछ कहने लिखने के पहले ये तो ध्यान देना ही चाहिए कि इसकी मंशा क्या है ? किसी के घर में बिना पूजा के कोई काम नहीं होगा , बिना मुहूर्त्त के विवाह नहीं होगा , असफलता मिलने पर छुपछुपकर लोग ज्योतिषी के पास जाएंगे , पर सामने ज्योतिषियों की हर बात का विरोध करेंगे , इतनी बडी आबादी के बावजूद जिस महीने में लगन नहीं होता , उस महीने में कभी कभार ही शादी होते देखा जाता है , जबकि पंडित जी जिस दिन लगन अच्छा कह दें , बुकिंग की भीड हो जाती है। समाज मे यह सब मान्य है , पर मैं यदि सामाजिक भ्रांतियो को दूर करने की कोशिश करूं , तो वह अंधविश्वास हो जाता है। कमाल की मानसिकता है लोगों की ??
युवक खुद दूसरी जाति में विवाह न करें , माता पिता की बात मानकर प्रेमिकाओं को धोखा देते फिरें , पर सामने अवश्य विरोध करेंगे , बडे बडे भाषण देंगे। अपने , अपने परिवार,अपनी जाति , अपने गांव, अपने क्षेत्र और अपने देश पर सबको अभिमान होता है। अपनी अच्छी परंपरा की रक्षा करने का सबको हक है। अब जाति के कारण समाज बंट रहा है , तो जाति का नाम ही न लिया जाए । धर्म के कारण समाज बंट रहा है , तो धर्म का नाम ही न लिया जाए , ये कोई बात है ? फिर तो क्षेत्र के कारण समाज बंट रहा है , तो क्या आप अपने गांव और जिले का नाम लेने से परहेज कर सकेंगे ? आज आवश्यकता है , अपनी मानसिकता को परिवर्तित करने की , सबको समान दृष्टि से देखने की। जब वह हो जाएगी , तो हम किसी भी जाति के हों , किसी भी धर्म के हों और किसी भी क्षेत्र के हों , कोई अंतर नहीं पडनेवाला। अभी इतनी आसानी से भारत में जातिबंधन समाप्त होनेवाला नहीं , अपनी जाति के दूर दराज के परिवार में भी हम आराम से विवाह संबंध कर लेते हैं , बीच में कोई न कोई परिचित निकल आता है। पर दूसरी जाति में तब ही करते हैं , जब वह हमारे बहुत निकटतम मित्र हों। यदि विवाह संबंध करते समय आप इसका ध्यान नहीं रखते हैं , तो कभी भी आपके समक्ष भी समस्या आ सकती है। आशा है , बिना समझे बूझे हर बात का विरोध करना बंद करेंगे।
बुधवार, 17 फ़रवरी 2010
खत्री जाति को देशवासियों के लिए प्रेरणास्रोत बनना चाहिए !!
खत्री जाति सदा से ही समाज का सिरमौर रही है , इसने सभी को आश्रय दिया है। हम रामचंद्र के वंशज हैं, यह निर्विवाद सत्य है। यदि हम उस काल के इतिहास पर दृष्टि डालें , तो ज्ञात होगा कि भगवान राम ने ब्राह्मणों , वैश्यों और शूद्रों को प्रश्रय ही नहीं दिया , अपितु उन्हें गले से भी लगाया। उसके बाद के युग में भी समाज के प्रत्येक अंग की उन्नति और सुख संपन्नता को बनाए रखने में हमने अपने को अग्रसर रखा।
युद्ध का क्षेत्र हो या शांति का साम्राज्य , प्रत्येक अवसर पर हमने स्वदेश प्रेम का प्रगाढ परिचय दिया है। शिक्षा , विज्ञान ,युद्ध , राजनीति , आर्थिक क्षेत्र से लेकर खेल कूद तथा समाज सेवा में हमने बढ चढकर अमूल्य योगदान दिया है। स्वयं को उत्सर्ग करके भी समाज के प्रत्येक अंग की रक्षा की है। अपनी सूझ बूझ और कला कौशल से संसार को चकाचौंध करनेवाले व्यक्ति विशेष खत्री समाज के हमेशा से रहे हैं। इतिहास इसका साक्षी है। हम उन महापुरूषों और वीरों के प्रति नतमस्तक हैं।
किन्तु वर्तमान युग में हमारी जाति के लोग भटक रहे हैं। अपनी आन बान और शान को धूल धूसरित होता देखकर भी अपनी आंखे बंद किए हैं। जो सफलता हमारे चरण चूमती थी , उससे हम कोसों दूर हैं। सारे भारत में लाखों खत्री भाई हैं , पर उनमें संगठन का अभाव है। हम 'खत्री हितैषी' के सदस्य बनकर पत्रिका के माध्यम से अपने विचार अपने जाति भाइयों के समक्ष प्रस्तुत करें और उन्नति के नए मार्ग ढूंढे।
यह सर्वथा निश्चित है कि यदि हम चाहें , तो संपूर्ण भारत में जाति जागरण का डंका बजा सकते हैं और अपनी खोई हुई कीर्ति को वापस ला सकते हैं। हम पुन: संपूर्ण समाज का प्रेरणास्रोत बनकर विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने में समर्थ हो सकते हैं। यही हमारा जाति के प्रति धर्म और त्याग होगा। तो आइए हम संकल्प लें कि आज से सभी खत्री भाई अपनी जाति के प्रति निष्ठावान होकर उसके उत्थान और संपन्नता के लिए जी जान से एकजुट हो जाएं और अपनी बिखरी हुई शक्ति को समेटकर एक बार पुन: प्रमाणित करें कि वास्तव में हम सारे भारतीय समाज के प्रेरणास्रोत हैं।
जिसको न निज कुल, जाति, धर्म,स्वदेश का कुछ ध्यान है।
वह 'मंजू' जीवन में पले , फिर भी न होता मान है।।
वह जाति का है लाल , जो नित प्रेम का वर्षण करे।
प्रिय जाति की पीडा हरे , निज प्राण भी अर्पण करे।।
लेखक ... कैलाश नाथ जलोटा 'मंजू'
शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010
खत्री जाति को इस ढंग से परिभाषित किया जा सकता है !!
