आध्यात्मिक ज्ञान सहित जीवन प्रदत्त शिक्षा के लिए भारत विश्व में अग्रणी रहा है। साम्य भाव के स्तर पर निर्धन , धनी शिष्यों की एकता , नैतिकता और कर्मठता का पाठ व्यावहारिक , शैक्षिक स्थल से ही जिन गुरू आश्रमों में परहित भाव से प्राप्य था , अब वह अलभ्य ही नहीं , अपितु बदरंग हो नाना विधि प्रपंचों में दृष्टिगत है। पाश्चात्य शिक्षा और विज्ञान के विकासोन्मुख राह पर भले ही आज प्रगति की रंगीनी से व्यक्ति चांद तक पहुंचा है , किन्तु प्राचीनतम ग्रंथों की खोज से ज्ञात है कि किसी भी विषय के ज्ञान क्षेत्र मं भारत पिछडा न था।
आधुनिकतम शिक्षा जितनी महंगी और आडंबरपूर्ण है , उतनी ही कंटकों से भरपूर भी है। पहले तो अभिभावक पब्लिक स्कूलों में 'डोनेशन' से लेकर उच्च फीसें देकर अपनी संतति के लिए शीश महल बनाने के सपने देखते हैं , उसके बाद युवक इंजीनियरिंग , डाक्टरी या प्रशासनिक सेवाओं के लिए घर बार छोडकर अभिभावकों को गंधर्व नगर की योजनाओं से प्रलोभित कर नाना कोचिंग सेंटरों का आश्रय ले हजारों लाखों का धन और श्रम व्यय कर या नकली डिग्रियां उपलब्ध कर निराश्रित होते हैं। ये न केवल माता पिता की आंखों में धूल झोंकते हैं , अपने छल छद्म और भुलावे के हथकंडों से न केवल समाज को भ्रमित करते हैं ,अपितु स्वयं भी हीनता के गर्त से अभिभूत मानसिक संतुलन खो आनंद की खोज में नशीली ड्रग , शराब से तनाव रहित होने की चेष्टा में स्वयं के कर्मक्षूत्र से विरत मृगतृष्णा के भंवर से टकराते हैं। ऐसी दशा में अभिभावकों की आशाओं पर तुषारापात होता ही है , बल्कि शिक्षित युवा पीढी की असीम अर्थ लिप्सा औ इसके लिए दुष्चेष्टा निराश्रित मां बाप से भी कर्तब्य विमुख करती है।
वस्तुत: आज की शिक्षित युवा समाज की इस महामारी प्रकोप का उत्तरदायित्व दूषित संस्कार , शिक्षा और समाज पर है। बढते ऐश्वर्य साधन की उपज , व्यपारीकरण के कोरे ज्ञान दंभ का पक्षधर युवा महत्वाकांक्षाओं की उडान में मॉडलिंग , सौंदर्य प्रतियोगिताएं , चटपटे नग्न फैशन , नशाखोरी या टी वी के उत्तेजक दृश्यों से सर्वत: प्रलोभित सफलता के भ्रम से पचपका है। उचित शिक्षा नियंत्रण में दिशा दर्शन के लिए एक ओर जहां संयम और अनुशासनहीनता वश लाड प्यार लुटाने अभिभावक अपराधी हैं , तो दूसरी ओर कतिपय मनचले लोलुप शिक्षक और समाज। शिक्षा के मूलभूत आंतरिक स्वच्छता और निष्ठा के अभाव में युवाओं का पतन निहित है। आरंभिक शिक्षा के मूल से ही चरित्र और नैतिकता की पृष्ठभूमि पर बाह्य की अपेक्षा अंतस का पुनर्स्थापन संभव है। सागर की गहराई में मोती की उपलब्धि है। श्रेयस्कर वरीयता के लिए शिक्षा के बाह्य और अंत का संतुलन बेहद आवश्यक है। चहुं ओर प्रकाश फेकने वाले दीप को ही हम सुंदर कह सकते हैं।
लेखिका ... डा श्रीमती रमा मेहरोत्रा
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2 टिप्पणियां:
दिया का गुण तेल है,राखे मोटी बात्।
दिया करता चांदणा, दिया चाले साथ॥
बहुत सुन्दर आलेख है रमा जी को बहुत बहुत बधाई और शन्यवाद
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