बुधवार, 9 दिसंबर 2009

इंसानों की जात के इतने व्‍यक्तियों के होते हुए देश की ऐसी दशा ??



आज हमारे देश की स्थिति बहुत ही शोचनीय है , देश में ऐसा कोई मुद्दा नहीं रह गया है , जिसपर हम गर्व कर सके। सभी धर्म , सभी संप्रदाय के लोग देश को टुकडों में बांटने की कोशिश कर रहे हैं। देश के इस स्थिति को दूर करने के उद्देश्‍य से मैने अपने 'खत्री समाज' के लोगों को संगठित करने के ध्‍येय से एक ब्‍लॉग बनाया , जिसमें अपने पुरखों की देशभक्ति की याद दिलाते हुए देश की आज की समस्‍या से निबटने के लिए आह्वान किया। मैने हिन्‍दू , मुस्लिम और सिख धर्म के बीच संबंध दिखाते हुए कई आलेख तक पोस्‍ट किए। 

पर इस पोस्‍टसे मालूम हुआ कि हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत के अधिकांश लोग जात पात पर विश्‍वास नहीं रखते, क्‍यूंकि वे इंसानों की जात के हैं। जानकर मेरी प्रसन्‍नता की सीमा नहीं रही , पर ताज्‍जुब भी हुआ कि इंसानों की जात के इतने लोगों के होते हुए देश की यह दशा क्‍यूं है। चिंतन करने पर महसूस हुआ कि लिखने और बोलने के लिए तो सारे इंसान हो सकते हैं , पर कितने ब्‍लॉगर इंसानियत के नियमों का पालन करते हैं , अपने शरीर , अपने मौज , अपनी पत्‍नी , अपना पति , अपना बच्‍चा, अपने माता , अपने पिता, अपना भाई , अपनी बहन , के लिए सोंचते वक्‍त कितने ब्‍लॉगरों के मनोमस्तिष्‍क में दूसरों का शरीर , दूसरों के मौज , दूसरों की पत्‍नी , दूसरों का पति , दूसरों का बच्‍चा , दूसरों के माता , दूसरों के पिता , दूसरों के भाई और दूसरों के बहन के बारे में सोंचते हैं।

प्राचीन काल में भी उच्‍च स्‍तर के लोगों की जाति नहीं होती थी , राजे महाराजाओं के घरों के विवाह किसी भी जाति के राजा महाराजाओं के यहां हुआ करता था। ऊपरे स्‍तर की जाति के लोगों को अभी भी छोड दिया जा सकता है , क्‍यूंकि उनके लिए कई कई पीढियों से हर सुख सुविधा के साधन एकत्रित किए गए हैं। इसलिए उनके अधिकांश लोग उन बीस प्रतिशत भारतीयों में आ सकते हैं , जिनके रोजगार के लिए हर क्षेत्र में कुछ न कुछ रोजगार हैं , इसलिए जाति व्‍यवस्‍था उनके लिए बकवास है। पर नीचले स्‍तर की जातियों की उनलोगों की सोंचे , जहां आज भी 60 से 70 प्रतिशत आबादी अपने परंपरागत रोजगार में ही संलग्‍न हैं। उनलोगों का समाज किसी के कहने से इतनी आसानी से टूट नहीं सकता। 

आज भी एक पेशेवाले लोग शादी विवाह के बंधन में बंधना पसंद करते हैं। एक डॉक्‍टर अपना विवाह एक डॉक्‍टर , और कलाकार एक कलाकार से ही करना चाहता है , क्‍यूंकि इस स्थिति में एक की अनुपस्थिति में दूसरों के द्वारा कार्य को संभाले जाने की सुविधा होती है। व्‍यक्तिगत परिवारों में इतना ही काफी है , पर संयुक्‍त परिवारों में एक जैसे व्‍यवसाय वाले परिवारों के जुडने से आपस में समायोजन करना अधिक आसान होता है , क्‍यूंकि हमारे अंदर परिवेश की मानसिकता होनी ही है। 

आज किसी शहर में एक ब्‍लॉगर पहुचते हैं , तो एक ब्‍लॉगर मीट का आयोजन कर लेते हैं , 'हमारा ब्‍लॉगर समाज' बनता जा रहा है। जब तीन चार वर्षों की मित्रता को इतना महत्‍व दिया जा रहा हो , युगों युगों से चली आ रही पीढी दर पीढी के परिचय को इतनी जल्‍दी भुलाना आसान भी नहीं। हां , आज अन्‍य क्षेत्रों की तरह ही समाज के नाम पर संकुचित मानसिकता के परिणामस्‍वरूप होने वाली इसके बुरे प्रभाव का मैं अवश्‍य विरोध करती हूं।

(लेखिका .. संगीता पुरी)

3 टिप्‍पणियां:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

विचारणीय मुद्दे उठाये है आपने !

श्यामल सुमन ने कहा…

यह सच है कि सैद्धान्तिक रूप से जाति-प्रथा या जातिगत संस्था का समर्थन नहीं किया जा सकता है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आज की भारतीय परिस्थिति में जाति व्यवस्था आंतरिक रूप उतनी ही मजबूत है।

विचारणीय चर्चा संगीता जी।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

aarya ने कहा…

संगीता जी
सादर वन्दे!
मै आपके बातो को नकार नहीं सकता!
आपके सामने मै बच्चा हूँ, पर मै अब भी वर्ण व्यवस्था पर ही बिश्वास करता हूँ, और मुझे लगता है कि समाज के लिए इससे उपयुक्त रास्ता कोई नहीं होगा.
रत्नेश त्रिपाठी

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