वास्तव में व्यापक व्यक्तिगत अंतरों को स्पष्ट करने के उद्देश्य से जाति प्रथा को जन्म दिया गया था। आधुनिक वैज्ञानिक व्यख्या के अनुसार 'जाति' ऐतिहासिक प्रक्रिया में विकसित एक जनसमुदाय है , जिसका उदय अपने को अभिव्यक्त करनेवाले एक समान मनोवैज्ञानिक बनावट के आधार पर होता है। जाति अपनी संस्कृति की विशेषताओं से निराली बनती है। उसका निरालापन उसके अतीत की गहराइयों से उद्भूत होता ह। रक्त और स्वरूप की एकता ने परस्पर आत्मीयता उत्पन्न की , जितनी आत्मीयता बएती गयी , उतना ही निजत्व की भावना का क्षेत्र विकसित होता गया। जाति का प्राण धार्मिक संस्कारों में है। धार्मिक संस्कारों में अनास्था जाति के प्रति अनास्था है।
जहां तक खत्री जाति की बात है , सुकर्म , सुवचन और सुविचार और इसके द्वारा अपने जीवन को उच्च बनाने की प्रक्रिया हमारे जाति जीवन का मूलमंत्र है। सत्य आस्था और लगन जीवन की प्रगति का मूल है और हम इसे जीवन के यथार्थ में उतारने का भरसक प्रयास करते हैं। हमें अपने अतीत से साक्षात्कार करने , अपने इतिहास को सुरक्षित रखने का प्रयास करना चाहिए। संस्कार पूर्वजन्म के कर्म से ही नहीं, आसपास के वातावरण से भी बनते हैं। हमें सिर्फ पैतृक संपत्ति ही नहीं , जातीय संस्कार भी पीढी दर पीढी मिलती आयी है। सबों को अपने वर्तमान से आगे बढते जाना चाहिए ।
खत्री जाति प्रारंभ से ही अपार मुसीबतों , संकटों और अपरिमित कठिनाइयों में से गुजरकर जीवन यापन करती रही है। फिर भी उसने हमेशा स्वर्ण की तरह शुद्ध होकर अपने जातीय स्वाभिमान की रक्षा की है। जब जीना असह्य हो , फिर भी जीने की क्षमता श्रेष्ठ मानव का लक्षण है। अपने जीवन को सदैव उपयोगी बनाना और अपनी जातिय विशेषता के चरित्र का निर्माण हमारी पहली शर्त होनी चाहिए। हमारा जीवन ऐसा होना चाहिए कि उसमें कायरता और तुच्छता का धब्बा न लगे। निरूद्देश्य समय गंवाने का पडतावा न रहे।
हमारी जातीय जीवन पद्धति में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं कि हमारे समाज का गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपनी कठिनाइयों पर विजय पाने के लिए प्रयासरत होता है। हमें साधारण जनता का विश्वास नहीं खोना चाहिए। कम शिक्षित और कम साधन संपन्न होने के बावजूद हम संस्कार हीन या संस्कृति शून्य नहीं बन सकते। तुच्छता , स्वार्थ लिप्सा और संकीर्णता खत्री मानसिकता के विपरीत चीज है। हमें इन प्रवृत्तियों से बचने का हमेशा प्रयास करना चाहिए।
('खत्री हितैषी' के स्वर्ण जयंती विशेषांक में संपादक महोदय के विचार)
बुधवार, 10 फ़रवरी 2010
जीवन में ये बातें हमेशा याद रखें !!
