युग बीता अंग्रेज गए , क्यूं अंग्रेजी अब भी रानी।
दासी बनकर हिन्दी बोलो , भरेगी कब तक उसका पानी ?
गैरों के न हम कपडे पहनें, न औरों का भोजन खाते।
क्यूं चोट ना लगे स्वाभिमान को , गैरों की भाषा अपनाते।।
नाम लंच है खाते मगर , हिंदुस्तानी खाना यारों।
'हाय हलो' उनका आना , 'सी यू' है जाना यारों।
मातृभूमि की मिट्टी की अब , सोंधी महक तुम पहचानों।
'रश्मि रथी' पर बैठ जरा , 'भारत भारती' को जानों।।
'कामायनी' से 'उर्वर्शी' तक , काब्य रस का पीले प्याला।
जो हो तेरा 'आकुल अंतर' , 'मधुशाला' में 'मधुबाला' ।।
रहीम , मीरा , कबीर , जायसी, सूर , केशव , तुलसीदास।
है 'सतसैया' के दोहे , पढो जितनी बढेगी प्यास।।
देश अपनी भाषा अपनी , स्वतंत्र जल थल अपने।
याद करो बापू की हसरत , आज के भारत के सब सपने ।।
हां , बुरा नहीं है कोई ज्ञान , इंगलिश जानों , अरबी जानों।
पर अपनी मिट्टी अपनी होती है, हिंदी को ही अपना मानों।।
बंगला समझो , मराठी समझो , और मद्रासी , सिंधी भी।
हिंद देश की हिंदी भाषा , 'जय हिंद' ही नहीं, 'जय हिंदी' भी ।।
रचयिता ... योगेन्द्र सिंह जी
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4 टिप्पणियां:
wah bahut khubsurat kavita ....jai hindi....
bahut shukriya ise padhaane ka.
जय हिंद ही नहीं, जय हिंदी भी ।।
योगेन्द्र सिंह जी की रचना पढ़वाने का आभार.
देखो हम बोत बड़ा आफिसर होता, हिंडी का सर्विस हम भी करना मांगटा...हम हर साल हिंडी डे पर अपना नाम हिंडी में लिखटा...बस उसका लेटर्स इंग्लिश में होटा...
जय हिंद...
जय हिंदी
जय हिंद
जय हिंदुस्थान
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