शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

हमारे संस्‍कार ( खत्री हरिमोहन दास टंडन जी) ... भाग . 1

हमारे संस्‍कार 

संस्‍कृत कोष के अनुसार संस्‍कार का मुख्‍य अर्थ है .. शिक्षा , अनुशीलन , मानासक प्रशिक्षण , अन्‍त: शुद्धि , पवित्रिकरण , पुनीत कृत्‍य , श्रंगार , चमकाना आदि। मनुष्‍य का प्रशिक्षण आ पवित्रिकरण कर उसको अधिक से अधिक चमकाना , मानव चरित्र का परिमार्जन कर उसके अंदर सद्भावना , सत्‍य , अहिंसा , दया , सहनशीलता आदि सद्गुणों का विकास करना ही संस्‍कार का उद्देश्‍य है। यह एक लंबी कष्‍टसाधन प्रक्रिया है , जिसके द्वारा किसी जाति या समाज की पहचान बनती है और यही पहचान संस्‍कृति कहलाती है। 


भारतीय मनीषीयों ने चिंतन , मनन और अनुभव के द्वारा मानव जीवन का उद्देश्‍य , उसका लक्ष्‍य तथा उसके स्‍वरूप का निश्‍चय किया। पशुजगत में व्‍याप्‍त मनोविकारों , मोह आदि के आकर्षणों से मन को हटाकर सत्‍यानुभूति की ओर उन्‍मुख करने की चेष्‍टा ऋषियों ने की अर्थात् मनुष्‍य को कतिपय संस्‍कारों से शुद्ध कर उसे शाष्‍वत मूल्‍यों को ग्रहण करने की प्रेरणा दी। सृष्टि संचालन के ध्‍येय से भौतिकता का महत्‍व स्‍वीकार करते हुए परमतत्‍व की प्राप्ति को जीवन का लख्‍य निर्धारित किया गया। इस तरह नश्‍वरता से अनश्‍वरता की ओर बढने का प्रयास आध्‍यात्मिकता का आधार है। यह भारतीय संस्‍कृति की विशिष्‍टता है , उसकी पहचान है। सनातन सत्‍य की खोज और ज्ञान का निरंतर परिष्‍कार सनातन धर्म की शक्ति है। श्री हरिभाई उपाध्‍याय के शब्‍दों में ‘ जो मार्ग , जो विधि , जो क्रिया हमें ईश्‍वरत्‍व की ओर ले जाती है , वही हिंदू संस्‍कृति , आर्य संस्‍कृति , सज्‍जन संस्‍कृति और सुसंस्‍कृति है।‘ इसके अंतर्गत ही आचार , व्‍यवहार तथा विचार .. सभी का समावेश होता है।

मानव जीवन को पवित्र और उत्‍कृष्‍ट बनाने वाले आध्‍यात्मिक उपचार का नाम संस्‍कार है। वह श्रेष्‍ठता की ओर बढने हेतु किया गया संकल्‍प है। कर्म सिद्धांत के कारण हमने जीवन में संयम , नियम , त्‍याग , प्रेम , अहिंसा , दान , दया , क्षमा और सहिष्‍णुता आदि गुणों को आवश्‍यक मान लिया। भारतीय संस्‍कृति में संयुक्‍त परिवार , विश्‍व बंधुत्‍व , विविधता में एकता आदि अनेक गुण ऐसे हैं , जो उसे अबाध गति से विकास करने में सहायक हैं।शरीर , इंद्रियां , मन , बुद्धि , चित्‍त आदि .. इन सबके अत्‍यधिक उत्‍कर्ष तक संस्‍कार होते हैं। योग , जप , तप आदि सभी संस्‍कार ही हैं। मोटे तौर पर संस्‍कार दो प्रकार के होते हैं .. मलापनयन और अतिशयाधान। दर्पण को किसी चूर्ण या साबुन से साफ करने को मलापनयन संस्‍कार कहते हें। तेल या रंग द्वारा हाथी के मस्‍तक या काठ या धातु की वस्‍तु को चमकाना या सुंदर बनाना को अतिशयाधान संस्‍कार कहते हैं। 48 संस्‍कारों में कुछ के ारा शारीरिक और मानसिक मल , पाप , अज्ञान आदि का अपनयन और कुछ के द्वारा पवित्रता , शुद्धि , विद्या आदि की अतिशयता का प्रयास किया जाता है।