किसी गरीब के सामने गर्वभरी वाणी बोलना , उसके साथ रूखा और कठोर व्यवहार करना भगवान का अपराध है , क्यूंकि उस गरीब के रूप में भगवान ही तुम्हारे सामने प्रकट हैं। अतएव सभी के साथ नम्र होकर अपनी मधंर वाणी बोलो, अपनी विनय विनम्र पीयूषवर्षिणी वाणी तथा व्यवहार के द्वारा सर्वत्र शीतल मधुर सुधा की धारा बहा दो, दुख की विषज्वाला से जलते हुए हृदयों में सुधा डालकर उन्हें विषशून्य , शीतल ,शांत और मधुर बना दो और यह सब केवल भगवान की सेवा के लिए करो, उन्हीं को शक्ति , प्रेरणा और वस्तु मानकर। तुम्हारी निरभिमान त्यागमयी सेवा से भगवान बहुत प्रसन्न होंगे और उनकी प्रसन्नता जीवन को सफल बना देगी।
बदला लेने की भावना कभी भी मन में मत आने दो। अपना बुरा करने पर , गाली देने पर , निंदा करने पर , मारने पर भी किसी का कभी न बुरा करो , न बुरा चाहो , न बुरा होते देखकर प्रसन्न होओ , उसको ह्दय से क्षमा कर दो। जैसे स्वयं के अपराध पर व्यक्ति स्वयं को दंड नहीं दे पाता ... क्षमा चाहता है , ऐसे ही सबमें अपनी आत्मा को समझकर सबको क्षमा कर दो। बदला लेने की भावना बहुत बुरी है , बदला लेने की भावना मन में रखने वाला व्यक्ति इस जीवन में कभी भी शांति , सुख और प्रेम नहीं पाता । वह स्वयं डूबता है और वैरभाव के बुरे परमाणु वायुमंडल में फैलाकर दूसरों का भी अनिष्ट करता है।
दुख मनुष्य के विकास का साधन है , सच्चे मनुष्य का जीवन दुख में ही खिल उठता है , सोने का रंग तपने पर ही निखरता है।
( खत्री हितैषी के स्वर्ण जयंती विशेषांक से साभार )
बदला लेने की भावना कभी भी मन में मत आने दो। अपना बुरा करने पर , गाली देने पर , निंदा करने पर , मारने पर भी किसी का कभी न बुरा करो , न बुरा चाहो , न बुरा होते देखकर प्रसन्न होओ , उसको ह्दय से क्षमा कर दो। जैसे स्वयं के अपराध पर व्यक्ति स्वयं को दंड नहीं दे पाता ... क्षमा चाहता है , ऐसे ही सबमें अपनी आत्मा को समझकर सबको क्षमा कर दो। बदला लेने की भावना बहुत बुरी है , बदला लेने की भावना मन में रखने वाला व्यक्ति इस जीवन में कभी भी शांति , सुख और प्रेम नहीं पाता । वह स्वयं डूबता है और वैरभाव के बुरे परमाणु वायुमंडल में फैलाकर दूसरों का भी अनिष्ट करता है।
दुख मनुष्य के विकास का साधन है , सच्चे मनुष्य का जीवन दुख में ही खिल उठता है , सोने का रंग तपने पर ही निखरता है।
( खत्री हितैषी के स्वर्ण जयंती विशेषांक से साभार )
रविवार, 7 फ़रवरी 2010
खत्री जाति की परंपरा : दूसरा भाग
खत्री प्राय: सभी त्यौहार , रक्षाबंधन , विजयदशमी , दीपावली और होली उत्साह से मनाए जाते हैं, परंतु विजय दशमी पर्व का इनमें विशेष महत्व है। यह शक्ति , विजय और उल्लास का पर्व है। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ होकर निरंतर दस दिन चलनेवाले इस पर्व पर दुर्गापूजन और दशमी के दिन अस्त्र शस्त्र पूजन और दशमी के दिन अस्त्र शस्त्र पूजन बहुत प्रेम तथा श्रद्धा से किया जाता है।
दीपावली के पहले अहोई अष्टमी पर किया जानेवाला पूजन वस्तुत: खत्रियों के प्राचीन पराक्रम और वैभव की स्मृति दिलानेवाला है। यह 'कर अष्टमी' प्राचीन काल में इस दिन खत्री कुमार कर वसूल कर लाते और उत्सव मनाते थे। परंतु अब कर का नाम भीख हो गया है , फलत: यह भीख लेना धीरे धीरे बंद हो गया है , केवल अहोई का पूजन किया जाता है। मकर संक्रांति के एक दिन पहले 'लोहरी' का त्यौहार अग्नि के नवान्न डालकर उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। पंचनद प्रदेश में इसका विशेष महत्व है। भादों के कृष्ण पक्ष की पंचमी को 'भाई भिन्ना' सभी भाई बहिनें नागों का पूजन करती हूं और भाइयों को टीका लगाती हैं।
खत्री समाज में स्त्रियों को विशेष सम्मान प्राप्त हैं , वे घर की प्रबंधक होती थी , पति के साथ यज्ञा पूजन का काम करती हैं । प्राचीन काल से ही प्राय: एक पत्नी के रहते दूसरा विवाह नहीं किया करते। स्त्री अथवा पति का परित्याग समाज में अनहोनी बात है। विधवा विवाह को अब मान्यता दी जाने लगी है। कन्या देवी तुल्य समझी जाती हैं।
खत्रियों में महायात्रा में मृतक को आम के पटरे पर श्मशान ले जाते हैं। प्राय: श्मशान घाट पर अंत्येष्टि के लिए बनवाए गए पक्के चबूतरे पर ही खत्रियों एवं सारस्वतों का दाह कर्म किया जाता है।
खत्री आचार विचार का बहुत ध्यान रखते हैं। ये दान नहीं लेते , गौ बेचना और हल चलाना बुरा मानते हैं। ये वैदिक धर्मावलंबी है , प्राय: सात्विक भोजन करते हैं , मांस मदिरा का सेवन बुरा मानता है। सार्वजनिक जीवन में खत्रियों का दृष्टिकोण सदैव से विशाल रहा। खत्री धर्मपालक है , फलत: धर्म ने भी सदैव रक्षा की है , यह अमिट जाति है।
('खत्री हितैषी' के स्वर्ण जयंती विशेषांक से साभार)
शनिवार, 6 फ़रवरी 2010
खत्री जाति की परंपरा : पहला भाग
khatri samaj kuldevi
खत्री जाति एक प्राचीन और विशिष्ट जाति है। म्रिश्र के लगभग दो हजार वर्ष पूर्व हुए भूगोल वेत्ता टालमी ने भी ईसा की दूसरी शताब्दी में 'खत्रियाओं' राज्य होने का उल्लेख किया है। खत्रियों का मूल स्थान सारस्वत प्रदेश है और आजतक इस प्रदेश के सारस्वत ब्राह्मणों तथा खत्रियों में खान पान का जो पारस्परिक संबंध है , वैसा भारत के किसी प्रदेश के ब्राह्मण का किसी दूसरी जाति के साथ नहीं है .
