मात्र 20 दिन पूर्व शुरू किए गए इस ब्लाग पर रवीश कुमार जी की नजर ठहर जाएगी और ब्लाग जगत के बारे में लखे जानेवाले प्रिंट मीडिया के अच्छे स्तंभों में से एक यानि 'दैनिक हिन्दुस्तान' के ब्लाग वार्ताकॉलम में इसकी इतनी जल्दी जगह बन जाएगी , इसकी हमने कल्पना भी नहीं की थी। इसलिए पूरे भारतवर्ष के खत्री समाज को बहुत खुशी हुई है। पर अभी तक हमलोगों ने अभी बहुत कम पोस्ट डाला है , शायद इसलिए इस ब्लाग को बनाने के असली लक्ष्य को लेकर आपलोगों के मन में दुविधा बनी होगी। मैने इस ब्लाग के अपने पहले आलेख में ही स्पष्ट कर दिया था कि हमारी मंशा स्वार्थपूर्ण होते हुए भी देश हित में होगी , ठीक उसी तरह जैसे एक मां के द्वारा बच्चों का पालन पोषण स्वार्थ है , पर वह अच्छी तरह होता है , तो उससे देश को एक अच्छा नागरिक मिलता है। जाति पर आधारित समाज को लेकर बने इस ब्लॉग के औचित्य को लेकर एक दो पाठकों के सवालिया निशान के बाद इस वार्ता में भी रवीश जी के द्वारा यह लिखा जाना भी बिल्कुल स्वाभाविक है , 'खत्री समाज के लोगों की व्यापक उपलब्धियों के बाद भी इस तरह की कसक परेशान करती होगी, हैरानी होती है।'
सबसे प्राचीन ऋग्वेद के जिस श्लोक में सर्वप्रथम वर्ण व्यवस्था के जन्म का उल्लेख मिलता हैं वो "पुरुष सूक्त" (१०।९०।१२) में कुछ इस प्रकार से वर्णित हैं - "बराह्मणो अस्य मुखमासीद बाहू राजन्यः कर्तः ऊरूतदस्य यद वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अर्थात् " उस विराट पुरूष के मुख से ब्राह्मण, बाँहों से क्षत्रिय , पेट से वैश्य और पांवो के शूद्र का जन्म हुआ। यदि आज के वैज्ञानिक युग में इस बात को अंधविश्वास ही माना जाए , तब भी एक बात तो स्पष्टत: समझ में आती है कि यदि एक मनुष्य के समान ही किसी समाज की कल्पना की जाए तो समाज में बुद्धिमानों का महत्व और प्रतिशत लगभग उतना ही होता है , जितना एक शरीर में सर का। समाज की शक्ति को दर्शानेवाली शक्तिशाली और हिम्मतवर लोगों की संख्या उससे कुछ अधिक मानी जा सकती है , यानि शरीर का उसके धड में स्थित दोनो बांह और छाती के बराबर का हिस्सा। रोजी रोटी के लिए या व्यापार के साधनों पर अधिक ध्यान देनेवालों की संख्या उससे कुछ अधिक होती है यानि सचमुच पेट का हिस्सा उनका माना जा सकता है। और जिस तरह शरीर का आधा भाग कमर से लेकर पैरों तक का होता है , उसी तरह समाज में आधे से अधिक लोग ऐसे होते हैं , जो स्वयं किसी प्रकार का काम नहीं कर सकते यानि वो न तो बुद्धिमान होते हैं , न शक्तिशाली , न ही संसाधनों को संभालने लायक , पर मेहनती होते हैं और उन्हें कोई रास्ता दिखा दिया जाए तो पैरों के स्वभाव के अनुरूप ही उसपर चल सकते हैं। ठीक हमारे पैरों की तरह जो दिमाग , ताकत और खाने पीने से चलता है, पर उसी पर सारा शरीर आधारित होता है , शूद्रों की मेहनत पर ही पूरे समाज की सफलता आधारित होती है।समाज के अंदर ही असामाजिक तत्वों की उपस्थिति मुझे इतने ही प्रतिशत दिखाई देती है , जितना एक शरीर में नाखूनों का होता है , जिन्हें समय समय पर काटकर समाप्त करना आवश्यक होता है।
