शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

अरोड वंश का इतिहास ( तृतीय भाग ).... अरोडवंश और राजस्‍थान



ग्‍यारहवीं शताब्‍दी के प्रारंभ में जब पंजाब पर विदेशी आक्रमण हुए , तो कुछ अरोडवंशी राजस्‍थान की ओर भी चले गए। चिरकाल तक उनका संबंध पंजाबी अरोडवंशियों के साथ बना रहा। इस बात के अनेक प्रमाण मिलते हैं कि राजस्‍थान के अरोडवंशी पंजाब से होकर ही राजपूताने में बसे थे। कुछ हस्‍तलिखित ग्रंथों से इस बात के प्रमाण भी मिलते हैं। अरोडवंशी खत्रियों द्वारा बनवाया हुआ श्री दरियाब देव जी का मंदिर श्री पुष्‍कर राज में विद्यमान है। इसके अतिरिक्‍त जिन बडे कस्‍बों और नगरों में अरोडवंशी बिरादरी के घर अधिक हैं, वहां भी श्री दरियादेव जी के मंदिर स्‍थापित हैं। राजस्‍थान में अरोडवंशी खत्रियों की 84 अल्‍ले हैं। 

राजपूताना निवासी अरोडवंशियों में उत्‍तराधी , दरबने , डाहरे आदि भेदों का कोई समुदाय नहीं है। अधिकांश लोग इन भेदों से अनभिज्ञ भी हैं। लोगों के रीति रिवाजों को देखने पर राजस्‍थान के अरोडा दरबने प्रतीत होते हैं। राजस्‍थान के अरोडों में ज्‍यादातर व्‍यापार में ही लगे हैं। इस शताब्‍दी के प्रारंभ में राजस्‍थान के अरोडा समुदाय में एक विधवा के विवाह को लेकर फूट पड गयी और पूरी बिरादरी दो दलों में बंट गयी। यह दलबंदी अब भी देखने में आती है। एक दल का नाम जोधपुरी अरोडा खत्री तथा दूसरे दल वाले नागौरी अरोडा खत्री कहलाते हैं।

(खत्री हितैषी के स्‍वर्ण जयंती विशेषांक से साभार )






2 टिप्‍पणियां:

कुमार राधारमण ने कहा…

उपयोगी जानकारी। शोधपरक आलेख। थोड़ा और ज्यादा होना चाहिए था।

Udan Tashtari ने कहा…

आभार जानकारी का.

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