शनिवार, 14 नवंबर 2009

भारतवर्ष के कई राज्‍यों में 'खेत्री' के नाम से जानेवाली जाति भी खत्री ही है !!



विशाखापतनम मैनुअल में 'खेत्री' नाम की एक अन्‍य जाति का भी विवरण है, जो जेपौर के जमींदार थे। इनके 16 कुल हैं , सभी जनेउ पहनते हैं। इसी जेपोर एजेंसी के क्षेत्र में कुछ खत्री कृषको का भी उल्‍लेख है , जो दक्षिण के जुलाहे खत्रियों से भिन्‍न हैं। ये सूर्य, बाघ , कच्‍छप और नागवंशी खत्रियों में बंटे हैं। ये अपनी कन्‍याओं का विवाह व्‍यस्‍क होने से पूर्व करते हैं और एक उडिया ब्राह्मण इनके विवाह संस्‍कार कराता है। संस्‍कार कन्‍या के घर पर होता है , वर विवाह के समय पहली बार जनेउ धारण करता है। इनका रंग साफ है और ये उडिया भाषा बोला करते हैं। 

इतिहासों में यह उल्‍लेख मिलता है कि मई या जून सन् 1360 ईस्‍वी में वारंगल के युद्ध में राज्‍य के सब नगरों के हिन्‍दू महाजन तथा रूपए की अदला बदली करनेवाले व्‍यापारी राजाज्ञा से मार डाले गए। आर्थिक जीवन में उनका स्‍थान उत्‍तरी भारत की खत्री जाति ने ले लिया , जो कि उन विभिन्‍न सेनाओं के साथ आए थे , जिन्‍होने दक्षिण भारत पर आक्रमण किए। वे लोग फिरोज शाह बहमनी (1374-1422) के राज्‍य तक व्‍यापार और महाजनी के धंधे में सर्वेसर्वा रहें। उसके ही राज्‍य में मारे गए व्‍यापारियों के पुत्रों को पुन: अपना व्‍यापार आरंभ करने की आज्ञा मिली। 

दक्षिण भारत के खत्री सामान्‍यतया अल्‍पसंख्‍यक और असंगठित होने के कारण पिछडेपन के शिकार हैं , अत: स्‍थानीय सरकारों ने आरक्षण नीति के अंतर्गत उन्‍हें पिछडे वर्ग में रखा है। तमिलनाडु में भी खत्री समाज को पिछडे वर्ग में ही रखा गया है।


(खत्री सीताराम टंडन जी के सौजन्‍य से)



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