शनिवार, 19 दिसंबर 2009

परिवार और समाज के निर्माण में महिलाओं की भूमिका



भौतिकतावादी मूल्‍यों और उपभोक्‍तावादी रूझान ने समाज की सद्प्रवृत्तियों को काफी चोट पहुंचायी है। आज परिवार में पहले जैसा सशक्‍त ताना बाना नहीं रहा , पारिवारिक रिश्‍तों का जबरदस्‍त विघटन हो रहा है। बडों के पास बच्‍चें का दिशा दिखाने की फुर्सत नहीं है। हर किसी का ध्‍येय पैसा कमाना है , उसके लिए उल्‍टे सीधे रास्‍ते पर भी चलने में किसी को हिचक नहीं होती। आश्‍चर्य है कि लोगों ने शराब तक को सामाजिक स्‍तर का बडा प्रतीक मान लिया है। ऐसे लोग अपने बच्‍चे तक को शराब चखाते देखे जाते हैं। घर के बडों के साथ ही जब यह खोट जुड जाए कि खुद उनमें आत्‍मगौरव के भावना के विकास की क्षमता नहीं रह गयी है , तो बच्‍चों का क्‍या होगा ?

आज बडे घरों के लउके लडकियां अपराधों में लिप्‍त पाए जाते हैं । इसकी वजह भी यही है कि कानून में वह शक्ति नहीं कि जो अपराध करेगा , किसी सूरत में बच नहीं पाएगा। देखने में आया है कि आज कानून का इस्‍तेमाल नहीं हो रहा है और व्‍यवस्‍था लचर हो गयी है। लोग मान चुके हैं कि पैसा दे देने पर बडे बडे अपराध से भी मुक्ति मिल सकती है। अच्‍छे वकील झूठे मूठे साक्ष्‍य से भी बडो के बिगडैल औलादों को बचा देता है। यदि कोई अपराधी किसी तरह जेल में डाल भी दिए जाएं तो अपराध करने के लिए और निश्चिंत हो जाते हैं 


आज लोगों के दृष्टिकोण में विकृतियां आ गयी हैं। लोगों का नजरिया निम्‍न दर्जे का होता जा रहा है। इसी वजह से महिला को 'वस्‍तु' माना जाने लगा है। वे लोग मान चुके हैं कि महिलाओं के साथ कुछ भी व्‍यवहार किया जाए , कुछ नहीं होगा। आज के अवयस्‍क बच्‍चे बच्चियां शारिरीक रिश्‍ते बनाने में भी पीछे नहीं हटते। उन्‍हें लगता है कि जैसे और चीजें हैं , वैसा सेक्‍स भी है। उन्‍हें छात्र जीवन में अच्‍छी पढाई , आचार व्‍यवहार की तरु ध्‍यान देने में कोई दिलचस्‍पी नहीं होती। पहले लोगों के विद्यार्थी जीवन में सादगी और संजीदगी होती थी , वे अच्‍छे इंसान और चरित्रवान होने में फख्र महसूस करते थे। पर आज व्‍यवहार पद्धति ही बदल गयी है। मीडिया के जरिए भी सेक्‍स और हिंसा को बढावा दिया जा रहा है।

ऐसी हालत में महिलाओं को अपनी भूमिका को पहचानना होगा कि परिवार और समाज के निर्माण में अच्‍छा वातावरण कैसे बन सकता है। यह फैशन सा बन गया है कि महिलाओं के विकास की बात करते हुए हम उनके लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की बातें करते हैं। हमें इसपर ध्‍यान देने की कतई फुर्सत नहीं कि शिक्षा की विषयवस्‍तु क्‍या हो ? जिंदगी कैसे जी जानी चाहिए , अच्‍छा इंसान कैसे बना जाए , इस दिशा में चिंतन करनेवालों की संख्‍या घटती जा रही है। आज हमें यह बतानेवाला कोई नहीं कि अपना कर्तब्‍य निभाते हुए जीना सबसे बडा धर्म है। हम बखूबी समझ लें कि धर्म निरपेक्ष होना हमारा कर्तब्‍य नहीं , क्‍यूंकि सार्वभौमिक मूल्‍य सभी धर्मों में समान हैं। हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था में धार्मिक शिक्षा को समाहित किया जाना चाहिए। टी वी पर भी इस तरह की शिक्षा की व्‍यवस्‍था होनी चाहिए। हमें अपनी शिक्षा व्‍यवस्‍था में असल जीवन को प्रतिबिम्बित करना पडेगा , तभी चरित्र निर्माण की कोशिशों को गति मिल सकेगी। यह सूकून की बात है कि महिलाएं हर क्षेत्र में निश्‍चय भरा कदम बढा रही हैं। उनके कार्य की गुणवत्‍ता उच्‍च स्‍तर की है। हम महिलाओं को मिलकर सोंचना होगा कि सारे विकास कार्यों और मूल्‍यों के बढने के बावजूद अपराध क्‍यू बढ रहे हैं ? एक महिला के प्रति समाज की सम्‍मानपूर्ण दृष्टि ही समाज के मूल्‍यों का हिफाजत कर सकती है।

(डॉ प्रोमिला कपूर , सुप्रसिद्ध समाजशास्‍त्री के सौजन्‍य से )




2 टिप्‍पणियां:

  1. संगीता जी आप ने अपने इस लेख मै बहुत्ज़ सुंदर ढंग स्रे आज के समाज क चित्रंण किया है, सोछ कर डर लगता है किन कल केसा होगा??

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