मैं वैवाहिक आमंत्रण पर वर यात्रा में एक संबंधी के यहां गया। परिवार के दो लोग हाथ में बकायदा बैग , कलम और कॉपी लिए सचल डिपॉजिट काउंटर बने हुए थे। एक नवदम्पत्ति स्वागतार्थ आयोजित प्रीति भोज में , जहां बुफे सिस्टम से खाने पीने के काउंटर बने थे , वहीं एक गिफ्ट काउंटर भी बना था , जहां लिफाफे और पैकेट स्वीकार करने के लिए एक सज्जन बैठे थे। यह कितना शालीन था या हास्यास्पद यह सोंचिए। पर मुझे बहुत दिनों से चुभनेवाले विषय पर कुछ लिखने को मिल गया।
अभी नवम्बर माह में ही मुझे विवाह के 38 कार्ड मिल चुके हैं। अभी आगे और आएंगे। पूरे साल की गणना करूं , तो दो सौ से कम आमंत्रण न होंगे। जितनी बडी समस्या सभी जगह जाने की नहीं होती , उतनी बडी समस्या व्यवहार देने की होती है। आज परिचय संपर्क , सामाजिक दायरे व रिश्तेदारियों के कारण आमंत्रणों का विस्तार होता जा रहा है। अधिकांश लोगों के सामने समस्या अपना सम्मान बचाने की हो जाती है। महंगाई का जमाना , सीमित आय , जिसमें सिर्फ परिवार चला सकें , जिनका कोई व्यापार नहीं या रिटायर्ड हों , तो कैसे निबटे इस समस्या से। लेन देन भी इतना बढ गया है कि लिफाफे में कम कैसे रखा जाए। याादी के अलवे भी मुंडन , जनेऊ जैसे अवयर होते हैं। शादी की सालगिरह का फैशन हो गया है। बच्चे के जन्मदिन का व्यवसायीकरण हो गया है। जहां से जितना आया है , वहां उतना ही देना है तो इसे याद कैसे रखें ?
यह समस्या आज बहुतों को उद्वेलित कर रही है। इसका निदान चाहिए। लोगों को स्वयं ये बढावा दिखावा समाप्त करना चाहिए। लेन देन पर कुछ अंकुश हो यानि लेन देन बिल्कुल रिश्तेदारी तक ही सीमित हो और रकम भी मर्यादा में हो। खत्री भाई सामाजिक सामाजिक सुधार लाने के लिए इसकी पहल करें , स्थानीय सभाएं ऐसे स्वस्थ प्रस्ताव पारित करें , इसके लिए विनम्र आंदोलन करें , जिससे आमंत्रण पानेवाले की कठिनाई और सोंच दूर होगी। निमंत्रण देने वालों की भी शोभा बढेगी ख् क्यूंकि लेन देन की कठिनाई के कारण बहुत से लोग इन विवाह समारोहों में जाना टाल देते हैं। धीरे धीरे अन्य लोगों में भी इसका प्रचार प्रसार किया जाए और समाज के लोगों को एक बडी समस्या से मुक्ति मिले।
लेखक ... खत्री संत कुमार टंडन 'रसिक' जी
काउंटर बना देना केवल institutionalize कर देना भर है. यूं भी किसी के यहां बिना कुछ दिए खा-पीकर चले आने का रिवाज़ रह ही कहां गया है
जवाब देंहटाएंआज कल के समाज में इस दिखावे का प्रचलन बहुत हो गया है लोग मंहगाई की मार से तंग है फिर भी इस प्रकार के गिफ्ट पैकेट लेना और देना एक शान समझते है..प्रायः हर पार्टी में, शादी में, बर्थडे वग़ैरह में ऐसे दृश्य दिख जाते है..सामाजिक व्यवहार का एक रूप है और ज़्यादातर लोग ना चाहते हुए भी बस दिखावे के लिए ऐसा करते की जिससे समाज में थोड़ी शान बनी रहे..मेरी समझ में ऐसा सही नही है पर लगता नही की यह प्रथा ख़तम हो पाएगी...बेहद सोचनीय प्रसंग..धन्यवाद
जवाब देंहटाएंदेख देख कर यह व्यवस्था पर हसी तो आती है
जवाब देंहटाएंसंगीता जी,हम दिन पर दिन तरक्की कर रहे है,क्या इन से प्यार बढ जाता है?