आज भी सरकार या प्राइवेट संस्थाओं के ओर से विभिन्न तरह की प्रतियोगिताओं के द्वारा हर क्षेत्र में उसके अनुकूल लोगों का चुनाव किया जाता है। सिर्फ कर्म और मेहनत से सफलता हाथ नहीं आती है , किसी भी व्यक्ति में उस तरह की कुछ जन्मजात प्रतिभा का होना बिल्कुल आवश्यक है। इसी आधार पर प्राचीन सामाजिक विभाजन ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों में किया गया था जिसका उद्देश्य सामाजिक संगठन, समृद्धि, सुव्यवस्था को बनाये रखना था। अब आज की ही तरह यह आवश्यक नहीं कि हर वर्ण के लिए ईमानदारी से ही चयन कर वर्ण व्यवस्था बनायी गयी हो। फिर भी हर क्षेत्र में 80 प्रतिशत से अधिक लोग तो क्षेत्र विशेष के अनुकूल गुण से युक्त होंगे ही। अब उन्हीं के मध्य विवाह के कारण आनेवाले बच्चों में भी उस प्रकार के जीन की अधिकता और साथ ही उसी ढंग के देखभाल होने से पीढी दर पीढी उस तरह के स्वभाव का बना रहना निश्चित ही था। फिर भी अपवाद स्वरूप हर प्रकार के स्वभाव रखनेवाले लोग हर वर्ण में होंगे ही , जिसके कारण हर क्षेत्र का विकास हुआ। पर इसके बावजूद चार वर्णो का गुण और कर्म के आधार पर विकास किए जाने से ब्राह्मणों की पंडिताई , क्षत्रियों की हिम्मत , वैश्यों की व्यवस्था और शूद्रों की मेहनत में अधिक शक तो नहीं किया जा सकता। पर इससे भी अधिक महत्वपूर्ण भारतीयता रही होगी , जो चारो वर्णों में समान रूप से पायी जाती रही।
मेरे विचार से ये चारो वर्ण समाज के विकास में सहयोगी हुए , क्यूंकि ब्राह्मणों के कारण शिक्षा , वैश्यों के कारण व्यापार के साथ ही साथ शूद्रों के कारण उत्पादन तो बढा ही, कला का भी इतना विकास हुआ। पर समाज के सब लोगों की सुरक्षा का भार क्षत्रियों पर ही रहा और उसे उन्होने बखूबी निभाया। समय के साथ 'खत्री' कहे जाने वाले क्षत्रियों ने जीवन निर्वाह के लिए विभिन्न प्रकार के व्यवसायों को किया, खेती बारी और कई तरह के काम में भी ये सम्मिलित रहें। पढाई लिखाई के क्षेत्र में भी इन्होने काफी तरक्की की, पर ऊंचे ऊंचे पदों पर प्रतिष्ठित होकर भी इन्होने विरले इसका दुरूपयोग किया हो। तरह तरह के व्यवसायों में शीर्ष स्थानों पर पहुंचकर न सिर्फ इन्होने काफी नाम ही नहीं कमाया , अपने फर्मों में काम करनेवाले कर्मचारियों की संतुष्टि का भी ख्याल रखा। गांवों में भी ये प्रमुख रहे हैं , जिन गांवों में ये बसे , उस क्षेत्र में स्थानीय विवादों का निबटारा इन्हीं के हिस्सों में रहता है। सफलता के लिए इन्होने अपनी मेहनत का सहारा लिया है , किसी के टांग खींचकर आगे बढने की प्रवृत्ति इनमें नहीं रही है। इससे भी जो बडी खूबी रही वह यह कि अपने जाति की बात तो दूर , अपने घर के नालायकों में भी इनको कोई मोह नहीं होता , ये उन्हें घर से निकालने तक में परहेज नहीं करते , अपनी संपत्ति से वंचित करने में भी परहेज नहीं रखते। समाज के हर धर्म और हर वर्ण के लोगों को इन्होने समान भाव से देखा। मानव जाति क्या , पशु पक्षी तक के मामलों में इनके विचार बहुत अच्छे थे , तभी तो खत्री परिवारों में मांसाहार वर्जित था। अभी तक भी खत्री परिवारों के खास मौकों यानि शादी विवाह , मुंडन जनेऊ या जन्मदिन की पार्टियों में मांसाहार वर्जित है। आज भी काफी हद तक खत्री इन नियमों का पालन कर ही रहे हैं। फिर भी इन्हे वैश्य समझे जाने का कोई तुक नहीं था , प्रमाण देने पर इन्होने इसमें तुरंत सुधार भी कर लिया। इसलिए इसकी अब कोई कसक हमारे मध्य नहीं है।