संस्‍कार और रीति रिवाज में फर्क है। रीति रिवाज परिवार या समाज के सुख , दुख , उत्‍साह , संबंध , शुभशुभ आदि के प्रदर्शन से जनम लेते हैं। पुत्र जनम , विवाह आदि अवसरों पर संबंधियों को भेंट देना , तन्‍नी या मंडप के नीचे हल्‍दी तोडना , सेहरा बांधना , मृत्‍यु होने पर महापात्र को दान देना , वर्षभर ब्राह्मण को भोजन कराना कब्र में मूल्‍यवाण वस्‍तुओं को रखना इत्‍यादि रीति रिवाज हैं। संस्‍कारों का विधान शास्‍त्रों में वर्णित है। वर्णों के अनुसार उसमें यत्किंचित भेद तो है , पर मूलभूत विधान में एकता है। देश , काल और परिस्थिति क कारण रीति रिवाजों में सदा परिवर्तन होता रहा है और आगे भी होता रहेगा , पर सनातन धर्म की रक्षा संस्‍कारों द्वारा ही संभव है। संस्‍कार बदलने या त्‍याग देने से धर्म या संप्रदाय ही बदल जाता है। वर्तमान काल में आर्य समाज , ब्रह्म समाज , राधास्‍वामी , सिक्‍ख आदि संप्रदायों का जनम इसी प्रकार हुआ है। किसी भी धर्म या संप्रदाय में दीक्षित होने से पहले और बाद में कुछ संस्‍कार होते हैं , पर सभी धर्मों के मूलभूत सिद्धांत एक ही हैं। जीव दया , दान , सहिष्‍णुता , संयम , समता , परस्‍पर सहानुभूति आदि को ग्रहण करने का उपदेश सभी धर्म देते हैं। वैदिक काल के अबतक प्रचलित हिंदू धर्म के स्‍तंभ प्रधान रूप से 16 संस्‍कार हैं।

सनातन धर्म मनुष्‍य मात्र में समता भावना की शिक्षा देता है। ‘सियाराम मय सब जग जानि’ या ‘सर्वे भवन्‍तु सुखिन:’ आदि वाक्‍य समता के उद्घोषक हैं। समय समय पर बौद्धिक और शारीरिक शक्ति संपन्‍न वर्ग ने निर्बल वर्ग को हीन दृष्टि से देखा है। फलत: महान व्‍यक्तियों का प्रादुर्भाव होता है। श्रीराम ने न केवल शक्तिशाली , वरन् अत्‍याचारी रावण से समाज को मुक्ति दिलायी। उन्‍होने निषाद , शबरी , वानर , रीछ आदि उपेक्षित जातियों के बीच भाईचारे की भावना पैदा की थी। कृष्‍ण ने न केवल अत्‍याचारी कंस , शिशुपाल , जरासंध , आदि को नष्‍ट किया , उन्‍होने ग्रामीण जीवन में जुडे उपेक्षित समाज को भी निर्भय कर सम्‍मान दिलाया। गौतम बुद्ध आदि युगपुरूषों ने राजवैभव को तुच्‍छ मानकर अहिंसा , दया , समता का प्रचार किया। धर्म की रक्षा निरंतर होती रहे, समाज और देश में शांति बनीं रहे , और अत्‍याचार पर अंकुश लगा रहे .. इस उद्देश्‍य से क्षत्रियों को उसके नियंत्रण की जिम्‍मेदारी सौंपी गयी। उसके लिए एक सूत्र बना.. धर्मों रक्षति रक्षिता’ अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है , उसकी रक्षा धर्म करता है। क्षत्रियों ने अपने कर्तब्‍य का सदा पालन किया। यदि उन्‍होने कभी धर्म की उपेक्षा की , तो उन्‍हें ही कष्‍ट भी झेलना पडा , सजा भुगतनी पडी। आज हम पुन: संक्रांति काल से गुजर रहे हैं , क्‍युंकि हम अपने धर्म के मूलाधार संस्‍कारों की उपेक्षा करने मे अपना बडप्‍पन समझते हैं।


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