मंगलवार, 10 नवंबर 2009

पूर्विए खत्री के साथ उनके प्रदेशों में सारस्‍वत ब्राह्मण नहीं जा सकें !!



प्रारंभ में पंजाब से आनेवाले खत्रियों के साथ खत्रियों के पुरोहित 'सारस्‍वत ब्राह्मण' नहीं जा सके थे और उन्‍हें अपने संस्‍कार , यज्ञोपवीत विवाह आदि के लिए ब्राह्मणों की आवश्‍यकता थी। संस्‍कारों का विधिवत संपन्‍न कराने के लिए उन्‍हें स्‍थानीय ब्राह्मणों में से ही अपने लिए पुरोहित पाधा को स्‍वीकार करना पडा। बहुत पहले से रहने के कारण उनकी बोली पर भी क्षेत्र का व्‍यापक प्रभाव पडना स्‍वाभाविक ही था। अत: खडी बोली के साथ ही साथ अवधी और ब्रजभाषा का व्‍यपक प्रभाव उनकी बोली चाली , रहन सहन पर पडा। उस समय की राजनीतिक उथल पुथल के कारण उनका संपर्क पंजाब के साथ नहीं रह सका। 

पूर्विए खत्रियों ने अपने मूल पुरोहित सारस्‍वत ब्राह्मणों के अभाव और क्षेत्रीय लोकाचार के कारण पूर्व के अनेक रीति रिवाजों को भी अपना लिया। फिर भी खत्रियों के रक्‍त का प्रभाव ही था कि प्रतिकूल पारस्थितियों में भी वे खत्री जाति के मूल रूप को बनाए रखने में सफल रहें। विवाह संस्‍कार के शुभ अवसर पर 'घोडी' , 'तलवार' , 'वेदी' और हाथी दांत का 'चूडा' आदि खत्री विवाह संसकार की आवश्‍यक विशेषताओं को इन्‍होने कभी नहीं छोडा और अपने जाति का गौरव बनाए रखा।


( खत्री हितैषी के स्‍वर्ण जयंति विशेषांक से)

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