khatri samaj kuldevi
खत्री जाति एक प्राचीन और विशिष्ट जाति है। म्रिश्र के लगभग दो हजार वर्ष पूर्व हुए भूगोल वेत्ता टालमी ने भी ईसा की दूसरी शताब्दी में 'खत्रियाओं' राज्य होने का उल्लेख किया है। खत्रियों का मूल स्थान सारस्वत प्रदेश है और आजतक इस प्रदेश के सारस्वत ब्राह्मणों तथा खत्रियों में खान पान का जो पारस्परिक संबंध है , वैसा भारत के किसी प्रदेश के ब्राह्मण का किसी दूसरी जाति के साथ नहीं है .
खत्री धर्म और संसकृति के आधार पर वेदों को मानने वाली धर्म निष्ठ जाति है। खत्री मुख्य रूप से शक्ति के उपासक हैं। सभी खत्री किसी न किसी नाम से शक्ति की पूजा करते हैं , शक्ति की पूजा करते हैं , शक्ति ही उनकी कुल देवी है। वैसे ये गणपति , शिव , सूर्य , शक्ति और विष्णु सभी को मानते और उपासना करते हैं। खत्री धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से परंपरावादी है। वे शास्त्रो में वर्णित नैमित्तिक कर्मों संस्कार आदि का पूर्ण पालन करते हैं। भाषा और बोली में अंतर होने के कारण संस्कारों के नाम बदल दिए गए हैं। परंतु हर जगह सभी संस्कार अरोये , भोडे , देवकाज और मुंछन , यज्ञोपवीत तथा विवाह आदि किए जाते हैं। खत्रियों में विवाह के संबंध में कोई करार या लेन देन की बातें तय नहीं होती। विवाह सादगी से होता है और विवाह के समय दोनो ही पक्ष अपनी सामर्थ्य के अनुसार खर्च करते हैं।
विवाह के अवसर पर कन्या मामा के द्वारा मंसा गया सौभाग्य का प्रतीक हाथी दांत का लाल रंग का चूडा और सालू की ओढनी विशेष तौर पर पहनती है। वर जामा पहनकर हाथ में तलवार लेकर , मस्तक पर पंचदेव से सुशोभित मुकुट और फूलों का सेहरा बांधकर घोडी पर चढकर वीर भेष में विवाह हेतु आता है। विवाह कार्य केले के चार खम्बों और फूलों , खिलौनो आदि से सजी वेदी , जिसके ऊपर सालू और फूलों का चंदोवा टंगा रहता है , में ब्राह्म विधि से किया जाता है। विवाह के पहले कन्या द्वारा वर के गले में जयमाल डालने की परंपरा भी बहुत पुरानी है। खत्रियों में प्रथम संतान के मुंडन के पूर्व देवकाज का विशेष महत्व है , इस अवसर पर ही प्रथमाचार कुलदेवी का दर्शन किया जाता है। खत्रियों की बाकी परंपरा के बारे में आप अगले आलेख में अधिक जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।
(खत्री हितैषी के स्वर्ण जयंती विशेषांक से साभार)
3 टिप्पणियां:
@ आज जिन्हें प्राय: क्षत्रिय कहा जाता है , उन ठाकुरों राजपूतों के गोत्र और प्राचीन ऋषियों के गोत्र में यह समानता नहीं है।
आप का कहना भ्रामक नहीं पूर्णत: ग़लत है। कृपया अपनी बात का प्रमाण दें।
हक़ीकत ये है कि खत्रियों ने वैश्य कर्म अपना लिया इसलिए वर्ण भ्रष्ट हो गए।
पश्चिम भारत में बौद्ध धर्म का प्रभाव कम होने से ब्राह्मण वर्ण का वर्चस्व था जिन्हों ने खत्रियों को बाहर जाने रास्ता दिखा दिया।
गोधूलि वर्मा जी,
इस आलेख में लिखे गए तथ्य मेरे अपने विचार नहीं हैं .. मैने लिखा भी है .. कि 'खत्री हितैषी' के स्वर्ण जयंती विशेषांक से साभार लिया गया है .. मैने आपके प्रश्न उन तक पहुंचा दिए हैं .. फिर भी आपत्तिजनक बातों को इस लेख से हटा दिया जा रहा है .. वैसे सारस्वत ब्राह्मणों का खत्रियों के साथ कैसा संबंध था .. इसके बारे में वे ही अधिक अच्छी तरह बतला सकते हैं !!
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