खत्री धर्म और संसकृति के आधार पर वेदों को मानने वाली धर्म निष्ठ जाति है। खत्री मुख्य रूप से शक्ति के उपासक हैं। सभी खत्री किसी न किसी नाम से शक्ति की पूजा करते हैं , शक्ति की पूजा करते हैं , शक्ति ही उनकी कुल देवी है। वैसे ये गणपति , शिव , सूर्य , शक्ति और विष्णु सभी को मानते और उपासना करते हैं। खत्री धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से परंपरावादी है। वे शास्त्रो में वर्णित नैमित्तिक कर्मों संस्कार आदि का पूर्ण पालन करते हैं। भाषा और बोली में अंतर होने के कारण संस्कारों के नाम बदल दिए गए हैं। परंतु हर जगह सभी संस्कार अरोये , भोडे , देवकाज और मुंछन , यज्ञोपवीत तथा विवाह आदि किए जाते हैं। खत्रियों में विवाह के संबंध में कोई करार या लेन देन की बातें तय नहीं होती। विवाह सादगी से होता है और विवाह के समय दोनो ही पक्ष अपनी सामर्थ्य के अनुसार खर्च करते हैं।
विवाह के अवसर पर कन्या मामा के द्वारा मंसा गया सौभाग्य का प्रतीक हाथी दांत का लाल रंग का चूडा और सालू की ओढनी विशेष तौर पर पहनती है। वर जामा पहनकर हाथ में तलवार लेकर , मस्तक पर पंचदेव से सुशोभित मुकुट और फूलों का सेहरा बांधकर घोडी पर चढकर वीर भेष में विवाह हेतु आता है। विवाह कार्य केले के चार खम्बों और फूलों , खिलौनो आदि से सजी वेदी , जिसके ऊपर सालू और फूलों का चंदोवा टंगा रहता है , में ब्राह्म विधि से किया जाता है। विवाह के पहले कन्या द्वारा वर के गले में जयमाल डालने की परंपरा भी बहुत पुरानी है। खत्रियों में प्रथम संतान के मुंडन के पूर्व देवकाज का विशेष महत्व है , इस अवसर पर ही प्रथमाचार कुलदेवी का दर्शन किया जाता है। खत्रियों की बाकी परंपरा के बारे में आप अगले आलेख में अधिक जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।
(खत्री हितैषी के स्वर्ण जयंती विशेषांक से साभार)
शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010
भारत के समस्त सूर्यवंशी खत्रियों का मूल गोत्र काश्यप है !!
khatri jati
खत्रियों के इतिहास को लिखनेवाली एक पुस्तक की परिशिष्ट में कुछ ज्ञात गोत्रों एवं कुलदेवता आदि की सूंचि दी गयी है , पर हजारो ऐसे अल्ल भी हैं , जिनके धारकों को आज न तो उनके वास्तविक गोत्र याद हैं और न ही कुल देवता। गोत्र और कुलदेवता का ज्ञान करानेवाले उनके पूर्व पुरोहित भी बदल चुके हैं। ऐतिहासिक घटनाक्रम में जो लोग उनके नए पुरोहित बने , उनके पास अपने यजमान के हर परिवार की व्यक्तिगत परंपराओं की जानकारी भी नहीं थी , अत: उन्होने समस्त संकल्पों आदि में सभी क्षत्रियों के पूर्वज काश्यप .षि का ही गोत्र कहना प्रारंभ कह दिया था, क्यूंकि वही शास्त्र सम्मत था।
स्वयं शास्त्रों में कहा गया है कि सब वंशों का गोत्र प्रवर 'मानव' उच्चरण किया जाए। 'सर्वेषां मानवेति संशये' (आश्वलायन श्रौत्र 13/5 )। गीता में भी स्वयं श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है .....
ज्ञात्वा शास्त्रं विधानोक्तं कर्म कर्तुमहाहसि। ... गीता 16/24
स्वयं मोतीलाल सेठ जी ने भी अपनी खत्रिय इतिहास की पुस्तक 'अ ब्रीफ हथनोलोजिकल सर्वे ऑफ खत्रीज' में कहा है ....
