शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

क्‍या ईश्‍वर ने शूद्रो को सेवा करने के लिए ही जन्‍म दिया था ??

शूद्र कौन थे


प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर थी, पर धीरे-धीरे यह व्यवस्था जन्म आधारित होने लगी । पहले वर्ण के लोग विद्या , दूसरे वर्ण के लोग शक्ति और तीसरे वर्ण के लोग पैसों के बल पर अपना महत्‍व बनाए रखने में सक्षम हुए , पर चौथे वर्ण अर्थात् शूद्र की दुर्दशा प्रारम्भ हो गयी। अहम्, दुराग्रह और भेदभाव की आग भयावह रूप धरने लगी। लेकिन इसके बावजूद यह निश्चित है कि प्राचीन सामाजिक विभाजन ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों में था जिसका अन्तर्निहित उद्देश्य सामाजिक संगठन, समृद्धि, सुव्यवस्था को बनाये रखना था। समाज के हर वर्ग का अलग अलग महत्‍व था और एक वर्ग के बिना दूसरों का काम बिल्‍कुल नहीं चल पाता था। 

यदि आपके घर में ही दो बच्‍चे हों और उनमें से एक गणित , विज्ञान या भाषा की गहरी समझ रखता हो तो आवश्‍यक नहीं कि दूसरा भी रखे ही। जिसका दिमाग तेज होगा , वह हर विषय के रहस्‍य को अपेक्षाकृत कम समय में समझ लेगा और बाकी समय का उपयोग उनके प्रयोग में करेगा , ताकि नयी नयी चीजें ढूंढी जा सके। पर जिसका दिमाग तेज नहीं होगा , उसका मन दिन भर अपने कार्य को पूरा करने के लिए मेहनत करता रहेगा। इसी मन की तल्‍लीनता के कारण उसे कला क्षेत्र में लगाया जा सकता है , जबकि दिमाग के तेज लोगों को कला क्षेत्र में भेजने से वे वहां शार्टकट ढूंढना चाहेंगे , जिससे कला में जो निखार आना चाहिए , वह नहीं आ पाएगा। यही सोंचते हुए हमारे ऋषि मुनियों ने कम बुद्धि वाले लोगों को कला क्षेत्र में लगाया और उसका परिणाम आप आज भी भारत की प्राचीन कलाओं में देख सकते हैं। 

शूद्र कौन थे


मैने अपने एक आलेखमें कहा है कि हर वर्ण में पुन: चारो वर्ण के लोग थे।  शूद्रों की मेहनत पर ही पूरे समाज की सफलता आधारित होती है। शूद्रों में भी कुछ लोग ब्राह्मण थे , जिन्‍होने कला के हर क्षेत्र में रिसर्च किए और अपने बंधुओं को तरह तरह की सोंच दी। उस समय एक कलाकार को बहुत महत्‍व दिया जाता था , इसलिए वे संतुष्‍ट होते थे और काम में दिलचस्‍पी रखते थे। पर कालांतर में कला का महत्‍व निरंतर कम होने लगा , जिसके कारण कलाकारों को कम पैसे दिए जाने लगे। साधन की कमी होने से उनके रहन सहन में तेजी से गिरावट आने लगी। 

रहन सहन की गिरावट उनके स्‍तर को कम करती गयी , साथ ही अपनी आवश्‍यक आवश्‍यकताओं के पूरी न होने से कला से उनका कोई जुडाव नहीं रह गया। विदेशी आक्रमणों से वे और बुरी तरह प्रभावित हुए। उनका यह कहकर शोषण किया जाने लगा कि उनका जन्‍म ब्राह्मणों , क्षत्रियों और वैश्‍यों की सेवा के लिए हुआ है। पर मुझे ऐसी बात कहीं नहीं दिखाई देती है , कल जिन कार्यों को करने के कारण वे शूद्र कहलाते थे , आज उन्‍हीं कार्यों से वे कलाकार कहे जा सकते हैं। यदि सेवा का कार्य बुरा होता है तो डॉक्टर, नर्स, ब्यूटिशियन, शिक्षक , सबके कार्य को सेवा ही क्यों कहा जाता है। 


(लेखिका .. संगीता पुरी)



13 टिप्‍पणियां:

