Who is khatri caste in hindi
वर्तमान समय में संस्कारों की उपेक्षा में केवल शिक्षा तथा संसर्ग या कलिकाल ही एकमात्र कारण नहीं है , उसका एक प्रमुख कारण पूर्वजों के अज्ञान , आचरण , अशिक्षा और अंधविश्वास में भी है। लगभग 1200 वर्ष के विदेशी शासन और उसके कारण उत्पन्न अस्थिरता के फलस्वरूप हमारी शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गयी है। पूर्वजों ने संस्कार रीति रिवाज और धार्मिक कट्टरता को एक सूत्र में पिरो दिया। धीरे धीरे सबकुछ इतना गड्ड मड्ड हो गया कि इनको अलग करना बहुत कठिन हो गया।
भारतीय मान्यता के अनुसार संस्कार का संबंध न केवल इस जन्म से बल्कि जनम जनमांतर से भी है , जबकि रीति रिवाज परिवर्तनशील होते हैं। हम एक उदाहरण के द्वारा इस बात को स्पष्ट कर सकते हैं। पूर्वकाल में मुंडन और विवाह के अवसर पर एक ढीला ढाला वस्त्र पहनाया जाता था , जिसे बागा कहते थे। वह केवल शोभा थी , संस्कार नहीं। इस तरह विवाह के अवसर पर आमोद प्रमोद के लिए कई रस्में हुआ करती हैं , जैसे वर के जूत्ते को छुपा देना , वर से छंद सुनना , कठौती , कंगना खोलना आदि , जो आज समयाभाव से प्राय: समाप्त हो रही है। पर संस्कार हिंदूत्व के अभिन्न अंग हैं , उनके त्याग से हिंदू धर्म का ही लोप हो जाएगा।
हिंदू शास्त्रकारों के मतानुसार जन्म से बच्चे का कोई धर्म नहीं होता , उसका जब किसी विशेष धर्म के अनुसार संस्कार किया जाता है , तो वह धर्म के नाम से अभिहित होता है। ईसाई , पारसी , मुसलमान , हिंदू , बौद्ध आदि धर्मों में ऐसे संस्कारों की व्यवस्था है , जिनके कर्मकांडों को पूरा करने के बाद ही बालक उसका अंग बनता है। शिक्षा और अन्य जीवन पद्धतियों के द्वारा विशिष्ट धर्म पर आस्था पैदा की जाती है और शुभाशुभ फल के प्रति विश्वास पैदा किया जाता है .
हिंदू शास्त्रों का मत है कि जैसा बीज बोया जाता है , वैसा ही वृक्ष होता है। उसपर भूमि , जल , वायु और प्रकाश का भी प्रभाव पउता है। इस प्रकार चरित्रवान , विचारवान , सुशिक्षित , स्वस्थ और धार्मिक व्यक्ति की संतान सुसंस्कृत परिवार और समाज के सहयोग से अधिकाधिक गुणवान और प्रतिभाशाली होती हैं। जिस तरह कृषक का धर्म है कि दोष रहित बीज को ऋतु और मिट्टी का ध्यान रखते हुए आरोपित करे , उसी प्रकार गर्भाधान में भी काल , अवसर , स्वास्थ्य और मानसिक शांति का ध्यान रखना आवश्यक होता है। केवल पशुवत् वासना तृप्ति ही जीवन का ध्येय नहीं होता।
जिस प्रकार कुछ समय व्यतीत होने पर बीज से अंकुर निकलकर पल्लवित होता है , उसके बाद फल प्राप्ति होने से पूर्व तक माली को विशेष देख रेख करनी होती है , उसी प्रकार गर्भाधान के बाद संतान के जनम से पूर्व दो प्रकार के संस्कार किए जाते हैं। तीसरे महीने में पुसवन और छठे या आठवे महीने में सीमन्त सीमन्तोन्नयन संस्कार संपन्न होता है। पुंसवन के बाद से माता के विचार और व्यवहार का प्रभाव निर्माणाधीन बच्चे पर पडने लगता है। सीमांत संस्कार के काल से गर्भ के बच्चे में ग्रहण की शक्ति आ जाती है। अर्जुन पुत्र अभिमन्यू ने चक्रव्यूह भेदन का ज्ञान और अष्टावक्र ने आध्यात्म ज्ञान उसी अवस्था में ग्रहण किया था। खत्रियों के यहां ये दोनो संस्कार रीति और गोद भरने के रूप में प्रचलित हैं।