कपूर खन्ना और मेहरा .. इन तीनो अल्ल के लोग कोशल्य गोत्र के हैं , किंतु ये सभी एक दूसरे से खुलकर विवाह संबंध करते हैं। इन सभी का कौशल्य गोत्र माना जाना एक गलत सूचना पर आधारित प्रतीत होता है , क्यूंकि कपूर , खन्ना और मेहरा के वास्तविक गोत्र कौशिक , कौत्स और कौशल्य हैं।
यह सही माना जा सकता है , क्यूंकि अनादि काल से खत्री परिवार में एक ही पूर्वज की संतान होने को मानते हुए एक अल्ल के लोग अभी तक आपस में शादी विवाह नहीं करते थे। वैसे काश्यप गोत्र हर खत्री लिख सकता है , क्यूंकि भारत के समस्त सूर्यवंशी खत्रियों के मूल गोत्र प्रवर हैं। संपूर्ण खत्री जाति के पूर्वज ब्रह्मा जी के मानस पुत्र महर्षि मरीचि की कडी तपस्या के द्वारा कश्यप को प्राप्त करने के बाद उनके पुत्र विवस्वान और उनके पुत्र वैवस्पत हैं। वास्तव में खत्री समाज की मुख्य धारा से अलग थलग पड जाने से अनेक खत्री परिवार अपनी आर्ष ऋषि गोत्र परंपरा को भूलने लगे और कालांतर में भूल गए तो कोई अपने को खत्री लिखने लगा , कोई वर्मा भी।
उदाहरण के लिए लखनऊ का प्रसिद्ध खत्री परिवार गंगा प्रसाद वर्मा का है , जिनके नाम से अमीनाबाद में गंगा प्रसाद वर्मा मेमोरियल हाल और पुस्तकालय तथा धर्मशाला एवं अनेक संस्थाएं बनी हैं और जो आधुनिक लखनउफ के पूर्व निर्माता भी रहे हैं, वास्तव में पिहानी के टंडन खत्री हैं । इसी प्रकार अमीनाबाद क्षेत्र के ही प्रसिद्ध पूर्व साडी व्यवसायी स्वर्गीय सालिग राम खत्री का परिवार वास्तव में मेहरा खत्री हैं , पर उनके परिवार के सभी लोग अपने को मात्र खत्री ही लिखते हैं।
लेखक .. खत्री सीताराम टंडन जी
बुधवार, 3 फ़रवरी 2010
हमारे चारो ओर सांस्कृतिक अवमूल्यण और सांस्कृतिक प्रदूषण का गंभीर खतरा
आज हमारे चारो ओर सांस्कृतिक अवमूल्यण और सांस्कृतिक प्रदूषण का गंभीर खतरा हो गया है। डर तो यह भी बना हुआ है कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया के प्रभाव से भारतीय संस्कृति बचेगी या विलुप्त हो जाएगी। आज जब पश्चिम संपन्न देश भोग और विलास से परेशान होकर भारतीय संस्कृति की अच्छाइयों को अपना रहे हैं , तब हम भारतवासी अपनी अच्छाइयों को त्यागकर , अपनी संस्कृति से कटकर पश्चिम की ओर भाग रहे हैं। फिल्म और दूरदर्शन के माध्यम से पश्चिमी संस्कृति का लगातार आयात हो रहा है। जो व्यक्ति पश्चिमी संस्कृति और पश्चिमी जीवनशैली को नहीं अपना रहा है , वो पिछडा यानि बैकवर्ड माना जा रहा है। नकल ही करना है , तो पश्चिमी देशों में जो अच्छाइयां हैं , उनकी नकल की जानी चाहिए। आज भारतीय संस्कृति के अवमूल्यण के लिए अनेक संस्थाएं और व्यक्ति जिम्मेदार हैं , पर अश्लील फिल्मों और धारावाहिकों का निर्माण कर फिल्म और दूरदर्शन ने हमारी संस्कृति पर जबर्दस्त प्रभाव डाला है।
जब स्वस्थ फिल्म के निर्माण की बारी आती है , तो फिल्म निर्माताओं का रोना रहता है कि साफ सुथरी और संस्कार देने वाली फिल्में नहीं चलती हैं। प्रश्न यह है कि जनता पसंद करती है , इसलिए एक फिल्म निर्माता को अमर्यादित , अनैतिक और अश्लील दृश्यों को खुलेआम दिखाने और फिल्माने की छूट मिलनी चाहिए ? क्या फिल्म निर्माता निर्देशक की राष्ट्र के प्रति कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं ? यदि सभी फिल्म निर्माता यह संकल्प ले लें कि वे अश्लीलता और हिंसा को प्रोत्साहन देनेवाली फिल्में कतई नहीं बनाएंगे , सरकार और सेंसर बोर्ड संकल्प ले लें कि वे गंदी फिल्में या धारावाहिक चलने नहीं देंगे , तो साफ सुथरी शिक्षाप्रद फिल्में और धारावाहिक अच्छी तरह चल सकते हैं।