Neeraj Rohilla ने कहा…

संगीताजी,
किस समय काल में वर्ण व्यवस्था कर्मों के हिसाब से निर्धारित होती थी? मुझे ये ऐसा मिथक लगता है जिसका आविष्कार इस व्यवस्था को कुतर्कों के माध्यम से सही साबित करने के प्रयास में किया जाता है|
अगर हम Mythology पर न जाकर इतिहास के नजरिये से देखें तो सनातन धर्म के किस काल में ये कर्म आधारित थी? तीसरी सदी में? पांचवी सदी में? ईसा से ५०० वर्ष पहले? आखिर कब?
क्या कोई प्रमाण हैं हमारे पास? कुछ उदाहरण देने से केवल ये साबित होता है कि कहीं कहीं जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था के अपवाद थे| लेकिन इससे ये पता नहीं चलता कि कर्म आधिरित व्यवस्था आम तौर पर लागू थी|
इस प्रश्न का उत्तर मैं स्वयं काफी समय से खोजने का प्रयास कर रहा हूँ| अगर आपके पास कोई जानकारी हो तो प्रकाश डालें|

आभार,
नीरज रोहिल्ला

PD ने कहा…

I Agree with Niraj.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

ईश्वर ने तो निश्चित ही सभी को समान ही बनाया है। लेकिन कर्म के कारण ही यह वर्ण जन्मे होगें। यह बात अलग है कि समय के साथ साथ कुछ लोग उन्हें अपने से हीन नजर से देखने लगे हो। जिस कारण हम यह मान बैठे हैं कि शूद्रो का जन्म सेवा के लिए ही हुआ है। वैसे इस बारे में खोज करनी चाहिए।

शरद कोकास ने कहा…

ब्राह्मणों द्वारा अपना वर्चस्व कायम करने के लिये वर्णव्यवस्था को जन्म दिया गया और पुरुष्सूक्त के सहारे से उसे स्थापित किया गया । अब यह बात सर्व विदित है जन्मना कर्मणा जैसे विवाद निरर्थक हैं । विस्तार से जानने के लिये डॉ.बी.आर.आम्बेडकर की पुस्तक "शूद्र कौन "पढ़ें।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

नीरज जी से सहमत हूँ।

Udan Tashtari ने कहा…

आलेख और नीरज की टिप्पणी पढ़ी..फिर आते हैं.

संगीता पुरी ने कहा…

नीरज रोहिल्‍ला जी और उनके सारे समर्थकों ,
भारत की आजादी के समय और बीस पचीस वर्षों तक प्रतिभा के आधार पर ही व्‍यक्ति को पद दिए जाते थे .. पर आज जिस दिशा में विकास जा रहा है .. इसकी एक सदी भी नहीं होगी.. पेशे के आधार पर जनसंख्‍या को कई भागों में बांटा जा सकेगा .. आज ही शुरूआत हो चुकी है .. एक डॉक्‍टर के परिवार के सारे सदस्‍य डॉक्‍टर हैं .. एक इंजीनियर के परिवार के सारे सदस्‍य इंजीनियर और कलाकार के परिवार के सारे सदस्‍य .. इतनी तेजी से हुआ यह परिवर्तन आपकों किस ग्रंथ में लिखा मिलेगा .. मैं अपने नजर के सामने घटित होते देख रही हूं .. जीवनभर अपने समाज की कमजोरी को देखकर अपने पूर्वजों की कला पर कौन गर्व कर सकता है .. पर यदि ब्राह्मणों ने ये सब किया .. तो ब्राह्मण आए कहां से ??

वाणी गीत ने कहा…

कल जिन कार्यों को करने के कारण वे शूद्र कहलाते थे , आज उन्‍हीं कार्यों से वे कलाकार कहे जा सकते ...कर्म प्रधान वर्ण व्यवस्था की इस से सुंदर व्याख्या हो ही नही सकती ...
वर्ण व्यवस्था की भ्रांतियों पर एक बहुत ही सार्थक आलेख के लिए आभार ...!!

बेनामी ने कहा…

धर्म विभाजन करता हैं , मनुष्य की अपनी सोच एक से दूसरे को जोडती हैं । जिसकी सोच मे जितना विस्तार होगा वो उतना एक दूसरे से जुड़ेगा विरोध सोच का होता हैं व्यक्ति का नहीं

Unknown ने कहा…

@ Neeraj Rohilla

"अगर हम Mythology पर न जाकर इतिहास के नजरिये से देखें ..."

