मंगलवार, 12 मई 2020

उपनयन का महत्‍व

16 sanskar in hindi

उपनयन का महत्‍व

हिंदू धर्म में उपनयन का बहुत महत्‍व है। इस संस्‍कार को बालक के समझदार होने पर करने का विधान है , जिससे वह धार्मिक कृत्‍यो को अच्‍छी तरह समझ सके और चरित्र निर्माण संबंधी बातों को समझ पाए। इसके बाद ही उसे धार्मिक कर्म ( यज्ञ , पूजन , श्राद्ध आदि) तथा शालाध्‍ययन का अधिकार प्राप्‍त होता है। उसे द्विजता प्राप्‍त होती है और वह गायत्री मंत्र का भी अधिकारी होता है। द्विज का अर्थ दूसरा जन्‍म है , बालक प्रथम जनम मे मां के उदर के अंधकार से मुक्‍त होता है और सांस्‍कारित जन्‍म में वह अज्ञान से मुक्‍त होकर ज्ञान के प्रकाश की ओर उन्‍मुख होता है। उसं गायत्री मंत्र संध्‍याकृत के साथ दो बार जाप करने का निर्देश दिया जाता है। 

संसार में सबसे ज्‍योतिर्मय सूर्य है। उससे ही स्थिरता , संयमितता और प्रखर बुद्धि के विकास की द्विज कामना करता है। विवेक , बुद्धि से वो प्रतिभाशाली और म‍हान बनता है। उपनयन के समय ब्रह्मचारी को उपवीत सूत्र पहनाया जाता है , जिसे जनेऊ कहते हैं। पहले बालक और बालिका दोनो का उपनयन होता था , परंतु कालांतर में बालिकाओं का उपनयन बंद हो गया , क्‍यूंकि उनका गुरूकुल में रहकर ज्ञानार्जन बंद हो गया। इसी कारण विवाहोपरांत जोडा जनेऊ पहना जाता है , क्‍यूंकि सभी धार्मिक कृत्‍य पति और पत्‍नी मिलकर करते हैं।

समावर्तन के बाद ब्रह्मचारी को विवाहोपरांत गृहस्‍थ जीवन व्‍यतीत करने का अधिकार मिलता है। हिंदू धर्म में विवाह को केवल कामयोग की कानूनी स्‍वीकृति नहीं माा गया है , यह स्‍त्री और पुरूष के बीच मिलकर घर गृहस्‍थी चलाने का एक समझौता भी नहीं है , जिसे ढोया या रद्द किया जा सके। यह एक समर्पण है , सहयोगी भावना से जीवन चलाने का संकल्‍प है , स्‍त्री सहधर्मिर्णी है , अर्द्धांगिनी है , विवाह का बंधन अटूट है। सुत , शील और धर्म तीनों ही पति और पत्‍नी के सामंजस्‍य पर निर्भर हैं। 

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जो जन्‍म लेता है , उसकी मृत्‍यु भी होती है , हिंदू धर्म पुनर्जन्‍म पर दृढ विश्‍वास रखता है। अत: अंत्‍येष्टि संस्‍कार में अनेक ऐसे कर्मकांड हैं , जो व्‍यक्ति को अगले जनम में शांतिपूर्ण जीवन जीने में मदद करते हैं। यदि उन्‍होने कोई पाप भी किया हो , तो कर्मकांड की मदद से उसका प्रक्षालन करने की कोशिश की जाती है। पूर्वजों से प्राणी का संबंध स्‍थापित कर उसे गौरव प्रदान करने की भावना को लेकर भी हमारे यहां कई कर्मकांड हैं। दशगात्र , सपिंडी , तथा पितृ मिलन की क्रिया तदर्थ ही निहित है। वार्षिक श्राद्ध करने की परंपरा आर्य गौरव तथा संस्‍कृति की रक्षा की भावना से प्रचलित हुई है। उसका ध्‍येय है कि पूर्वजों द्वारा अर्जित धवल यश कीर्ति सदैव आकाशदीप बनकर हमारा मार्गदर्शन करता रहे। 

आजकल ऐसा प्रदर्शन बढ रहा है कि कुछ संस्‍कार सनातन धर्म के हिसाब से और कुछ आर्य समाज के हिसाब से किए जाते हैं। यह स्थिति श्रेययस्‍कर कदापि नहीं। निजी सुविधा , धार्मिक कृत्‍यों पर अविश्‍वास और आर्थिक कारणों से अव्‍यवस्‍था निरंतर फैल रही है। मनुष्‍य को एक धर्म या संप्रदाय के अनुसार अपनी जीवनप्रणाली निश्चित करनी चाहिए। हम सनातनधर्मी हैं और उसके अनुसार संस्‍कार करके ही संसार की सर्वोत्‍तम संस्‍कृति का निर्माण कर सके हैं। अत: सनातन धर्म के अनुसार संस्‍कार करने में हमारी भलाई है। संस्‍कार एक शिक्षा है और कर्मकांड एक विधि। देश , काल , पात्र और परिस्थिति के अनुसार कर्मकांड में सुधार हो सकता है , पर संस्‍कार नियत है। कर्मकांड विवेचना एक विस्‍तृत विषय है और इसपर आज की विशेष परिस्थिति में विद्वज्‍जन ही प्रकाश डाल सकते हैं। 




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