यदि ऐसी फिल्में कम भी चलें , तो फिल्म निर्माताओं को राष्ट्र की जनता के चारित्रिक संरक्षण के लिए कुछ कुर्बानी और त्याग करना चाहिए। पैसा कमाना ही सबकुछ नहीं। यह मनुष्य की कमजोरी है कि वो अशुभ और असत्य की ओर अधिक आकर्षित होता है तथा शुभ और सत्य की ओर कम। इसका कारण यह है कि ऊपर चढना बहुत कठिन होता है और नीचे गिरना बहुत आसान।फिल्म निर्माता इसी मानव कमजोरियों का लाभ उठाना चाहते हैं। मानव जीवन में जो बुराइयां या घटनाएं कहीं भी देखने को नहीं मिलेंगी या जो देश के किसी कोने में अपवादस्वरूप हैं , उसमें मिर्च मसाला लगाकर उसको उग्र और विकृत कर उसे सार्वजनिक समस्या के रूप में पर्दे पर पेश कर दिया जाता है। हजारो प्रकार के साफ सुथरे मनमोहक , शालीन नृत्य और लोकनृत्य देश के कोने कोने में भरे पडे हैं, परंतु इसे प्रमुखता न देकर नग्नता और कामुकता को बढावा दिया जाता है। विभिन्न संस्थाओं और कंपनियो द्वारा आयोजित की जाने वाली सौंदर्य प्रतियोगिताओं के कारण भी देश में सांस्कृतिक प्रदूषण बढ रहा है। घोर आश्चर्य है कि प्रमुख अखबार फरवरी माह में वेलेन्टाइन डे मनाने के लिए बकायदा विज्ञापन देकर युवक युवतियों को प्रेम भरे पत्र लिखने के लिए उकसाकर पैसे कमाते हैं। हमारी संस्कृति में व्यक्तिगत रहनेवाला पेम अब सार्वजनिक रूप ले चुका है। संबंधित सभी व्यक्ति और संस्थाएं यदि राष्ट्र के प्रति और राष्ट्र की संस्कृति के प्रति अपने कर्तब्यों का उचित निर्वहन करें , तो भारतीय संस्कृति की गरिमा अक्षुण्ण रह सकती है।
लेखक ... आर के मौर्य जी
जब स्वस्थ फिल्म के निर्माण की बारी आती है , तो फिल्म निर्माताओं का रोना रहता है कि साफ सुथरी और संस्कार देने वाली फिल्में नहीं चलती हैं। प्रश्न यह है कि जनता पसंद करती है , इसलिए एक फिल्म निर्माता को अमर्यादित , अनैतिक और अश्लील दृश्यों को खुलेआम दिखाने और फिल्माने की छूट मिलनी चाहिए ? क्या फिल्म निर्माता निर्देशक की राष्ट्र के प्रति कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं ? यदि सभी फिल्म निर्माता यह संकल्प ले लें कि वे अश्लीलता और हिंसा को प्रोत्साहन देनेवाली फिल्में कतई नहीं बनाएंगे , सरकार और सेंसर बोर्ड संकल्प ले लें कि वे गंदी फिल्में या धारावाहिक चलने नहीं देंगे , तो साफ सुथरी शिक्षाप्रद फिल्में और धारावाहिक अच्छी तरह चल सकते हैं।
यदि ऐसी फिल्में कम भी चलें , तो फिल्म निर्माताओं को राष्ट्र की जनता के चारित्रिक संरक्षण के लिए कुछ कुर्बानी और त्याग करना चाहिए। पैसा कमाना ही सबकुछ नहीं। यह मनुष्य की कमजोरी है कि वो अशुभ और असत्य की ओर अधिक आकर्षित होता है तथा शुभ और सत्य की ओर कम। इसका कारण यह है कि ऊपर चढना बहुत कठिन होता है और नीचे गिरना बहुत आसान।फिल्म निर्माता इसी मानव कमजोरियों का लाभ उठाना चाहते हैं। मानव जीवन में जो बुराइयां या घटनाएं कहीं भी देखने को नहीं मिलेंगी या जो देश के किसी कोने में अपवादस्वरूप हैं , उसमें मिर्च मसाला लगाकर उसको उग्र और विकृत कर उसे सार्वजनिक समस्या के रूप में पर्दे पर पेश कर दिया जाता है। हजारो प्रकार के साफ सुथरे मनमोहक , शालीन नृत्य और लोकनृत्य देश के कोने कोने में भरे पडे हैं, परंतु इसे प्रमुखता न देकर नग्नता और कामुकता को बढावा दिया जाता है। विभिन्न संस्थाओं और कंपनियो द्वारा आयोजित की जाने वाली सौंदर्य प्रतियोगिताओं के कारण भी देश में सांस्कृतिक प्रदूषण बढ रहा है। घोर आश्चर्य है कि प्रमुख अखबार फरवरी माह में वेलेन्टाइन डे मनाने के लिए बकायदा विज्ञापन देकर युवक युवतियों को प्रेम भरे पत्र लिखने के लिए उकसाकर पैसे कमाते हैं। हमारी संस्कृति में व्यक्तिगत रहनेवाला पेम अब सार्वजनिक रूप ले चुका है। संबंधित सभी व्यक्ति और संस्थाएं यदि राष्ट्र के प्रति और राष्ट्र की संस्कृति के प्रति अपने कर्तब्यों का उचित निर्वहन करें , तो भारतीय संस्कृति की गरिमा अक्षुण्ण रह सकती है।