जवाब देंहटाएंसंगीता जी,,आप ने एक ऐसी समस्या को उठाया है जिस से कभी ना कभी सभी का वास्ता पड़ता....अब तो यह बड़ता ही जा रहा है....शादियों मे तो बकायदा शगुन और उपहार को लिखने वाले बैठे नजर आ जाते हैं...ऐसे में कुछ देने से पहले आदमी कई बार सोचता है कि क्या दे और कितना दे...ताकि शान बनी रहे....।अब प्रेम से नही आपके उपहार से आप को इज्जत मिलती है.....इसे बंद होना चाहिए...वर्ना जो थोड़ा बहुत प्रेम मोहब्बत व भाईचारा है वह भी समाप्त हो जाएगा।
जवाब देंहटाएंइसे हमारे यहाँ गिफ्ट नहीं, नवेद कहते हैं. इस उद्देश्य दिखावा नहीं, बल्कि जो भी व्यक्ति अपने बेटा या बेटी की शादी कर रहा है, उसकी मदद करना, उसके खर्च में समाज का हिस्सा डालना होता था. सब अपनी औकात और संबंधों के मुताबिक मदद करते थे. इसको नोट करने का एक मात्र कारण होता था कि से बिना सूद का कर्ज माना जाता था कि आज तुमने मेरी मदद की है, कल जब तुम पर ऐसे खर्च का भार आयेगा तो मैं तुम्हारी भी वैसे ही मदद करुँगा. यदि किसी ने आज से बीस साल पहले आपको १०१ रुपये दिये जबकि नार्मल प्रचलन २१ रुपये नवेद का था, तो आज आप उसके परिवारिक आयोजन में १००१ देकर कर्ज उतारते हैं या मदद के प्रति अहसान व्यक्त हैं इस टोकन राशि से.
जवाब देंहटाएंसमय के साथ साथ खर्चों में इजाफा हुआ. पहले एक मेहमान को खिलाने में २० रुपये लगते थे और आज २०० से ५०० तो नवेद या मदद की राशि भी उसी अनुपात में बढ़ती गई.
लोगों के सबंध और सामाजिक दायरे में इजाफा हुआ है. आज १०/२० मेहमान तो आते नहीं. तादाद हजारों में होने लगी है. ऐसे में मिखिया को व्यक्तिगत रुप से नवेद सौंपना और उसका उसे याद रखना कठिन कार्य हो गया और इसका बेहतर तरीका काऊन्टर बना कर नवेद या मदद को समूचित एवं व्यवस्थित रुप से नोट कर लेना लगा.
इसमें हास्य बोध जैसी तो कोई बात नहीं दिखती.
याद करें तो पहले पंगत में बिठा कर खिला देते थे किन्तु आज की वेशभूषा और मेहमानों की संख्या देखते हुए पंगत संभव नहीं है तो बफे सिस्टम चालू हो गया. यूँ तो फिर वो भी हास्य का विषय बन सकता था किन्तु किया सहूलियत के लिए ही गया.
ये मात्र मेरे विचार है. कोई विरोध नहीं.
आपकी इस पहल की मैं जोरदार हिमायत करता हूँ -सही समय पर सही सोच!
जवाब देंहटाएंहम तो कहेगें ये प्रेक्टिकल हे.. वरना कई बार गिफ्ट और पैसे खो भी जाते है...
जवाब देंहटाएंांअपकी बात से सहमत हूँ। मगर मुझे नहीं लगता ये रिवाज़ कभी खत्म होंगे। प्रचीन काल से चले ही आ रहे हैं जितना भी इन के खिलाफ लिखा गया मगर ये बढ ही रहे हैं धन्यवाद
जवाब देंहटाएंमैं कहता रहा हूँ
जवाब देंहटाएंकि
व्यवस्थाएं बदल जाती है विचारधारा वही रहती है
वही किस्सा यहाँ भी है
बी एस पाबला