पच्छिए खत्रियों के आगमन का युग और उसके बाद की राजनैतिक अवस्था ऐसी थी , जिससे उनका पंजाब के साथ किसी न किसी प्रकार का संबंध बना रहा। पच्छिए खत्रियों के आगमन के आगमन के समय इनके पुरोहित सारस्वत ब्राह्मणों का एक बडा दल भी पंजाब से आकर इन प्रदेशों में बस गया। इन्हें अपने संस्कार रीति रिवाज संपन्न कराने के लिए अपने पुरोहित सुलभ थे। इस कारण ये अपने रीतिरिवाज को बनाए रखने में सफल रहे। इनमें क्षेत्रीय परिस्थितियों के कारण कुछ आवश्यक मामूली परिवर्तन ही देखने को मिलते हैं।
देश के बंटवारे के पूर्व तक पच्छए खत्रियों के अधिकांश बच्चे एक बार चोटी उतरवाने के लिए 'बाबे के मंदिर' में जाते थे और इस प्रकार पंजाब से उनका भावनात्मक संबंध सदैव बना रहा। इनके घरों में बोली जानेवाली भाषा भी शुद्ध खडी बोली रही। पच्छए खत्रियों के घर में नू(बहू), धी(पुत्री), पुत्तर(पुत्र), भावो(मां), कुडी(लडकी), गुत्त(चोटी), का प्रयोग अभी तक होता आ रहा है। यहां तक कि विवाहादि अवसरों पर दोहे सिटनी में बडे स्तर पर पंजाबी शब्दों का प्रयोग होता है।
( खत्री हितैषी के स्वर्ण जयंति विशेषांक से)
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