लेखक ... आर के मौर्य जी
मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010
आज की राजनीति : आवश्यकता या मजबूरी
राजनीति का जन्म चाणक्य की देन है। किसी विषय पर सहमति या असहमति जताकर , नीतिगत निर्णय लेकर उसे परिणाम तक पहुंचा देना ही राजनीति है। पहले राजनीति जनता की भलाई के लिए की जाती थी, परंतु आज तो शायद राजनीति करने भर को ही रह गयी है। राजनीति का स्वरूप बिगडकर मात्र विरोध करने और समर्थन देने तक ही सिमटकर रह गया है,चाहे वह विरोध नीतिगत हो या अनीतिपूर्ण हो। आज केवल जनता पर शासन करने की मंशा ही राजनीति है। आज की ये सस्ती राजनीति हमारे घर से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मंच तक देखने को मिल जाएगी। ऐसी राजनीति आज हमारे खून तक आ पहुंची है। आज हम न चाहते हुए भी हर क्षेत्र में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राजनीति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते।
1947 की आजादी के बाद टूटे फूटे भारत को फिर से खडा करने के लिए हमारे बुद्धिजीवियों ने जो खाका तैयार किया , उसका अच्छा या बुरा जो भी परिणाम आया वो हमारे सामने है। सरदार पटेल की दृढ इच्छा शक्ति अगर काम न करती तो इस देश के न जाने कितने टुकडे होते। पर हमारा देश आज विश्व का सबसे बडा लोकतंत्र है , जिसे विश्व समुदाय एक उपमहाद्वीप के रूप में संबोधित करता है। ऐसी कौन सी बुराई हमारे देश में आज भी विद्यमान है , जिसके कारण हम सभी भारतीय केवल भारतीय नहीं बन पाते।
हम आज भी हिंदू मुस्लिम के नाम से लडते हैं , अगाडी और पिछडा वर्ग के नाम पर बंटे हुए हैं , जाति के नाम पर अलग अलग सोंच रखते हैं , क्यूं न हम अपने भारतीय होने पर गर्व करें ? हम केवल भारतीय कब बन पाएंगे ? ऐसी राजनीति हमारे देश में कब जन्म लेगी ? क्या फिर देश में कोई चाणक्य पैदा होगा , जो आज की राजनीति का अध्याय समाप्त कर नीतिगत , रचनात्मक राजनीति का नया अध्याय , नया आयाम शुरू करेगा ?
आज की राजनीति आज के नेताओं के लिए एक आवश्यकता मात्र हो सकती है , परंतु आम जनता के लिए यह एक मजबूरी मात्र है , जिसे आम जनता आंख मूंदकर ढोने को बाध्य हैं।
लेखिका ... पूनम जोधपुरी
1947 की आजादी के बाद टूटे फूटे भारत को फिर से खडा करने के लिए हमारे बुद्धिजीवियों ने जो खाका तैयार किया , उसका अच्छा या बुरा जो भी परिणाम आया वो हमारे सामने है। सरदार पटेल की दृढ इच्छा शक्ति अगर काम न करती तो इस देश के न जाने कितने टुकडे होते। पर हमारा देश आज विश्व का सबसे बडा लोकतंत्र है , जिसे विश्व समुदाय एक उपमहाद्वीप के रूप में संबोधित करता है। ऐसी कौन सी बुराई हमारे देश में आज भी विद्यमान है , जिसके कारण हम सभी भारतीय केवल भारतीय नहीं बन पाते।
हम आज भी हिंदू मुस्लिम के नाम से लडते हैं , अगाडी और पिछडा वर्ग के नाम पर बंटे हुए हैं , जाति के नाम पर अलग अलग सोंच रखते हैं , क्यूं न हम अपने भारतीय होने पर गर्व करें ? हम केवल भारतीय कब बन पाएंगे ? ऐसी राजनीति हमारे देश में कब जन्म लेगी ? क्या फिर देश में कोई चाणक्य पैदा होगा , जो आज की राजनीति का अध्याय समाप्त कर नीतिगत , रचनात्मक राजनीति का नया अध्याय , नया आयाम शुरू करेगा ?
आज की राजनीति आज के नेताओं के लिए एक आवश्यकता मात्र हो सकती है , परंतु आम जनता के लिए यह एक मजबूरी मात्र है , जिसे आम जनता आंख मूंदकर ढोने को बाध्य हैं।
लेखिका ... पूनम जोधपुरी
सोमवार, 1 फ़रवरी 2010
आडंबर एवं प्रदर्शन समाज के लिए घातक होता है !!
