आज महानगर का लंबा राजपथ हो या गावं देहात की पतली पगडंडियां , सभी अपने अपने विकास के लिए व्याकुल एक दूसरे को धकियाते लोग आगे बढे जा रहे हैं । एक प्रश्न बार बार मन को कुरेदता है , कितनी जद्दोजहद के बाद मिली देश की स्वतंत्रता के कितने साल व्यतीत हो गए। हम भले ही 'दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल' अलापते रहें , मगर आजादी की बलीवेदी पर शहीद हुए , प्राणो की आहुति देनेवाले भगतसिंह , आजाद , बिस्मिल , अशफाक , सुभाषचंद्र बोस और सैकडों अनाम , अज्ञातों को क्या भुलाया जा सकता है ?
देश आजादी के साथ टुकडो में बंट गया, क्या हुआ ऐसा कि आजादी मिले दो दशक भी नहीं हुए कि हम देश , समाज , स्वाधीनता .. सभी को भूल अपनी स्वार्थ पूर्ति में लग गए। स्वास्थ्य विभाग , रक्षा विभाग , शिक्षा विभाग .. सब के सब से एक विचित्र धुंआ गहराने लगा। धुंआ कहां से और क्यूं उठ रहा है , इसपर ध्यान न देते हुए आंखे मलते हम एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहे, देशभक्ति का विचार भी कपोलकल्पित लगने लगा और धीरे धीरे स्वतंत्रता स्वच्छदता में बदल गयी। स्वतंत्रता में मर्यादा होती है , एक सीमा भी , इसका मतलब रूढियां नहीं हैं , रूढियां तो समयानुसार टूटती है , इससे विकास का मार्ग प्रशस्त होता है।
दूरदर्शन के कारण भी हम सब विक्षिप्त होते जा रहे हैं, अवैध संबंधों पर आधारित अनेक सीरियल की नग्नता के आगे शालीनता ने घुटने टेक दिए हैं। विश्वसुंदरी का खिताब देकर हमारे देश की सुंदरता को किस गर्त में ढकेला जा रहा है ? हमारे देश में सौंदर्य की उपासना तो प्राचीनकाल से होती रही है। सौंदर्य चाहे प्रकृति का हो या स्त्री पुरूष का उसका बाजार भाव लगाना क्या उचित है ? इसी उच्छृंखलता ने भी अराजकता से गठबंधन कर लिया है। बडी आयु के लोग भी इसमें सम्मिलित हो चुके है और नैतिक धरातल शून्य हो गया है।सादगी औ सज्जनता तो गंवारों की रेणी में आ गयी है। प्रांतवाद , भाषावाद के नाम पर अखाडे तैयार हैं। सम्मिलित परिवारों की टूटन, बडों की लापरवाही, विदेश का सम्मोहन और भोगवाद की ललक .. यह कहां जाकर रूकेगी ? क्यूकि स्वच्छंदता और उच्छृंखलता की कोई सीमा नहीं।
अपने घर आंगन के प्रति हमें जागरूक होना होगा। चाहे भोजन हो या फिर मनोरंजन .. अगली पीढी को दिशा देने के लिए बडों को संयमित होना होगा। पहले अति निर्धन या अति संपन्न लोगों में खाने पीने की अराजकता रहती थी , मध्यम वर्ग संतुलित और संसकारित रहता था। यह वर्ग समाज के ढांचे में मेरूदंड की तरह काम करता था। , अब बेमेल संस्कृति ने इसमें भी लचीलापन ला दिया है। बनावटी रंग ढंग और ग्लैमर ने सबकी आंखे चुंधिया दी है। इस आपाधापी में उच्छृंखलता और स्वच्छंदता का सागर इतना गहराया है कि भौतिक सुख सुविधाएं तो ऊपर उतराने लगी है , मगर नैतिकता , शालीनता , यहां तक कि स्वाभिमान की भावना भी उसमें डूब गयी है।हमें जागयकता लाने की आवश्यकता है , ताकि समाज में पलती यह हिंसक अराजकता और उच्छृंखलता समाप्त हो !!
(लेखिका ... श्रीमती माधवी कपूर)
nice..........nice.........nice.......
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया...अपने घर आंगन के प्रति जागरुकता बहुत जरुरी है.
जवाब देंहटाएंयह समस्या पूर्वी देशों की है। लगता था हमारी संस्कृति, हमारे संस्कार इस बाजारू मानसिकता को इतनी जल्दी हावी नहीं हाने देंगे पर अफसोस इस दिशा में हमारा देश अग्रणी होने जा रहा है
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