जातकर्म , नामकरण , निष्कम्रण , अन्नप्राशन , विद्यारंभ , और कर्णभेद संस्कार नाम से ही स्पष्ट हैं। जीवन से संबंधित हर कार्य धार्मिक दृष्टि से ही करने का विधान है।सुमंगल की दृष्टि से उनके लिए तिथि , वार , नक्षत्र आदि का विचार करने की व्यवस्था की गयी है। षष्ठी पूजन एक संस्कार नहीं , अनुष्ठान है। वह भगवती षष्ठी को , जो स्वामी कार्तिकेय जी की पतनी है और बालकों की अधिष्ठात्री देवी हैं , को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है। संतान की दीर्घ आयु , सुरक्षा और भरण पोषण के लिए इस देवी की पूजा का प्रचलन हुआ।
चूडाकर्म संस्कार के बिना शिशु हिंदू नहीं बनता है। सभी वर्णों के लिए यह अनिवार्य संस्कार है। चूडाकर्म के द्वारा बालको के गर्भ के बालों का क्षौर कर चोटी रख दी जाती है। प्रत्येक हिंदू के लिए चोटी की रक्षा करना आवश्यक होता है , क्यूंकि धार्मिक अनुष्ठान , संध्या , श्राद्ध आदि कर्मकांडों में उसकी आवश्यकता रहत है। यह हिंदुत्व की पहचान है। विद्यारंभ से लेकर समावर्तन तक के पांच संस्कार शैक्षणिक कहे जाते हैं। विद्यारंभ , उपनयन , वेदारंभ , केशांत और समावर्तन तक के नाम से प्रसिद्ध हैं। बालक या बालिका को पांच वर्ष तक शिक्षा देना माता का धर्म है , उसके बाद अक्षरारंभ और आरंभिक ज्ञान का अवसर आता है , बालक समाज के बीच विचरण करता है , तब उसके आचरण और चारित्रिक गुणों का विकास करना पिता का कर्तब्य है।
क्षत्रियों का उपनयन संस्कार 11 वें वर्ष में करने का विधान है। उसके बाद बालक या बालिका की उच्च शिक्षा और चरित्र निर्माण आदि का भार सुयोग्य गुरू को सौंप देना चाहिए। ब्रह्मचर्य पालन के साथ साथ यम , नियम आदि का पालन और योग्यतानुसार विद्या का अभ्यास समावर्तन तक चलता रहता है। खत्रियों के लिए उपनयन की अधिकतम आयु 21 वर्ष है। उपनयन और समावर्तन दोनो ही अवसरों पर केशांत किया जाता है। शीश पर केश शोभा की वस्तु है , जिसका त्याग करना रेयस्कर माना गया है , क्यूंकि सांसारिकता के मोह का त्याग ही संस्कारों का लक्ष्य है। समावर्तन वर्तमान दीक्षांत समारोहों के समान है ख्, जिसमें गुरू विद्यार्थियों को भविष्य में जीवन के कर्तब्यों , विद्या के सदुपोग और बाधाओं से जूझने के लिए उपदेश देता है।
1 टिप्पणी:
आपके लेख से काफी जानकारी मिली, धीरे धीरे शहरी जीवन से संस्कार लुप्त होते जा रहे हैं ऐसे में आपके प्रयास का महत्व बढ़ जाता है.
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