देवी दुर्गा की उत्पत्ति एवं परिकल्पना अत्यंत प्राचीन है। वैदिक काल में उनकी परिकल्पना शक्ति रूपा रात्रि देवी के रूप में की गयी है, जो कर अपनी बहन ब्रह्मविद्यामयी उषा देवी को प्रकट करती है। जिससे अविद्यामय अंधकार स्वत: नष्ट हो जाता है। निरू स्वसार मस्कृतोषसं देव्यायती। अपेदु हासते तम:।। ऋग्वेद के देवी सूक्त में स्पष्ट मानवीय लक्षणो वाली देवी के रूप में उनकी अवधारणा की गयी है। वह सिंह के ऊपर आसीन है , उनके मस्तक पर चंद्रमा का मुकुट है , वह मरकतमणि के समान अपनी चार भुजाओं में शंख , चक्र , धनुष और बाण धारण किए हुए है , उनके तीन नेत्र शोभायमान हैं, उनके भिन्न भिन्न अंग बाजूबंद , हार , कंकण , करधनी और नुपुरों से सुशोभित हैं तथा उनके कानों में रत्नजटित कुंडल झिलमिलाते रहते हैं। यही भगवती दुर्गा मनुष्य की दुगर्ति दूर करनेवाली है ,सच्चिदानंदमयी है तथा रूद्र , वसु , आदित्य और विश्वदेव गणों के रूप में विचरती हैं , मित्र , वरूण , इन्द्र और अश्विनी कुमारों को धारण करती हैं , वही हिंसक असुरों का वध करने हेतु रूद्र के लिए धनुष चढाती है तथा शरणागतों की रक्षा के लिए शत्रुओं से युद्ध करती है तथा समस्त विश्व की रचना करती है। अन्य सभी देवता उन्हीं के आदेश का पालन करते हैं।
'मारकंडेय पुराण' के अनुसार दुर्गा अद्वितीय शक्तियों से संपन्न देवी हैं , जिनका उद्भव जगत के संतुलन को विचलित करने के उद्देश्य से ब्रह्मा का वध करने को उद्दत मधु और कैटभ नाम के दो दुष्टों का संहार करने के लिए भगवान विष्णु के शरीर से हुआ है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु वह सृष्टिकर्ता ब्रह्मा , संरक्षक विष्णु और संहारकर्ता शिव तथा इंद्र , यम , वरूण , सूर्य आदि देवों से शक्ति प्राप्त करती है तथा एक विराट और प्रदीप्त अग्नि का स्वरूप धारण कर लेती है और अंत में एक असाधारण सुदरी स्त्री के रूप में प्रकट होती है। उन्हें दुर्गा नाम से इसलिए संबोधित किया जाता है , क्यूंकि उन्होने अपने शाकंभरी अवतार में दुर्गम नामक दुष्ट राक्षस का वध किया था।
भगवती दुर्गा उस ईश्वरीय शक्ति का प्रतीक है , जो इस धरती पर अवतरित होती है , जब भी संसार में पापों और तमोगुणी कृत्यों का बोलबाला होता है तथा जिसके फलस्वरूप संत महात्माओं का जीवन असुरक्षित हो जाता है। वस्तुत: वह भगवान विष्णु के अनेक अवतारों में से एक है , जो विभिन्न रूपों में समय समय पर इस संसार में प्रकट होते हैं तथा पुण्यात्माओं के विश्वास तथा अपने भक्तों की रक्षा हेतु जगत में शांति और संतुलन पुनर्स्थापित करते हैं। 'गीता' में भगवान कृष्ण कहते हैं... हे भारत ! जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है , तब तब मैं अपने रूप को रचता हूं , अर्थात साकार रूप में लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं। साधु पुरूषों का उद्धार करने , पाप कर्म करनेवालों का विनाश करने और धर्म को अच्छी तरह से स्थापित करने के लिए मैं युग युग में प्रकट हुआ करता हूं। इसी प्रकार दुर्गा जी ने स्वयं घोषणा की है ... जब जब संसार में दानवी बाधा उपस्थित होगी , तब तब अवतार लेकर मैं शत्रुओं का संहार करूंगी।
'देवी भागवत' में कहा गया है ... शक्ति से ही जगत का सृजन, पालन और संहार होता है , ब्रह्मा , विष्णु और शिव की सृजनकारी , पालनकारी , और संहारकारी शक्तियां भी केवल शक्ति के ही कार्यकलापों के कारण हैं। दुर्गा जी का गुण है उनका अत्यंत मंगलकारी या करूणामय रूप , जिसके कारण उन्हें शिवा , मंगला तथा गौरी नाम से संबोधित किया गया है। उनकी स्तुति में कहा गया है कि यह जो भी कल्याणकारी है , उसे प्रदान करती हैतथा जीवन के सभी पुरूषार्थों को सिद्ध कराती है।
(खत्री हितैषी से साभार)
बहुत ही रोचक पोस्ट... जय माँ जगदम्बे माँ
जवाब देंहटाएंबढिया पोस्ट
जवाब देंहटाएंरोचक जानकारी-आभार!
जवाब देंहटाएंनवरात्रों की आपको हार्दिक बधाई एवम शुभ-कामनाएं
संगीता जी जय जय माँ दुर्गे
जवाब देंहटाएं..वाह ...
कितना सुन्दर स्तुतिमय आलेख है ये
ऐसे ही लिखती रहीये
स स्नेह,
- लावण्या