लेकिन इन्हीं बातों से आज इनकी प्रशंसा नहीं की जा सकती। 'खत्रियों' का मुख्य लक्ष्य अपने पूरे मानव समाज की रक्षा करनी है, इसके लिए उन्हें एकजुट होना पडेगा। आज हमारे सामने जो चुनौतियां हैं , जो कठिनाइयां हैं , उनसे मुकाबला करना होगा। मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए अपनी मनुष्यता खोता जा रहा है, आनेवाले समय में भारतीय समाज बडे ही विकट संकट से गुजरनेवाला है , ऐसे में खत्रियों को समाज के प्रति अपने कर्तब्यों को याद रखना होगा। समस्याओं को दूर करने लिए हममें क्षमता की कमी नहीं , पर तैयारी हमें अभी से ही करनी चाहिए , इसके लिए उनका संगठित होना बहुत आवश्यक है। सभी धर्म और सभी जाति के लोग पहले भारतीय समाज के हिस्से हैं , ये वास्तव में हमारे भाई हैं , इसे न भूलते हुए हमें सबों के कल्याण के लिए कार्यक्रम बनाने होंगे। इस आलेखमें खत्री कृष्ण चंद्र बेरी जी ने इसी कारण से खत्रियों को एकजुट होने का आह्वान किया है।उन्होने लिखा है कि बेरोजगारी , निर्धनता और शारीरिक स्वास्थ्यहीनता से बडी समस्या आज सामाजिक विघटन की है। तरह तरह के बहाने गढकर स्वार्थी लोग बहाने बना बनाकर जनता को विभिन्न आधारों पर विभक्त करने का काम कर रहे हैं। इसी प्रकार स्वार्थों के वशीभूत होकर सती जैसी बर्बर और अशास्त्रीय रूढि का पुनरूत्थान करने और कहीं कहीं धर्मग्रंथों की शाब्दिक सीमाओं में बंधकर विधवाओं को उनके मानवीय अधिकारों से वंचित किया जाता रहा है।खत्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका की परंपरा यदि हमें बनाए रखनी है , तो हमें स्वप्रेरणा के बल पर आज की समस्याओं से टक्कर लेनी होगी।
(लेखिका .. संगीता पुरी )
5 टिप्पणियां:
अच्छी पहल है!
वाह संगीता जी वाह !
बधाइयां और नमन आपको...........
बहुत लिखा और बहुत ख़ूब लिखा आपने.........
हालांकि मैंने पूरा नहीं पढ़ा है लेकिन मैं पढूंगा भी और सहेजूँगा भी........खत्री समाज के बारे में पढ़ कर बहुत अच्छा लगा
धन्यवाद !
आप ने बहुत सुंदर प्रयास किया है, ओर इस से सब को बहुत लाभ भी मिलेगा, हम भी खत्री है, आज रात को इस लेख को पुरा पढुंगा.
धन्यवाद
आदरणीय संगीता जी
यह भी हो सकता है कि चारों वर्णों के गुणों और कर्मों के विकास के लिये ही विवाह व्यवस्था में उसी जाति में विवाह और गौत्र वाले नियम डाले गये हों ।
लेख बहुत अच्छा लगा और इस ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिये हार्दिक धन्यवाद
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बांटो और इतना बांटो कि बात ने लायक कुछ बचे ही नहीं.
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