यह सुविदित है कि हमारे धर्मपरायण समाज की आधारशिला 'सादा जीवन उच्च विचार' रही है। मर्यादित परिग्रह में दृढ आस्था रखनेवाले हमारे पूर्वजों ने आदर्श जीवन यापन किया है। उनके द्वारा प्रस्तुत कई उदाहरण आज भी इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं। पूर्वकाल में साधन संपन्न व्यक्ति फिजूलखर्ची में अपनी संपत्ति का प्रदर्शन नहीं करते थे। उसका उपयोग समाज , राष्ट्र और बहुजनहिताय होता था। इसी कारण वे महाजन कहलाते थे। इसी परंपरा को निभाना हमारा कर्तब्य है , साथ ही आज के वातावरण में आवश्यक भी। अत: हमारे धार्मिक सामाजिक समारोह सादगीपूण होना चाहिए तथा दिखावे और आडंबर को बढावा नहीं दिया जाना चाहिए।
वर्तमान काल की इस भौतिक चकाचौध में हमारा समाज अधिकाधिक लिप्त होता जा रहा है, मानों आपसी होड सी लगी हुई है। इस कारण समाज का बडा हिस्सा तनावग्रस्त है , साथ ही स्थानीय जनता में भी हमारे आडंबर को देखकर इर्ष्या और द्वेष की भावना जन्म ले रही है , जो समाज हित में नहीं है। समाज में सभी का आर्थिक स्तर एक सा नहीं होता , फिर भी अधिकांश लोग देखा देखी झूठी शान के चक्कर में ऐसे गैर जरूरी रीति रिवाजों को निभाने के लिए , मिथ्या आडंबर और अनावश्यक प्रदर्शन का अंधानुकरण करने के लिए विवश हो जाते हैं, जो बाद में उनके लिए पीडादायक बन जाता है।
अत: समाज में पनपती इन प्रवृत्तियों को रोकने के लिए हमें अपने सामाजिक समारोहो की पद्धति पर पुनर्विचार कर कुछ मर्यादाएं निश्चित करनी चाहिए , जो बहुजन हिताय की दृष्टि से सभी को मान्य हो , क्यूंकि इन आडंबरों का उद्देश्य अधिकतर धार्मिक भावना न होकर समाज में प्रतिष्ठा के मापदंड मे दसरों से ऊंचा दिखना होता है। क्षणिक वाहवाही के लिए किए गए इन आयोजन न तो शासन हित में ही है और न ही समाज के लिए उपयोगी। अत: धार्मिक तथा सामाजिक समारोहो में , शादी विवाह के अवसर पर तथा अन्य सामूहिक आयोजनों पर दिखावा और प्रदर्शन नहीं किया जाए , यही समय की मांग है और आज के युवा वर्ग की पसंद भी। इस संदर्भ में सभी का चिंतन हो और कुछ ठोस निर्णय लेकर सभी को मानने को बाध्य किया जाए !!
लेखिका ... पूजा कोहली
वर्तमान काल की इस भौतिक चकाचौध में हमारा समाज अधिकाधिक लिप्त होता जा रहा है, मानों आपसी होड सी लगी हुई है। इस कारण समाज का बडा हिस्सा तनावग्रस्त है , साथ ही स्थानीय जनता में भी हमारे आडंबर को देखकर इर्ष्या और द्वेष की भावना जन्म ले रही है , जो समाज हित में नहीं है। समाज में सभी का आर्थिक स्तर एक सा नहीं होता , फिर भी अधिकांश लोग देखा देखी झूठी शान के चक्कर में ऐसे गैर जरूरी रीति रिवाजों को निभाने के लिए , मिथ्या आडंबर और अनावश्यक प्रदर्शन का अंधानुकरण करने के लिए विवश हो जाते हैं, जो बाद में उनके लिए पीडादायक बन जाता है।
अत: समाज में पनपती इन प्रवृत्तियों को रोकने के लिए हमें अपने सामाजिक समारोहो की पद्धति पर पुनर्विचार कर कुछ मर्यादाएं निश्चित करनी चाहिए , जो बहुजन हिताय की दृष्टि से सभी को मान्य हो , क्यूंकि इन आडंबरों का उद्देश्य अधिकतर धार्मिक भावना न होकर समाज में प्रतिष्ठा के मापदंड मे दसरों से ऊंचा दिखना होता है। क्षणिक वाहवाही के लिए किए गए इन आयोजन न तो शासन हित में ही है और न ही समाज के लिए उपयोगी। अत: धार्मिक तथा सामाजिक समारोहो में , शादी विवाह के अवसर पर तथा अन्य सामूहिक आयोजनों पर दिखावा और प्रदर्शन नहीं किया जाए , यही समय की मांग है और आज के युवा वर्ग की पसंद भी। इस संदर्भ में सभी का चिंतन हो और कुछ ठोस निर्णय लेकर सभी को मानने को बाध्य किया जाए !!
लेखिका ... पूजा कोहली
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
-
(खत्री सीताराम टंडन जी के सौजन्य से) दिल्ली निवासी एक खत्री किशन दयाल द्वारा लिखे गए फारसी ग्रंथ 'अशरफुल तवारीख' के अनुस...
-
mehra surname belongs to which cast पं द्वारका प्र तिवारी जी के द्वारा लिखित 'खत्री कुल चंद्रिका' में लिखा मिलता है कि एक खत्...
-
bhatia konsi cast hoti hai जिन क्षत्रियों ने परशुराम के क्षत्रिय संहार के समय भटनेर नामक ग्राम या नगर में शरण ली थी , उन्हें ही भाट...
क्या ईश्वर ने शूद्रो को सेवा करने के लिए ही जन्म दिया था ??
शूद्र कौन थे प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर थी, पर धीरे-धीरे यह व्यवस्था जन्म आधारित होने लगी । पहले वर्ण के लोग विद्या , द...
