अरोड शब्द की व्याख्या के अनुसार अरोड प्रांत के राजा या क्षत्रिय अरोडा कहलाए। इतिहासकार टॉड की राय है कि अरोडनगर सिंधु नदी के किनारे पर वर्तमान रोडी या अरोडी नगर से पांच मील पूर्व की ओर था। सिंधु नदी किसी समय में अरोड नगर के नीचे बहा करती थी।
लाहौर विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में मौजूद फारसी में लिखी दो हस्त लिखित पुस्तक के आधार पर बताया जाता है कि अरोड सिंध की राजधानी थी। अरबों के आक्रमण के बाद आठवीं शताब्दी के प्रारंभ में अरोडा सिंधु नदी के किनारे किनारे उत्तर की ओर बढते गए , जहां उन्हें उचित स्थान मिला , वहां बसते गए तथा जो व्यवसाय धंधे मिलते गए , उसे अपनाते गए।
करीब तीन सौ वर्ष बाद जब पंजाब में आक्रमण हुए तो अनेक अरोडवंशी सिंध की ओर लौटे। वहां उन्होने स्वयं को लोहा वरणा या लोहावर कहा। धरे धीरे उच्चारण भेद से वे लोहाणे कहलाने लगे। आजकल भी लोहाणे में जो गीत गाए जाते हैं , वे लाहौर की ओर ही इशारा करते हैं।
अरोडवंशियों की दिशांतर भेदों के अलावा धीरे धीरे स्थान और पूर्वजों के आधार पर भी अनेक शाखाएं हो गयी , जैसा कि उनके सैकडों अल्लों से पता चलता है। अरोड वंश के अल्लों की चर्चा भी इसी कडी में आगे की जाएगी। अरोडवंशी स्वयं को काश्यप गोत्र के क्षत्रिय मानते हैं।
अगले लेख में हम अरोडवंशियों का राजस्थान के साथ संबंध की चर्चा करेंगे।
(खत्री हितैषी के स्वर्ण जयंती विशेषांक से साभार)
3 टिप्पणियां:
अद्भुत।
जानकारी देने के लिए शुक्रिया।
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