कौन सा इतिहास? मुगलों और अंग्रेजों के द्वारा लिखा हुआ? कोई प्रमाण है इनके सत्य होने की? इतिहास लिखने वालों ने तो कितने ही झूठ को सच और सच को झूठ बना दिया है। क्योंकि इस इतिहास को हमें पढ़ाया जाता है याने कि जबरन हमारे दिमाग में ठूँसा जाता है इसलिये ये ब्रह्मवाक्य बन जाते हैं और हमारे प्राचीन साहित्य मिथक।

विजय प्रकाश सिंह ने कहा…

संगीता जी, आप के इस विचारोत्तेजक लेख को पढ़ा और टिप्पडियां भी पढ़ी । मरा मनना है कि वर्णाश्रम में कर्म का आधार तो हमेशा था और है भी । हां जन्म कर्मों को चुनने में आसानी प्रदान करता है । आज भी कितने ऊचीं जाति की संताने महा नगरों में आ कर चौकीदारी, चपरासी गीरी, कोरियर, ड्राइवर और अन्य ऐसे कार्य कर रहे हैं जो शूद्र वर्गीय ही हैं ।

आज सेवा कार्यों में आर्थिक लाभ अधिक और उचित मिलता है इसलिए वह सम्मान की नज़र से देखा जा रहा है । इसे लोग अब शूद्र वर्गीय नहीं समझ रहे । आज के संदर्भ मे चारों वर्णो पर नज़र डालिए :

ब्राम्हण : जो ज्ञान दे कर अपनी जीविका चलाते है जैसे शिक्षक , प्रोफेसर और कोचिगं सेंटर वाले भी, वकील, डाक्टर, सीए ।

क्षत्रिय जो युद्ध में हिस्सा लेकर अपनी जीविका चलाते है जैसे की सेना, अर्धसैनिक बल, साथ नेताओं के छुट भैये गुंडे और अंडर वर्ल्ड के शूटर भी ।

वैष्य जो व्यापार द्वारा अपनी जीविका चलाते है जैसे कि किसान , दुकानदार, उद्योगपति और स्मगलर भी ।

अंत में शूद्र जो इन सब की इनके कार्य में सहायता कर के या इनकी सेवा कर के अपनी जीविका कमाते हैं, सारे नौकरी पेशा इसी वर्ग में आते हैं ।

आज जीवन में सुविधायें अधिक हैं इसलिए कई नौकरी पेशा को लगता है कि वे वर्णाश्रम के उच्च वर्ग से हैं ।

वर्णाश्रम हर काल हर समाज में था है और रहेगा । इसके स्वरूप भिन्न हो सकते हैं पर यह सरकारों में "प्रोटोकाल" के रूप में है । उद्योग में ह्वाइट कालर और ब्लू कालर के रूप में मौजूद है ।

बस अब हमारी सोच मे थोडा बदलाव हो और ’रेस्पेक्ट आफ़ लेबर’ की भावना फैले, किस तरह की लेबर है इसमें भेद भाव के बिना । इसी से सामाजिक संघर्ष में कमी होगी ।

संगीता पुरी ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
संगीता पुरी ने कहा…

शरद कोकास जी,
पूर्व आई पी एस अधिकारी , इतिहास वेत्‍ता और संस्‍कृत विद्वान किशोर कुणाल ने वेद , पुराण , धर्मग्रंथो और प्राचीन इतिहास के उद्धरणों से साबित किया है कि शूद्र या दलितों का हिन्‍दू समाज में हमेशा ही सम्‍मानित स्‍थान रहा है। इस विषय पर अपने अध्‍ययन और शोध के आधार पर उन्‍होने 'दलित देवो भव' नाम से एक पुस्‍तक भी लिखी है। 700 पन्‍नों की यह पुस्‍तक शूद्रों की अवधारणाओं को नए स्‍तर तक ले जाती है, बिहार में हिन्‍दू धर्म को उसके वास्‍तविक स्‍वरूप पर वापस लाने के लिए बिहार राज्‍य धार्मिक न्‍यास बोर्ड के प्रशासक आचार्य किशोर कुणाल के नेतृत्‍व में पालीगंज के राम जानकी मंदिर में मुसहर जाति के जनार्दन मांझी , विश्‍वनाथ मंदिर में चंदेश्‍वर पासवान , बटेश्‍वर नाथ मंदिर के मुख्‍य पुजारी के रूप में दलित जमुना दास जैसे दलित पुजारियों की नियुक्ति की गयी है।

क्‍या ईश्‍वर ने शूद्रो को सेवा करने के लिए ही जन्‍म दिया था ??

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